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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 2
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    त्वम॑ग्ने प्रथ॒मो अङ्गि॑रस्तमः क॒विर्दे॒वानां॒ परि॑ भूषसि व्र॒तम्। वि॒भुर्विश्व॑स्मै॒ भुव॑नाय॒ मेधि॑रो द्विमा॒ता श॒युः क॑ति॒धा चि॑दा॒यवे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ग्ने॒ । प्र॒थ॒मः । अङ्गि॑रःऽतमः । क॒विः । दे॒वाना॑म् । परि॑ । भू॒ष॒सि॒ । व्र॒तम् । वि॒ऽभुः । विश्व॑स्मै । भुव॑नाय । मेधि॑रः । द्वि॒ऽमा॒ता । श॒युः । क॒ति॒धा । चि॒त् । आ॒यवे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरस्तमः कविर्देवानां परि भूषसि व्रतम्। विभुर्विश्वस्मै भुवनाय मेधिरो द्विमाता शयुः कतिधा चिदायवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। प्रथमः। अङ्गिरःऽतमः। कविः। देवानाम्। परि। भूषसि। व्रतम्। विऽभुः। विश्वस्मै। भुवनाय। मेधिरः। द्विऽमाता। शयुः। कतिधा। चित्। आयवे ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! यतस्त्वं प्रथमं शयुर्मेधिरो द्विमाताऽङ्गिरस्तमो विभुः कविरसि, तस्माच्चिदेवायवे मनुष्याय विश्वस्मै भुवनाय च देवानां व्रतं परिभूषसि ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) सर्वस्यालङ्करिष्णुः (अग्ने) सर्वदुःखप्रणाशक सर्वशत्रुप्रदाहक वा (प्रथमः) अनादिस्वरूपः पूर्वं मान्यो वा (अङ्गिरस्तमः) अतिशयेनाङ्गिरा अङ्गिरस्तमः। जीवात् प्राणादन्यमनुष्यादत्यन्तोत्कृष्टः (कविः) सर्वज्ञः (देवानाम्) विदुषां सूर्यपृथिव्यादीनां लोकानां वा (परि) सर्वतः (भूषसि) अलङ्करोषि (व्रतम्) तत्तद्धर्म्यनियमम् (विभुः) सर्वव्यापकः सर्वसभासेनाङ्गैः शत्रुबलेषु व्यापनशीलो वा (विश्वस्मै) सर्वस्मै (भुवनाय) भवन्ति भूतानि यस्मिँस्तद्भुवनं तस्मै (मेधिरः) सङ्गमकः (द्विमाता) द्वयोः प्रकाशाप्रकाशवतोर्लोकसमूहयोर्माता निर्माता (शयुः) यः प्रलये सर्वाणि भूतानि शाययति सः (कतिधा) कतिभिः प्रकारैः (चित्) एव (आयवे) मनुष्याय। आयव इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। परमेश्वरो वेदद्वारा तदध्यापनेन विद्वांश्च मनुष्याणां विद्याधर्माख्यं व्रतं लोकानां नियमाख्यं च सुशोभयति, येन सूर्य्यादिः प्रकाशवान् वायुपृथिव्यादिरप्रकाशवांश्च लोकसमूहः सृष्टः स सर्वव्याप्यस्ति यैरीश्वरस्यैतत्कृतसृष्टेर्विद्या प्रकाश्यते ते विद्वांसो भवितुमर्हन्ति, नैव विभुना विद्वद्भिर्वा विना कश्चिद् यथार्थां विद्यां कारणात् कार्यरूपान् सर्वान् लोकान् स्रष्टुं धारयितुं विज्ञापयितुं च शक्नोतीति ॥ २ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) सब दुःखों के नाश करने और सब दुष्ट शत्रुओं के दाह करनेवाले जगदीश्वर वा सभासेनाध्यक्ष ! जिस कारण (त्वम्) आप (प्रथमः) अनादिस्वरूप वा पहिले मानने योग्य (शयुः) प्रलय में सब प्राणियों को सुलाने (मेधिरः) सृष्टि समय में सबको चिताने (द्विमाता) प्रकाशवान् वा अप्रकाशवान् लोकों के निर्माण अर्थात् सिद्ध करने वा तद्विद्या जनानेवाले (अङ्गिरस्तमः) जीव, प्राण और मनुष्यों में अत्यन्त उत्तम (विभुः) सर्वव्यापक वा सभा सेना के अङ्गों से शत्रु बलों में व्याप्त स्वभाव (कविः) और सबको जाननेवाले हैं (चित्) उसी कारण से (आयवे) मनुष्य वा (विश्वस्मै) सब (भुवनाय) संसार के लिये (देवानाम्) विद्वान् वा सूर्य और पृथिवी आदि लोकों के (व्रतम्) धर्मयुक्त नियमों को (कतिधा) कई प्रकार से (परिभूषसि) सुशोभित करते हो ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। परमेश्वर वेद द्वारा वा उसके पढ़ाने से विद्वान् मनुष्य के विद्या धर्मरूपी व्रत वा लोकों के नियमरूपी व्रत को सुशोभित करता है, जिस ईश्वर ने सूर्य आदि प्रकाशवान् वा वायु पृथिवी आदि अप्रकाशवान् लोकसमूह रचा है, वह सर्वव्यापी है और ईश्वर की रची हुई सृष्टि से विद्या को प्रकाशित करता है, वह विद्वान् होता है, उस ईश्वर वा विद्वान् के विना कोई पदार्थ विद्या वा कारण से कार्यरूप सब लोकों के रचने धारणे और जानने को समर्थ नहीं हो सकता ॥ २ ॥

