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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 113 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 113/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - उषाः द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    रुश॑द्वत्सा॒ रुश॑ती श्वे॒त्यागा॒दारै॑गु कृ॒ष्णा सद॑नान्यस्याः। स॒मा॒नब॑न्धू अ॒मृते॑ अनू॒ची द्यावा॒ वर्णं॑ चरत आमिना॒ने ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रुश॑त्ऽवत्सा । रुश॑ती । श्वे॒त्या । आ । अ॒गा॒त् । अरै॑क् । ऊँ॒ इति॑ । कृ॒ष्णा । सद॑नानि । अ॒स्याः॒ । स॒मा॒नब॑न्धू॒ इति॑ स॒मा॒नऽब॑न्धू । अ॒मृते॒ इति॑ । अ॒नू॒ची इति॑ । द्यावा॑ । वर्ण॑म् । च॒र॒तः॒ । आ॒मि॒ना॒ने इत्या॑ऽमि॒ना॒ने ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रुशद्वत्सा रुशती श्वेत्यागादारैगु कृष्णा सदनान्यस्याः। समानबन्धू अमृते अनूची द्यावा वर्णं चरत आमिनाने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रुशत्ऽवत्सा। रुशती। श्वेत्या। आ। अगात्। अरैक्। ऊँ इति। कृष्णा। सदनानि। अस्याः। समानबन्धू इति समानऽबन्धू। अमृते इति। अनूची इति। द्यावा। वर्णम्। चरतः। आमिनाने इत्याऽमिनाने ॥ १.११३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 113; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथोषोरात्रिव्यवहारमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या येयं रुशद्वत्सा वा रुशतीव श्वेत्योषा आगादस्या उ सदनानि प्राप्ता कृष्णा रात्र्यारैक् ते द्वे अमृते आमिनाने अनूची द्यावा समानबन्धू इव वर्णं चरतस्ते यूयं युक्त्या सेवध्वम् ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (रुशद्वत्सा) रुशज्ज्वलितः सूर्य्यो वत्सो यस्याः सा (रुशती) रक्तवर्णयुक्ता (श्वेत्या) शुभ्रस्वरूपा (आ) (अगात्) समन्तात् प्राप्नोति (अरैक्) अतिरिणक्ति (उ) अद्भुते (कृष्णा) कृष्णवर्णा रात्री (सदनानि) स्थानानि (अस्याः) उषसः (समानबन्धू) यथा सहवर्त्तमानौ मित्रौ भ्रातरौ वा (अमृते) प्रवाहरूपेण विनाशरहिते (अनूची) अन्योऽन्यवर्त्तमाने (द्यावा) द्यावौ स्वस्वप्रकाशेन प्रकाशमानौ (वर्णम्) स्वस्वरूपम् (चरतः) प्राप्नुतः (आमिनाने) परस्परं प्रक्षिपन्तौ पदार्थाविव ॥ २ ॥ ।इमं मन्त्रं यास्कमुनिरेवं व्याख्यातवान्−रुशद्वत्सा सूर्यवत्सा रुशदिति वर्णनाम रोचतेर्ज्वलतिकर्मणः। सूर्यमस्या वत्समाह साहचर्य्याद्रसहरणाद्वा रुशती श्वेत्यागात्। श्वेत्याश्वेततेररिचत् कृष्णा सदनान्यस्याः कृष्णवर्णा रात्रिः कृष्णं कृष्यतेर्निकृष्टो वर्णः। अथैने संस्तौति समानबन्धू समानबन्धने अमृते अमरणधर्माणावनूची अनूच्यावितीतरेतरमभिप्रेत्य द्यावा वर्णं चरतस्त एव द्यावौ द्योतनादपि वा द्यावाचरतस्तया सह चरत इति स्यादामिनाने आमिन्वाने अन्योन्यस्याध्यात्मं कुर्वाणे। निरु० २। २० ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यस्मिन् स्थाने रात्री वसति तस्मिन्नेव स्थाने कालान्तरे उषा च वसति। आभ्यामुत्पन्नः सूर्य्यो द्वैमातुर इव वर्त्तते इमे सदा बन्धूवद्गतानुगामिन्यौ रात्र्युषसौ वर्त्तेते एवं यूयं वित्त ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब रात्रि और प्रभातवेला के व्यवहार को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो यह (रुषद्वत्सा) प्रकाशित सूर्यरूप बछड़े की कामना करनेहारी वा (रुशती) लाल लालसी (श्वेत्या) शुक्लवर्णयुक्त अर्थात् गुलाबी रङ्ग की प्रभात वेला (आ, अगात्) प्राप्त होती है (अस्याः, उ) इस अद्भुत उषा के (सदनानि) स्थानों को प्राप्त हुई (कृष्णा) काले वर्णवाली रात (आरैक्) अच्छे प्रकार अलग-अलग वर्त्तती है, वे दोनों (अमृते) प्रवाहरूप से नित्य (आमिनाने) परस्पर एक दूसरे को फेंकती हुई सी (अनूची) वर्त्तमान (द्यावा) अपने-अपने प्रकाश से प्रकाशमान (समानबन्धू) दो सहोदर वा दो मित्रों के तुल्य (वर्णम्) अपने-अपने रूप को (चरतः) प्राप्त होती हैं, उन दोनों का युक्ति से सेवन किया करो ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिस स्थान में रात्री वसती है, उसी स्थान में कालान्तर में उषा भी वसती है। इन दोनों से उत्पन्न हुआ सूर्य्य जानों दोनों माताओं से उत्पन्न हुए लड़के के समान है और ये दोनों सदा बन्धु के समान जाने-आनेवाली उषा और रात्रि हैं, ऐसा तुम लोग जानो ॥ २ ॥

