ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 113/ मन्त्र 14
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - उषाः द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
व्य१॒॑ञ्जिभि॑र्दि॒व आता॑स्वद्यौ॒दप॑ कृ॒ष्णां नि॒र्णिजं॑ दे॒व्या॑वः। प्र॒बो॒धय॑न्त्यरु॒णेभि॒रश्वै॒रोषा या॑ति सु॒युजा॒ रथे॑न ॥
स्वर सहित पद पाठवि । अ॒ञ्जिऽभिः॑ । दि॒वः । आता॑सु । अ॒द्यौ॒त् । अप॑ । कृ॒ष्णाम् । निः॒ऽनिज॑म् । दे॒वी । आ॒व॒रित्या॑वः । प्र॒ऽबो॒धय॑न्ती । अ॒रु॒णेभिः॑ । अश्वैः॑ । आ । उ॒षाः । या॒ति॒ । सु॒ऽयुजा॑ । रथे॑न ॥
स्वर रहित मन्त्र
व्य१ञ्जिभिर्दिव आतास्वद्यौदप कृष्णां निर्णिजं देव्यावः। प्रबोधयन्त्यरुणेभिरश्वैरोषा याति सुयुजा रथेन ॥
स्वर रहित पद पाठवि। अञ्जिऽभिः। दिवः। आतासु। अद्यौत्। अप। कृष्णाम्। निःऽनिजम्। देवी। आवरित्यावः। प्रऽबोधयन्ती। अरुणेभिः। अश्वैः। आ। उषाः। याति। सुऽयुजा। रथेन ॥ १.११३.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 113; मन्त्र » 14
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे स्त्रियो यूयं यथा प्रबोधयन्ती देव्युषा अञ्जिभिर्दिव आतासु सर्वान् पदार्थान् व्यद्यौत् निर्णिजं कृष्णामपावः अरुणेभिरश्वैः सह वर्त्तमानेन सुयुजा रथेनायाति तद्वद्वर्त्तध्वम् ॥ १४ ॥
पदार्थः
(वि) (अञ्जिभिः) प्रकटीकरणैर्गुणैः (दिवः) आकाशात् (आतासु) व्याप्तासु दिक्षु। आता इति दिङ्नामसु पठितम्। निघं० १। ६। (अद्यौत्) विद्योतयति प्रकाशते (अप) (कृष्णाम्) रात्रिम् (निर्णिजम्) रूपम्। निर्णिगिति रूपनामसु पठितम्। निघं० ३। ७। (देवी) दिव्यगुणा (आवः) निवारयति (प्रबोधयन्ती) जागरणं प्रापयन्ती (अरुणेभिः) ईषद्रक्तैः (अश्वैः) व्यापनशीलैः किरणैः (आ) (उषाः) (याति) (सयुजा) सुष्ठुयुक्तेन (रथेन) रमणीयस्वरूपेण ॥ १४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथोषाः काष्ठासु व्याप्ताऽस्ति तथा कन्या विद्यासु व्याप्नुयुः। यथेयमुषाः स्वकान्तिभिः सुशोभना रमणीयेन स्वरूपेण प्रकाशते तथैताः स्वशीलादिभिः सुन्दरेण रूपेण शुम्भेयुः। यथेयमुषा अन्धकारनिवारणप्रकाशं जनयति तथैता मौर्ख्यं निवार्य सुसभ्यतादिगुणैः प्रकाशन्ताम् ॥ १४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे स्त्रीजनो ! तुम जैसे (प्रबोधयन्ती) सोतों को जगाती हुई (देवी) दिव्यगुणयुक्त (उषाः) प्रातःसमय की वेला (अञ्जिभिः) प्रकट करनेहारे गुणों के साथ (दिवः) आकाश से (आतासु) सर्वत्र व्याप्त दिशाओं में सब पदार्थों को (व्यद्यौत्) विशेष कर प्रकाशित करती (निर्णिजम्) वा निश्चितरूप (कृष्णाम्) कृष्णवर्ण रात्रि को (अपावः) दूर करती वा (अरुणेभिः) रक्तादि गुणयुक्त (अश्वैः) व्यापनशील किरणों के साथ वर्त्तमान (सुयुजा) अच्छे युक्त (रथेन) रमणीय स्वरूप से (आ, याति) आती है, उसके समान तुम लोग वर्त्ता करो ॥ १४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रातःसमय की वेला दिशाओं में व्याप्त है, वैसे कन्या लोग विद्याओं में व्याप्त होवें, वा जैसे यह उषा अपनी कान्तियों से शोभायमान होकर रमणीय स्वरूप से प्रकाशमान रहती है, वैसे यह कन्याजन अपने शील आदि गुण और सुन्दर रूप से प्रकाशमान हों, जैसे यह उषा अन्धकार के निवारणरूप प्रकाश को उत्पन्न करती है, वैसे ये कन्याजन मूर्खता आदि का निवारण कर सुसभ्यतादि शुभ गुणों से सदा प्रकाशित रहें ॥ १४ ॥
विषय
प्रबोधयन्ती उषा
पदार्थ