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    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अग्ने! यतः त्वं प्रथमं शयुः मेधिरः द्विमाता अङ्गिरः तमः विभुः कविः असि तस्मात् चित् एव आयवे मनुष्याय विश्वस्मै भुवनाय च देवानां व्रतं परिभूषसि॥२॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) सर्वदुःखप्रणाशक सर्वशत्रुप्रदाहक वा=सब दुःखों के नाश करने और सब दुष्ट शत्रुओं के दाह करनेवाले जगदीश्वर वा सभासेनाध्यक्ष ! (यतः)=जिस कारण से, (त्वम्) सर्वस्यालङ्करिष्णुः=सबको सुशोभित करने वाले आप (प्रथमः) अनादिस्वरूपः पूर्वं मान्यो वा=अनादिस्वरूप वा पहिले मानने योग्य, (शयुः) यः प्रलये सर्वाणि भूतानि शाययति सः=प्रलय में सब प्राणियों को सुलाने वाले, (मेधिरः) सङ्गमकः=सृष्टि समय में सबको चिताने वाला, (द्विमाता) द्वयोः प्रकाशाप्रकाशवतोर्लोकसमूहयोर्माता निर्माता=प्रकाशवान् वा अप्रकाशवान् लोकों के निर्माण करने वाले, (अङ्गिरस्तमः) अतिशयेनाङ्गिरा अङ्गिरस्तमः। जीवात् प्राणादन्यमनुष्यादत्यन्तोत्कृष्टः=अग्नि, जीव, प्राण और मनुष्यों में सबसे उत्कृष्ट, (विभुः) सर्वव्यापकः सर्वसभासेनाङ्गैः शत्रुबलेषु व्यापनशीलो वा=सर्वव्यापक वा सभा सेना के अङ्गों से शत्रु बलों में व्याप्त स्वभाव वाले, (कविः) सर्वज्ञः=और सबको जाननेवाले, (असि)=हो, (तस्मात्)=इसलिये, (चित्) एव=उसी कारण से ही, (आयवे) मनुष्याय=मनुष्य वा, (विश्वस्मै) सर्वस्मै=सब, (भुवनाय) भवन्ति भूतानि यस्मिँस्तद्भुवनं तस्मै=संसार के लिये, (च)=भी, (देवानाम्) विदुषां सूर्यपृथिव्यादीनां लोकानां वा=विद्वान् वा सूर्य और पृथिवी आदि लोकों के, (व्रतम्) तत्तद्धर्म्यनियमम्=उसके धर्मयुक्त नियमों को, (परि) सर्वतः=हर ओर से, (भूषसि) अलङ्करोषि= सुशोभित करते हो॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। परमेश्वर वेद द्वारा और उसके पढ़ाने से विद्वान् मनुष्य के विद्या और धर्म नाम के व्रत को लोकों के नियम रूपी नाम के व्रत से सुशोभित करता है। जिस ईश्वर ने सूर्य आदि प्रकाशवान् और वायु पृथिवी आदि अप्रकाशवान् लोकसमूह रचा है, वह सर्वव्यापी है। जिस ईश्वर की रची हुई सृष्टि से विद्या प्रकाशित होती  है, वह विद्वानों के योग्य होती है। ईश्वर और विद्वान् के विना कोई यथार्थ विद्या के कारण और कार्यरूप सब लोकों के रचने,  धारण करने और जानने में समर्थ नहीं हो सकता है ॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अग्ने) सब दुःखों के नाश करने और सब दुष्ट