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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 11
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    त्वाम॑ग्ने प्रथ॒ममा॒युमा॒यवे॑ दे॒वा अ॑कृण्व॒न्नहु॑षस्य वि॒श्पति॑म्। इळा॑मकृण्व॒न्मनु॑षस्य॒ शास॑नीं पि॒तुर्यत्पु॒त्रो मम॑कस्य॒ जाय॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । अ॒ग्ने॒ । प्र॒थ॒मम् । आ॒युम् । आ॒यवे॑ । दे॒वाः । अ॒कृ॒ण्व॒न् । नहु॑षस्य । वि॒श्पति॑म् । इळा॑म् । अ॒कृ॒ण्व॒न् । मनु॑षस्य । शास॑नीम् । पि॒तुः । यत् । पु॒त्रः । मम॑कस्य । जाय॑ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामग्ने प्रथममायुमायवे देवा अकृण्वन्नहुषस्य विश्पतिम्। इळामकृण्वन्मनुषस्य शासनीं पितुर्यत्पुत्रो ममकस्य जायते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम्। अग्ने। प्रथमम्। आयुम्। आयवे। देवाः। अकृण्वन्। नहुषस्य। विश्पतिम्। इळाम्। अकृण्वन्। मनुषस्य। शासनीम्। पितुः। यत्। पुत्रः। ममकस्य। जायते ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने विज्ञानान्वितसभाध्यक्ष ! देवा नहुषस्यायव इमामिळामकृण्वन् विशदीमकुर्वन् मनुष्यस्य शासनीं सत्यशिक्षां चाकृण्वन्। प्रजा च यत्-यथा ममकस्य पितुः पुत्रो जायते तथा भवति ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (त्वाम्) प्रजापतिम् (अग्ने) विज्ञानान्वित (प्रथमम्) सर्वेष्वग्रगन्तारम् (आयुम्) य एति न्यायेन प्रजां तं (आयवे) यथा विज्ञानाय (देवाः) विद्वांसः (अकृण्वन्) कुर्युः। अत्र लिङर्थे लङ्। (नहुषस्य) मनुषस्य। नहुष इति मनुष्यनामसु पठितम् । (निघं०२.३) नहुषस्येत्यत्र सायणाचार्य्येण नहुषनामकराजविशेषो गृहीतस्तस्तदसत्। कस्यचिन्नहुषस्येदानींतनत्वाद् वेदानां सनातनत्वात् तस्य गाथात्र न सम्भवति निघण्टौ नहुषस्येति मनुष्यनाम्नः प्रसिद्धेश्च। (विश्पतिम्) विशां प्रजानां पतिं पालकं सर्वोत्तमं राजानम् (इळाम्) वेदचतुष्टयीं वाचम्। इळेति वाङ्नामसु पठितम् । (निघं०१.१९) (अकृण्वन्) कुर्युः (मनुषस्य) मनुष्यस्य। अत्र मन् धातोर्बाहुलकादुषन् प्रत्ययः। (शासनीम्) शास्ति सर्वान् विद्याधर्माचरणशीलान् यया सत्यनीत्या ताम्। अत्रापि सायणाचार्य्येण मनोः पुत्री गृहीता तदप्यशुद्धमेव। (पितुः) जनकस्य सकाशात् (यत्) यथा सुपां सुलुग्० इति तृतीयैकवचनस्य लुक्। (पुत्रः) यः पितृपावनशीलः (ममकस्य) मादृशस्य। अत्र बाहुलकान् मन्धातोर्दमकन् प्रत्ययः। (जायते) उत्पद्यते ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    नैवेश्वरप्रणीतेन व्यवस्थापकेन वेदशास्त्रेण राजनीत्या च विना प्रजापालक प्रजां पालयितुं शक्नोति, प्रजाजनश्च राज्ञोऽज्ञसन्तानवद्भवत्यतः सभापती राजाज्ञपुत्रमिव प्रजां शिष्यात् ॥ ११ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है और क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विज्ञानयुक्त सभाध्यक्ष ! (देवाः) विद्वानों ने (नहुषस्य) मनुष्य की (आयवे) विज्ञानवृद्धि के लिये इस (इळाम्) वेदवाणी को (अकृण्वन्) प्रकाशित किया तथा (मनुष्यस्य) मनुष्यमात्र की (शासनीम्) सत्य शिक्षा को (अकृण्वन्) प्रकाशित किया और (यत्) जैसे (ममकस्य) हम लोग (पितुः) पिता होते हैं, उनका (पुत्रः) पुत्र अपने शील से पितृवर्ग को पवित्र करनेवाला (जायते) उत्पन्न होता है, वैसे राजवर्गों के प्रजाजन होते हैं ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    ईश्वरोक्त व्यवस्था करनेवाले वेद शास्त्र और राजनीति के विना प्रजा पालनेहारा सभापति राजा प्रजा नहीं पाल सकता है और प्रजा राजा के अज्ञ सन्तान के तुल्य होती है, इससे सभापति राजा पुत्र के समान प्रजा को शिक्षा देवे ॥ ११ ॥