१. यह (देवी) = द्योतनशील उषा (दिवः आतासु) = द्युलोक - सम्बन्धी इन दिशाओं में (व्यञ्जिभिः) = अपने प्रकाशक तेजों से (अद्यौत्) = दीप्त होती है । दीप्त होती हुई यह उषा (कृष्णां निर्णिजम्) = रात्रि के अन्धकारावृत होने से उसके कृष्ण रूप को (अप आवः) = अपावृत कर देती है - प्रकाश के द्वारा तिरस्कृत कर देती है । रात्रि का वह काला रूप उषा के आते ही समाप्त हो जाता है । २. यह (उषाः) = उषा (अरुणेभिः) = अव्यक्त लालिमावाले (अश्वैः) = किरणरूप अश्वों से (सुयुजा) = उत्तम रीति से युक्त (रथेन) = रथ से (आयाति) = आती है और (प्रबोधयन्ती) = सबको प्रबुद्ध करती है । उषा होने पर सब जाग जाते हैं । यह उषा सभी को अपने - अपने कार्यों में प्रवृत्त होने को कहती है । इसका प्रकाश सबको जगानेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - उषा आती है , रात्रि के कृष्ण रूप को समाप्त करती है , सभी को जगाती है । और स्व - स्व कार्य में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देती है ।
विषय
उषा के दृष्टान्त से नववधू, गृहपत्नी, और विदुषी स्त्री के कर्तव्यों का उपदेश ।
भावार्थ
( उषा ) उपा जिस प्रकार ( दिवः ) सूर्य के ( अञ्जिभिः ) किरणों से ( आतासु ) दिशाओं में ( वि अद्यौत्) विशेष रूप से प्रकाश करती है उसी प्रकार कमनीय स्त्री भी ( दिवः अञ्जिभिः ) अपने तेजस्वी पति के ज्ञानप्रकाशक विशेष गुणों से ( आतासु ) समस्त क्रियाओं और विद्याओं में विशेष रूप से चमके । (देवी) प्रकाश करने वाली उषा जिस प्रकार ( कृष्णां निर्णिजम् ) रात्रि के अन्धकारमय रूप को ( अप आवः ) दूर कर देती है, या ( कृष्णाम् अप ) रात्री को दूर करके ( निर्णिजम् आवः ) सब पदार्थों के उज्ज्वल रूप को प्रकट करती है उसी प्रकार ( देवी ) उत्तम स्त्री भी ( कृष्णाम् ) राजस मलिनता को दूर करके ( निर्णिज आवः ) अपने शुद्ध कान्तिमय सुन्दर रूप को प्रकट करे, स्वच्छ रहे । ( उषा अरुणेभिः अश्वैः प्रबोधयन्ती ) उषा जिस प्रकार अरुण किरणों से सबको जगाती हुई ( सुयुजा रथेन ) उत्तम सहयोगी आदित्य के साथ ( याति ) गमन करती है उसी प्रकार कमनीय गुणों से युक्त कन्या भी ( अरुणेभिः ) अपने अनुराग युक्त गुणों से ( प्रबोधयन्ती ) सबको उत्तम ज्ञान कराती हुई और ( अरुणेभिः अश्वैः सुयुजा रथेन याति ) लाल घोड़ों सहित जुते हुए रथ से तथा अनुराग युक्त गुणों वाले उत्तम सहयोगी तथा रमणकारी पति पुरुष से युक्त होकर ( याति ) संसार-मार्ग में यात्रा करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ १-२० उषा देवता । द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि॥ छन्दः– १, ३, ९, १२, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । ७, १८—२० विराट् त्रिष्टुप्। २, ५ स्वराट् पंक्तिः। ४, ८, १०, ११, १५, १६ भुरिक् पंक्तिः। १३, १४ निचृत्पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी प्रातःकाळची वेळ दिशांमध्ये व्याप्त आहे तशा कन्या विद्येत व्याप्त व्हाव्यात. जशी ही उषा आपल्या कांतीने शोभायमान होऊन रमणीय स्वरुपाने प्रकाशमान असते तसे या कन्या आपले शील इत्यादी गुण व सुंदर रुपाने प्रकाशित व्हाव्यात. जशी उषा अंधकाराचे निवारण करून प्रकाश उत्पन्न करते तसे या कन्या अविद्या इत्यादीचे निवारण करून सुसभ्यता इत्यादी शुभ गुणांनी सदैव प्रकाशित व्हाव्यात. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
With her soothing celebrities, shining from heaven across the quarters of space, the bright dawn dispels the darkness of night and adorns and reveals the beauty of the world. Waking up the sleeping humanity she comes in the early morning by the celestial car of luxurious light drawn by the glorious sunbeams of fiery speed and splendour.
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