शत्रुओं के दाह करने वाले जगदीश्वर वा सभासेनाध्यक्ष! (यतः) जिस कारण से (त्वम्) सबको सुशोभित करने वाले आप (प्रथमः) अनादि स्वरूप वा पहिले मानने योग्य, (शयुः) प्रलय में सब प्राणियों को सुलाने वाले, (मेधिरः) सृष्टि समय में सबको चिताने वाले,  (द्विमाता) प्रकाशवान् और अप्रकाशवान्  दोनों लोकों के निर्माण करने वाले, (अङ्गिरस्तमः) अग्नि, जीव, प्राण और मनुष्यों में उत्कृष्ट, (विभुः) सर्वव्यापक वा सभा सेना के अङ्गों से शत्रु बलों में व्याप्त स्वभाव वाले (कविः) और सबको जानने वाले (असि) हो। (तस्मात्) इसलिये (चित्) उसी कारण से ही (आयवे) मनुष्य या (विश्वस्मै) सारे (भुवनाय) संसार के लिये (च) भी (देवानाम्) विद्वान् या सूर्य और पृथिवी आदि लोकों के (व्रतम्) धर्मयुक्त नियमों को (परि) हर ओर से (भूषसि) सुशोभित करते हो॥२॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) सर्वस्यालङ्करिष्णुः (अग्ने) सर्वदुःखप्रणाशक सर्वशत्रुप्रदाहक वा (प्रथमः) अनादिस्वरूपः पूर्वं मान्यो वा (अङ्गिरस्तमः) अतिशयेनाङ्गिरा अङ्गिरस्तमः। जीवात् प्राणादन्यमनुष्यादत्यन्तोत्कृष्टः (कविः) सर्वज्ञः (देवानाम्) विदुषां सूर्यपृथिव्यादीनां लोकानां वा (परि) सर्वतः (भूषसि) अलङ्करोषि (व्रतम्) तत्तद्धर्म्यनियमम् (विभुः) सर्वव्यापकः सर्वसभासेनाङ्गैः शत्रुबलेषु व्यापनशीलो वा (विश्वस्मै) सर्वस्मै (भुवनाय) भवन्ति भूतानि यस्मिँस्तद्भुवनं तस्मै (मेधिरः) सङ्गमकः (द्विमाता) द्वयोः प्रकाशाप्रकाशवतोर्लोकसमूहयोर्माता निर्माता (शयुः) यः प्रलये सर्वाणि भूतानि शाययति सः (कतिधा) कतिभिः प्रकारैः (चित्) एव (आयवे) मनुष्याय। आयव इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३)   ॥ २ ॥
    विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः- हे अग्ने! यतस्त्वं प्रथमं शयुर्मेधिरो द्विमाताऽङ्गिरस्तमो विभुः कविरसि, तस्माच्चिदेवायवे मनुष्याय विश्वस्मै भुवनाय च देवानां व्रतं परिभूषसि॥२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। परमेश्वरो वेदद्वारा तदध्यापनेन विद्वांश्च मनुष्याणां विद्याधर्माख्यं व्रतं लोकानां नियमाख्यं च सुशोभयति, येन सूर्य्यादिः प्रकाशवान् वायुपृथिव्यादिरप्रकाशवांश्च लोकसमूहः सृष्टः स सर्वव्याप्यस्ति यैरीश्वरस्यैतत्कृतसृष्टेर्विद्या प्रकाश्यते ते विद्वांसो भवितुमर्हन्ति, नैव विभुना विद्वद्भिर्वा विना कश्चिद् यथार्थां विद्यां कारणात् कार्यरूपान् सर्वान् लोकान् स्रष्टुं धारयितुं विज्ञापयितुं च शक्नोतीति ॥२॥