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    विषय

    फिर वह कैसा है और क्या करे, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अग्ने विज्ञानान्वित सभाध्यक्ष ! देवा नहुषस्य आयवः इमाम् इळाम् अकृण्वन् विशदीम् अकुर्वन् मनुष्यस्य शासनीं सत्यशिक्षां चाकृण्वन् प्रजा च यत्-यथा ममक् अस्य पितुः पुत्रः जायते तथा भवति॥११॥

    पदार्थ

    हे  (अग्ने) विज्ञानान्वित सभाध्यक्ष=विशेष ज्ञान से युक्त सभाध्यक्ष  ! (देवाः) विद्वांसः=विद्वान्, (नहुषस्य) मनुषस्य=मनुष्य का, (आयवः) यथा विज्ञान वृद्धिः=जैसे विशेष ज्ञान की वृद्धि के, (इमाम्)=इस, (इळाम्) वेदचतुष्टयीं वाचम्=चारों वेदों की वेदवाणी को, (अकृण्वन्) कुर्युः=प्रकाशित किया, (मनुषस्य) मनुष्यस्य=मनुष्यमात्र की, (शासनीम्) शास्ति सर्वान् विद्याधर्माचरणशीलान् यया सत्यनीत्या ताम्=सब  विद्या धर्म आचरणशीलता की, (सत्यशिक्षाम्)=सत्य शिक्षा को,  (च) भी, (अकृण्वन्) प्रकाशित किया है और (प्रजा)=सन्तान, (च)=भी, (यत्) यथा=जैसे, (ममकस्य) मादृशस्य= हम लोगों के समान, (पितुः) जनकस्य सकाशात्=पिता की समीपता से, (पुत्रः) यः पितृपावनशीलः=पुत्र अपने स्वभाव से पूर्वजों को पवित्र करनेवाला, (जायते) उत्पद्यते=उत्पन्न होता है, (तथा)=वैसे ही, (भवति)=राजवर्गों के प्रजाजन होते हैं॥११॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    ईश्वरोक्त व्यवस्था करनेवाले वेद शास्त्र और राजनीति के विना प्रजा पालनेहारा सभापति राजा प्रजा नहीं पाल सकता है और प्रजा राजा के अज्ञ सन्तान के तुल्य होती है, इससे सभापति राजा पुत्र के समान प्रजा को शिक्षा देवे ॥ ११ ॥ 