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    विषय

    रात्रि व उषा का चक्र

    पदार्थ

    १. यह उषा (रुशद्वत्सा) = देदीप्यमान सूर्यरूप वत्सवाली है । सूर्य मानो उषा का पुत्र है । उषा के पश्चात् ही तो सूर्य आता है तथा ओसकणों के रूप में उषा के दुग्ध को यह सूर्य पीता है । (उ) = निश्चय ही (रुशती) = यह देदीप्यमान है , अपने अद्भुत प्रकाश से (श्वेत्या) = श्वेतवर्णवाली यह उषा (आगात्) = आती है  (कृष्णा) = अन्धकार के कारण कृष्णवर्णवाली रात्रि (अस्याः सदनानि) = इस उषा के स्थानों को (आरैक्) = खाली कर देती है , रात्रि का स्थान उषा लेती है । २. ये दोनों (समानबन्धू) = समान रूप से सूर्य के साथ सम्बद्ध हैं । अस्त होते हुए सूर्य के साथ रात्रि का सम्बन्ध है तो उदय होते हुए सूर्य के साथ उषा का । एक ओर सूर्य रात्रि से सम्बद्ध है , दूसरी ओर उषा से । (अमृते) = ये रात्रि और उषा दोनों अमृत हैं - प्रवाहरूप से सदा चलनेवाली हैं । प्रत्येक उषा व प्रत्येक रात्रि तो समाप्त होती है , परन्तु इनका यह चक्र चलता रहता है । (अनूची) = [अनु अञ्चु गतिपूजनयोः] ये एक - दूसरे के पीछे आनेवाली हैं । रात्रि के पश्चात् उषा और उषा के बाद रात्रि । यह क्रम कभी समास नहीं होता । ये दोनों (वर्णम्) एक - दूसरे के वर्ण को (आमिनाने) = हिंसित करती हुई (द्यावा चरत) = आकाश में गति करती हैं । उषा रात्रि के कृष्णवर्ण को समाप्त करती है और रात्रि दिन के श्वेतवर्ण को समाप्त कर देती है - अथवा ये दोनों उषा व रात्रि प्राणियों के वर्ण को समास करती हुई आकाश में गति करती हैं । उषा और रात्रि की गति से आयुष्य का क्षय होकर जीर्णता आती है और इस प्रकार तेजस्विता का रूप मन्द होता जाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उषा आती है , रात्रि उसके लिए स्थान खाली कर देती है । एक - दूसरे के पश्चात् निरन्तर आती हुईं ये उषा और रात्रि आकाश में गति करती हैं ।