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    विषय

    मेधिरः द्विमाता

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - अग्रणी प्रभो ! (त्वम्) - आप (प्रथमः) - अत्यन्त विस्तारवाले हैं , (अंगिरस्तमः) - अंगों में सर्वाधिक रस का संचार करनेवाले हैं , (कविः) - क्रान्तदर्शी हैं , 'कौतिसर्वा विद्याः' सृष्टि के आरम्भ में सब ज्ञानों का वेद द्वारा उच्चारण करनेवाले हैं , 

    २. (देवानाम्) - देववृत्तिवाले पुरुषों के (व्रतम्) - व्रत को (परिभूषसि) - अलंकृत करनेवाले हैं , अर्थात् देवलोग व्रतमय जीवन बिताते हैं और आपका स्मरण करते हैं , उनका व्रत आपके नाम - स्मरण से अलंकृत होता है । वस्तुतः इसीलिए उनके व्रत पूर्णता को भी प्राप्त होते हैं । 

    ३. (विभुः) - हे प्रभो ! आप सर्वव्यापक हैं - विशिष्ट सत्तावाले हैं और (विश्वस्मै भुवनाय) - सब लोगों के लिए (मेधिरः) - मेधा बुद्धि को देनेवाले हैं । बुद्धि को देकर ही तो आप सबका रक्षण करते हैं , 

    ४. (द्विमाता) - आप हमारे मस्तिष्क व शरीर , अर्थात् द्यावापृथिवी दोनों का निर्माण करनेवाले हैं , आपकी कृपा से हमारा मस्तिष्क ज्ञानोज्ज्वल होता है और शरीर दृढ़ बनता है । 

    ५. (शयुः) - आप सबके अन्दर निवास करनेवाले हैं और सारा ब्रह्माण्ड आपमें शयन करनेवाला है । 

    ६. आप (आयवे) - 'एति' गतिशील पुरुष के लिए (चित्) - निश्चय से (कति - धा) - कितने ही प्रकार से धारण करनेवाले हैं । शरीर , मन , मस्तिष्क सभी को - अंग - अंग को आप धारण करनेवाले हैं । 'प्रजा - पशु - ब्रह्मवर्चस् , अन्नाद्य' आदि को प्राप्त कराके आप विविध प्रकार से धारण कर रहे हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें बुद्धि देते हैं , वे ही हमारे शरीर व मस्तिष्क का निर्माण करते हैं । 

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    विषय

    राजा के राज्य में विद्वानों के प्रति कर्त्तव्य

    भावार्थ

    (हे) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर! (त्वम्) तू (प्रथमः) सबसे प्रथम, आदि मूलकारण, (अंगिरस्-तमः) 'अंगिरा' शब्दों से कहाने वाले अग्नि, आदित्य, प्राण, आत्मा आदि सबसे उत्कृष्ट, अधिक तेजस्वी, (कविः) क्रान्तदर्शी, सर्वज्ञ होकर (देवानाम्) विद्वानों और सूर्यादि लोकों के (व्रतम्) व्रतों, नियमों, धर्मों को (परिभूषसि) धारण करता रहा है। तू (मेधिरः) मेधावान् एवं संगत, (विश्वस्मै) समस्त (भुवनाय) भुवन ब्रह्मांडों के भीतर (विभुः) व्यापक, विशेष सामर्थ्यवान् होकर भी उनका (द्विमाता) सूक्ष्म और स्थूल, दोनों रूपों के बनानेवाला (शयुः) सबके भीतर प्रसुप्त रूप से विद्यमान, एवं जगत्भर को प्रलय में शान्त, प्रसुप्त रूप से सुला देने वाला होकर (आयवे) मनुष्यों के लिए (कतिधा) कितने ही प्रकारों से, नाना शक्तियों के रूप में दिखाई देता है। राजा के पक्ष में—(मेधिरः) शत्रुहन्ता, (द्विमाता) राजा प्रजावर्ग दोनों के प्रति माता के समान पालक, एवं माता-पिता और आचार्य दोनों को माता मानने वाला द्विज, (शत्रुः) युद्ध में शत्रुओं को सुलाने वाला, (आयवे कतिधा चित्) प्रजाजन के हित के लिए कितने ही प्रकारों से शासन करने वाला है। भौतिक अग्नि—(द्विमाता) दो अरणियों के संघर्ष से उत्पन्न, सूर्य दो अयनों का उत्पादक (शयुः) व्यापक, (विभुः) विविध सामर्थ्यवान् (कतिधा चित्) विद्युत्, तेज़ाब, अग्नि, जाठर आदि नाना रूपों में प्राप्त है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आंङ्गिरस ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ १–७, ९–१५, १७ जगत्यः । ८, १६, १८ त्रिष्टुभः । अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. परमेश्वर वेदाद्वारे व त्याच्या अध्यापनाने विद्वान माणसाचे विद्या धर्मरूपी व्रत वा लोकांचे नियमरूपी व्रत सुशोभित करतो. ज्या ईश्वराने सूर्य इत्यादी प्रकाशमान व वायू, पृथ्वी इत्यादी अप्रकाशमान लोकसमूह उत्पन्न केलेले आहेत, तो सर्वव्यापी आहे व ईश्वरनिर्मित सृष्टीतून जो विद्या प्रकट करतो तो विद्वान असतो. त्या ईश्वर व विद्वानाशिवाय कोणीही विद्या व कारणापासून कार्यरूप लोकांचे निर्माण, धारण व जाणणे या गोष्टी करण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of light, eternal and ever first existence and prime cause of creation, life of life, omniscient, you create the laws of the lights of nature and humanity and invest them with beauty and grace. Immanent, omnipresent and infinite, for all the worlds of the universe you are the mother maker and mover of the world of light and dark, subtle and gross, all. You send them to sleep in pralaya (annihilation) and wake them up into the light of existence for a life-time in so many ways.