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- *नहुष इति मनुष्य नामसु पठितम् (निघण्टु 2.31)। सायण के द्वारा इसका राजा विशेष अर्थ किया गया है, वह वेदों में नित्य होने से इतिहास न होने से वहाँ असंगत है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (अग्ने) विशेष ज्ञान से युक्त सभाध्यक्ष  ! (देवाः) विद्वान् (नहुषस्य*) मनुष्य के (आयवः)  जैसे विशेष ज्ञान की वृद्धि के लिए (इमाम्) इस (इळाम्) चारों वेदों की वेदवाणी को (अकृण्वन्) प्रकाशित किया है। (मनुषस्य) मनुष्यमात्र की (शासनीम्) सब  विद्या, धर्म और आचरणशीलता की (सत्यशिक्षाम्) सत्य शिक्षा को  (च) भी (अकृण्वन्) प्रकाशित किया है और (प्रजा) सन्तान (च) भी (यत्) जैसे (ममकस्य) हम लोगों के समान (पितुः) पिता की समीपता (पुत्रः+जायते) अपने पूर्वजों को पवित्र करनेवाले स्वभाव का पुत्र  उत्पन्न होता है, (तथा) वैसे ही (भवति) राजवर्गों के प्रजाजन होते हैं॥११॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वाम्) प्रजापतिम् (अग्ने) विज्ञानान्वित (प्रथमम्) सर्वेष्वग्रगन्तारम् (आयुम्) य एति न्यायेन प्रजां तं (आयवे) यथा विज्ञानाय (देवाः) विद्वांसः (अकृण्वन्) कुर्युः। अत्र लिङर्थे लङ्। (नहुषस्य) मनुषस्य। नहुष इति मनुष्यनामसु पठितम् । (निघं०२.३) नहुषस्येत्यत्र सायणाचार्य्येण नहुषनामकराजविशेषो गृहीतस्तस्तदसत्। कस्यचिन्नहुषस्येदानींतनत्वाद् वेदानां सनातनत्वात् तस्य गाथात्र न सम्भवति निघण्टौ नहुषस्येति मनुष्यनाम्नः प्रसिद्धेश्च। (विश्पतिम्) विशां प्रजानां पतिं पालकं सर्वोत्तमं राजानम् (इळाम्) वेदचतुष्टयीं वाचम्। इळेति वाङ्नामसु पठितम् । (निघं०१.१९) (अकृण्वन्) कुर्युः (मनुषस्य) मनुष्यस्य। अत्र मन् धातोर्बाहुलकादुषन् प्रत्ययः। (शासनीम्) शास्ति सर्वान् विद्याधर्माचरणशीलान् यया सत्यनीत्या ताम्। अत्रापि सायणाचार्य्येण मनोः पुत्री गृहीता तदप्यशुद्धमेव। (पितुः) जनकस्य सकाशात् (यत्) यथा सुपां सुलुग्० इति तृतीयैकवचनस्य लुक्। (पुत्रः) यः पितृपावनशीलः (ममकस्य) मादृशस्य। अत्र बाहुलकान् मन्धातोर्दमकन् प्रत्ययः। (जायते) उत्पद्यते ॥ ११ ॥
    विषयः- पुनः स कीदृश किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः- हे अग्ने विज्ञानान्वितसभाध्यक्ष ! देवा नहुषस्यायव इमामिळामकृण्वन् विशदीमकुर्वन् मनुष्यस्य शासनीं सत्यशिक्षां चाकृण्वन्। प्रजा च यत्-यथा ममकस्य पितुः पुत्रो जायते तथा भवति॥११॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- नैवेश्वरप्रणीतेन व्यवस्थापकेन वेदशास्त्रेण राजनीत्या च विना प्रजापालक प्रजां पालयितुं शक्नोति, प्रजाजनश्च राज्ञोऽज्ञसन्तानवद्भवत्यतः सभापती राजाज्ञपुत्रमिव प्रजां शिष्यात् ॥११॥

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    विषय

    विश्पति वा प्रजापालक राजा

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - परमात्मन् ! (त्वाम्) - आपको ही (देवाः) - देवों ने (आयवे) उत्तम जीवन के लिए (प्रथमम् आयुम्) - 'पुरुरवा व उर्वशी' का उत्कृष्ट [प्रथम] पुत्र (अकृण्वन्) - बनाया , अर्थात् देव लोग अपने घरों में पति 'पुरुरवा' के रूप में और पत्नी 'उर्वशी' के रूप में हुए , अर्थात् पति खूब ही प्रभु का स्तवन करनेवाला बना और पत्नी अपने पर पूर्ण शासन करनेवाली बनी । इस प्रकार बनकर इन्होंने आपको ही जन्म दिया , अर्थात् प्रभु के प्रकाश को पाने का प्रयत्न किया । इससे इनका जीवन बड़ा ही सुन्दर बना । इसी बात को यहाँ आलंकारिक रूप में कहा गया कि इन्होंने प्रभु को ही अपना पुत्र बनाया । 

    २. इस प्रकार जीवन के सौन्दर्य के लिए ही देवों ने (नहुषस्य) - [नह बन्धने] एक - दूसरे से बँधकर चलनेवाले मानव - समाज के (विश्पतिम्) - प्रजापालक राजा को (अकृण्वन्) - नियत किया । देवों ने प्रजाओं में से ही एक योग्य व्यक्ति को राजा के रूप में स्थापित किया । 

    ३. इस राजा की अध्यक्षता में (इळाम्) - वेदवाणी को [इ+ला - a law] (मनुषस्य) - मनुष्य की (शासनीम्) - शासन करनेवाली (अकृण्वन्) - किया , अर्थात् यह राजा कोई मनमाना स्वच्छन्द शासन करनेवाला न था , यह वेदवाणी के अनुसार , अर्थात् प्रभु से वेद में प्रतिपादित व्यवस्था के अनुसार ही शासन करता था । 