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    विषय

    उषा के दृष्टान्त से नववधू, गृहपत्नी, और विदुषी स्त्री के कर्तव्यों का उपदेश ।

    भावार्थ

    ( रुशद्-वत्सा रुशती ) लाल बछड़े वाली लाल गाय या ( श्वेत्या ) श्वेत वर्ण की गौ के समान ( रुशत्-वत्सा ) अति देदीप्यमान सूर्य रूप बछड़े को साथ लिये हुए ( रुशती ) लाल आभा वाली ( श्वेत्या ) उषा ( आगात् ) आती है। और फिर ( अस्याः सदनानिः ) इसी के स्थानों को ( कृष्णा उ ) काली वर्ण वाली गौ के समान काली अन्धकार वाली रात्रि भी (आरैक्) आती है, या (कृष्णा) काली अन्धकार वाली रात्रि (अस्याः सदनानि) उसके लिये स्थान (आरैक्) त्यागती, प्रदान करती है। उसको अपने विश्राम स्थान देकर चली जाती है। रात्रि और दिन दोनों ( समान बन्धू ) समान पद के स्नेह से बंधे हुए दो सहोदर भाई या मित्र या बहनों के समान रहती हुई ( अमृते ) कभी नाश न होनेवाली ( अनूची ) एक दूसरे के पीछे आती हुईं ( द्यावा ) अपने अपने प्रकाश सूर्य और चन्द्र नक्षत्रादि के प्रकाशों से प्रकाशित होती हुई परस्पर (आमिनाने) एक दूसरे को दूर हटाती हुईं एक दूसरे का नाश करती हुई ( वर्णं चरतः ) अपना २ स्वरूप प्रकट करती हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ १-२० उषा देवता । द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि॥ छन्दः– १, ३, ९, १२, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । ७, १८—२० विराट् त्रिष्टुप्। २, ५ स्वराट् पंक्तिः। ४, ८, १०, ११, १५, १६ भुरिक् पंक्तिः। १३, १४ निचृत्पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्या स्थानी रात्र असते कालांतराने त्याच स्थानी उषाही येते. या दोन्हींपासून उत्पन्न झालेला सूर्य जणू दोन्ही मातांपासून उत्पन्न झालेल्या पुत्राप्रमाणे आहे. उषा व रात्री या दोघी दोन बंधूप्रमाणे आहेत हे तुम्ही जाणा. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The bright dawn comes shining with light, bearing the bright sun new born. The dark night leaves its regions open for the light. Both, like sisters of the same one brother, immortal, assume their own form of light, one bright, the other covered and both come in succession, each retiring and succeeding the other.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now something about the dawn and night is taught in the second Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The white shining dawn, the mother of the sun has arrived, dark night sought her own abode. Both allied to the sun, immortal (by flow or cycle.) succeeding each other and mutually effacing each other's complexion, traverse the heaven.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रुशद्वत्सा) रुश उज्ज्वलितः सूर्यो बत्सो यस्याः सा = Who has the sun as her child. (अनूची) अन्योन्यवर्तमाने - Related to each other, following one another. (आमिनाने) परस्परं प्रक्षिपन्तौ पदार्थाविव । = Like two articles, throwing each other. (वर्णम्) वरणीयं श्रेष्ठं ज्ञानम् आनन्दं च

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should know the nature of the night and the dawn. The dawn takes possession of the place where there was night before. The sun born from or after these has two mothers (so to speak). They (night and dawn) follow each other like kith and kin.

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