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    Subject of the mantra

    Then, how is He (God)? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)=God or the head of the assembly and commandant, the destroyer of all sorrows and the destroyer of all evil enemies, (yataḥ)=because, (tvam)=you who adorn all, (prathamaḥ)=primordial or acceptable first of all, (śayuḥ)=the one who put all the creatures to sleep in the holocaust, (medhiraḥ) =one who warns everyone in creation time, (dvimātā)=The creator of both the worlds, revealed and unrevealed one, the best among souls and human beings, (aṅgirastamaḥ)=the excellent of Agni, living beings, life breath and humans, (vibhuḥ)=The omnipresent or of pervading nature in the parts of the enemy forces, [aur]=and, (kaviḥ)=omniscient, (asi)=are, (tasmāt)=therefore, (cit)=for the same reason, (āyave) =men, (devānām) =of scholar or the sun and the earth etc. (vratam)=to righteous rules, (pari)=from all sides, (bhūṣasi)=adorn.

    English Translation (K.K.V.)

    O God or the head of the assembly and the commandant, the destroyer of all sorrows and the destroyer of all evil enemies! Because you, who adorn all, primordial or acceptable first of all, the one who put all the creatures to sleep in the holocaust, the one who warns everyone in creation time, the creator of both the worlds, revealed and unrevealed one, the excellent of Agni, living beings, life breath and humans, the omnipresent or of pervading nature in the parts of the enemy forces and are knowing. Therefore, for the same reason for the sake of human beings or the whole world also, you adorn the righteous rules of the Sun and the earth etc. from all sides.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is paronomasia as a figurative in this mantra. The God adorns the scholar by the Vedas and by its teaching and the vow named as vidya (knowledge) and righteousness. The God who has created the luminous world like the Sun, the earth and the air, the un-illumined world is omnipresent. The God, from whose creation the knowledge emerges, is worthy of the scholars. Without God and a learned scholar, no one can be capable of creating, possessing and knowing all the worlds by reason and action of true knowledge.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that Agni is taught further in the second Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God, Destroyer of all miseries and burner of all internal and external enemies, as Thou art the first or Eternal, Superior to the soul Prana or man, who givest rest to all beings at the time of dissolution, Unifier of all, the Creator of both kinds of worlds shining and not shining, Omnipresent and Omniscient, Thou ordainest the eternal Law of the earth, the sun and other worlds and enlightened persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( अग्ने ) सर्वदुःखप्रणाशक, सर्वशत्रुप्रदाहक = God the Destroyer of all miseries and Burner of all foes. (अंगिरस्तमः ) अतिशयेनांगिरा: अगिरस्तमः । जीवात् माणात् अन्यमनुष्यात् अत्यन्तोत्कृष्ट = The Best of all. (मेधिर: ) संगमक: = Unifier. (शयु:) यः प्रलये सर्वाणि भूतानि शाययति सः = He who gives rest to all beings, at the time of dissolution.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God adorns (or ordains) the laws of all worlds through the Vedas and a wise man does the same through the teachings of the Vedas to men and by keeping them in just laws. God who has created this world consisting of shining things like the sun and not shining like the earth is all-pervading. It is only those who can reveal the science of God and His creation can become enlightened. None can create this world except the omnipresent God and none can reveal this science to others except a highly learned and wise person.

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