    ४. इस वैदिक शासन का ही यह परिणाम था (यत्) - कि (ममकस्य पितुः) - ममत्व व स्नेहवाले पिता का (पुत्रः) - जैसे पुत्र होता है उसी प्रकार राजा की यह प्रजा (जायते) - हो जाती है । राजा प्रजा को पुत्रवत् प्रेम करता हुआ उसकी उन्नति के लिए ही शासन करता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - जीवन के उत्कर्ष के लिए गृहस्थ में पति - पत्नी प्रभु को अपना उत्कृष्ट पुत्र बनाएँ , अर्थात् प्रभु का अपने में प्रकाश करने का प्रयत्न करें । इस उत्तम स्थिति के लिए वेदानुकूल शासन करनेवाला , प्रजा को पुत्र समझनेवाला राजा नियत किया जाए । 

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    विषय

    आचार्य के कर्त्तव्य । पक्षान्तर में—देह में स्थित प्रजोत्पादक वीर्य का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन्! परमेश्वर! (देवाः) दिव्य पदार्थ पृथिवी आदि और विद्वान् जन (प्रथमम्) सबसे आदि में विद्यमान (त्वाम्) तुझको ही (नहुषस्य) कर्म-बन्धनों में बंधनेवाले जीव गण के (आयवे) इस लोक में आने और जीवन सुख से व्यतीत करने के लिए (विश्पतिम्) प्रजाओं के पालक राजा के समान (अकृण्वन्) बतलाते हैं, निश्चित करते हैं। और वे ही (इलाम्) स्तुति करनेहारी या स्तुति योग्य वेदविद्या को ही (मनुषस्य) मननशील मानवगण के (शासनीम्) शासन या शिक्षा करनेवाली (अकृण्वन्) बतलाते हैं। (यत्) जिस प्रकार (पुत्रः) पुत्र (पितुः) उत्पादक पिता का होता है उसी प्रकार (ममकस्य) मननशील ज्ञानवान् पुरुष का शिष्य पुत्र के समान ही (जायते) होता है। उसी प्रकार यह मानववर्ग परमेश्वर और वेद चतुष्टयी, आचार्य और विद्या दोनों का पुत्र है। राजा के पक्ष में—(देवाः) विद्वान् और विजिगीषु पुरुष (नहुषस्य) राज्यव्यवस्था में बाँधने योग्य मानव समाज के (आयवे) ज्ञान की वृद्धि और हित के लिए (प्रथमम् आयुम्) सबसे प्रथम, उच्चकोटि के पुरुष को ही (विश्पतिम् अकृण्वन्) प्रजाओं का पालक राजा नियत करें। और (इलाम्) ‘इला’ भूमि और वेदवाणी को मनुष्यों के शासन करनेवाली बनावें। प्रजागण! (ममकस्य पितुः पुत्र इव जायते) अपने अपने पिता के पुत्र के समान पालने योग्य हों। उत्पादक वीर्य पक्ष में—विद्वानों ने या मुख्य प्राणों ने या तत्वों ने हे ईश्वरीय काम! आयुस्वरूप तुझको प्रेम बंधन में बंधे जीव के जीवन या संतति वृद्धि के लिए राजा या प्रजापति बनाया। इला, भूमि, स्त्री को मनुष्य का शासक किया । उस समय पुरुष स्त्री के वश होता है और तभी ममता युक्त पिता का पुत्र उत्पन्न होता है। ऐतरेय० उप० ।अ०।२।१-३॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आंङ्गिरस ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ १–७, ९–१५, १७ जगत्यः । ८, १६, १८ त्रिष्टुभः । अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वरोक्त व्यवस्था करणाऱ्या वेदशास्त्र व राजनीतीशिवाय प्रजेचे पालन करणारा सभापती राजा प्रजेचे पालन करू शकत नाही. प्रजा राजाच्या अज्ञ संतानांप्रमाणे असते. त्यासाठी सभापती राजाने पुत्राप्रमाणे प्रजेला शिक्षित करावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of light and life, ruler, sustainer and protector of the people, brilliant powers of nature manifest you, brilliant men of knowledge and generosity elect and kindle you, first power, leading light and protector of the people for their life, enlightenment and advancement. They envision, proclaim and disseminate the divine voice, eternal truth and ruling law of the world and humanity. And, as in my case, the son is born of the father, so is light and knowledge born of parental light and knowledge.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of He is and what should He do? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)=Chairman of the Assembly with special knowledge! (devāḥ)=scholar, (nahuṣasya)=of human beings, (āyavaḥ)= for the growth of specialized knowledge such as, (imām) liye (iḻām)=to the speech of the four Vedas, (akṛṇvan)=has been revealed, (manuṣasya)=only for men, (śāsanīm)=of all learning, righteousness and conduct, (satyaśikṣām) =to truthful learning, (ca)=also, (akṛṇvan)=reveale, [aura]=and, (prajā)= descendants, (ca)=also, (yat)=as, (mamakasya)=like us (pituḥ)=by closeness to father, (putraḥ+ jāyate)=a son of the nature who sanctifies his ancestors is born, (tathā)=in the same way, (bhavati)= group of kings have subjects.

    English Translation (K.K.V.)

    O Chairman of the assembly with special knowledge! The speech of these four Vedas has been revealed for the growth of special knowledge of a learned man. He has also revealed the true teachings of all learning, dharma and conduct of all human beings, and children, like us, by the nearness of the father, are born sons of the nature of purifying our ancestors, in the same way the group of kings have subjects.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Through the system created by God, without the Vedas scriptures and politics, the subjects cannot be followed. The subjects are like the unknown children of the king, the Chairman should educate the subjects like the king's son.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What also should they (the teachers and the taught) do is told in the 11th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Ye men, being established in the conduct full of forgiveness and endurance, you should lovingly listen to these my words which are refined on account of the noble Vedic teaching, in order to see God who is worthy of being realized by all wise men and also to visualize charming aero planes and other suitable vehicles for your happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Because it is not possible to know God and the nature of the vehicles manufactured with the help of the arts and sciences without personal contact in the form of questions and answers with the learned persons of forgiving sweet nature, therefore men should always acquire such knowledge with the assistance of the wise.

    Translator's Notes

    (विश्वदर्शतम्) सर्वैर्विद्वद्भिः द्रष्टव्यं जगदीश्वरम् | = To God who must be seen (realized) by all wise men. ( दर्शम्) पुनः पुनद्रष्टुम् | = To see or realize again and again.(रथम्) रमणीयं विमानादियानम् । = Charming vehicles like the aero plane etc. ( क्षमि) क्षाम्यन्ति सहन्ते जना यस्मिन् व्यवहारे तस्मिन् स्थित्वा । अत्र कृतो बहुलम् इति करणे क्विप् । वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीत्यनुनासिकस्य क्विब् झलोरिति दीर्घो न भवति ॥ दर्शतः-दृशेः भृम दृशियजिपर्वि पयमितमिनमि हर्य्यिभ्योऽतच् ( उणा० ३.११० ) इति अतच् प्रत्ययः । = Worth seeing. ( रथः ) रहतेर्गतिकर्मण: स्थिरतेर्वा स्याद् विपरीतस्य रममाणोऽस्मिंस्तिष्ठतीति वा (रमु-क्रीडायाम् इति धातोः) रणतेर्वा रसतेर्वा (निरुक्ते ९.११ ) ।। = Charming or beautiful vehicle. ( क्षमि ) Rishi Dayananda's interpretation given above is based upon the root meaning of क्षमूष-सहने to endure or forgive. Other commentators have generally interpreted it as 'on earth' depending on क्षमेति पृथिवी नामसु ( निघ० १.१ ) But they to have change क्षमि into क्षमायाम् as Sayanacharya,Shri Kapali Shastri and others have done. क्षमि क्षमायाम् (आतोऽभाव: छान्स इति श्री कपालि शास्त्रिरण:) Though Shri Kapali Shastri explains all these Mantras of a modern (belonging to a particular time) person in the Vedas. This interpretation is opposed to the Vedic Lexicon highantn also where the word नहुष stands a for men in general. नहुषइति मनुष्य नामसु पठितम् ( निघ० २.३) The second blunder committed by Sayanacharya is regarding the interpretation of इडा Sayanacharya interprets it as the daughter of Manu saying. मनुषस्य - मनोः इलाम्-एतन्नामधेयां पुत्रीम् ।। or the daughter of Manu. Rishi Dayananda rightly rejects this interpretation saying अपि सायणाचार्येण मनो: पुत्री गृहीता तदप्यशुद्धमेव । i. e. Sayanacharya has taken इडा to mean the daughter of Manu which is wrong. The word इडा has been interpreted in the Vedic Lexicon Nighantu as इडेति वाङनामसु पठितम् ( निघ० १. ११ ) = Ida means (Vedic) Speech. As has been pointed out before, the Vedas being eternal, can not have historical references. This interpretation given by Sayanacharya is opposed to his own introduction to the Rigveda commentary based upon the aphorism of the meemansa like आख्या-प्रवचनान् परन्तु श्रुतिसामान्यमात्रम् and others.

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