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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 6
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    त्वम॑ग्ने वृजि॒नव॑र्तनिं॒ नरं॒ सक्म॑न्पिपर्षि वि॒दथे॑ विचर्षणे। यः शूर॑साता॒ परि॑तक्म्ये॒ धने॑ द॒भ्रेभि॑श्चि॒त्समृ॑ता॒ हंसि॒ भूय॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ग्ने॒ । वृ॒जि॒नऽव॑र्तनिम् । नर॑म् । सक्म॑न् । पि॒प॒र्षि॒ । वि॒दथे॑ । वि॒ऽच॒र्ष॒णे॒ । यः । शूर॑ऽसाता । परि॑ऽतक्म्ये । धने॑ । द॒भ्रेभिः॑ । चि॒त् । सम्ऽऋ॑ता । हंसि॑ । भूय॑सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने वृजिनवर्तनिं नरं सक्मन्पिपर्षि विदथे विचर्षणे। यः शूरसाता परितक्म्ये धने दभ्रेभिश्चित्समृता हंसि भूयसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। वृजिनऽवर्तनिम्। नरम्। सक्मन्। पिपर्षि। विदथे। विऽचर्षणे। यः। शूरऽसाता। परिऽतक्म्ये। धने। दभ्रेभिः। चित्। सम्ऽऋता। हंसि। भूयसः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरोपासकः प्रजारक्षकाः किं कुर्यादित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे सक्मन् विचर्षणेऽग्नेसेनापते ! यो न्यायविद्यया प्रकाशमानस्त्वं विदथे शूरसातौ युद्धे दभ्रेभिरल्पैरपि साधनैर्वृजिनवर्त्तनिं नरं भूयसः शत्रूंश्च हंसि समृता समृतानि कर्माणि पिपर्षि स त्वं नः सेनाध्यक्षो भव ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) प्रजापालनेऽधिकृतः (अग्ने) सर्वतोऽभिरक्षक ! (वृजिनवर्त्तनिम्) वृजिनस्य बलस्य वर्त्तनिर्मार्गो यस्य तम्। अत्र सह सुपेति समासः। वृजिनमिति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (नरम्) मनुष्यम् (सक्मन्) यः सचति तत्सम्बुद्धौ (पिपर्षि) पालयसि (विदथे) धर्म्ये युद्धे यज्ञे। विदथ इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०३.१७) (विचर्षणे) विविधपदार्थानां यथार्थद्रष्टा तत्सम्बुद्धौ (यः) (शूरसाता) शूराणां सातिः सम्भजनं यस्मिन् तस्मिन् संग्रामे। शूरसाताविति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) अत्र सुपां सुलुग्० इति ङेः स्थाने डादेशः। (परितक्म्ये) परितः सर्वतो हर्षनिमित्ते (धने) सुवर्णविद्या चक्रवर्त्तिराज्यादियुक्तद्रव्ये (दभ्रेभिः) अल्पैर्युद्धसाधनैः सह। दभ्रमिति ह्रस्वनामसु पठितम्। (निघं०३.२) दभ्रमर्भकमित्यल्पस्य दभ्रं दभ्नातेः। सुदम्भं भवति। अर्भकमवहृतं भवति। (निरु०३.२०) अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न। (चित्) अपि (समृता) सम्यक् ऋतं सत्यं येषु तानि। अत्र शे स्थाने डादेशः। (हंसि) (भूयसः) बहून् ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    परमेश्वरस्यायं स्वभावोऽस्ति ये ह्यधर्मं त्यक्तुं धर्मं च सेवितुमिच्छन्ति, तान् कृपया धर्मस्थान् करोति, ये च धर्म्यं युद्धं धर्मसाध्यं धनं चिकीर्षन्ति तान् रक्षित्वा तत्तत्कर्मानुसारेण तेभ्यो धनमपि प्रयच्छति। ये च दुष्टाचारिणस्तान् तत्तत्कर्मानुकूलफलदानेन ताडयति य ईश्वराज्ञायां वर्त्तमाना धर्मात्मानोऽल्पैरपि युद्धसाधनैर्युद्धं कर्त्तुं प्रवर्त्तन्ते तेभ्यो विजयं ददाति नेतरेषामिति ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब ईश्वर का उपासक वा प्रजा पालनेहारा पुरुष क्या-क्या कृत्य करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (सक्मन्) सब पदार्थों का सम्बन्ध कराने (विचर्षणे) अनेक प्रकार के पदार्थों को अच्छे प्रकार देखनेवाले (अग्ने) राजनीतिविद्या से शोभायमान सेनापति ! (यः) जो तू (विदथे) धर्मयुक्त यज्ञरूपी (शूरसातौ) संग्राम में (दभ्रेभिः) थोड़े ही साधनों से (वृजिनवर्त्तनिम्) अधर्म मार्ग में चलनेवाले (नरम्) मनुष्य और (भूयसः) बहुत शत्रुओं का (हंसि) हननकर्त्ता है और (समृता) अच्छे प्रकार सत्य कर्मों का (पिपर्षि) पालनकर्त्ता है, सो आप चोरों द्वारा पराये पदार्थों के हरने की इच्छा से (परितक्म्ये) सब ओर से देखने योग्य (धने) सुवर्ण विद्या और चक्रवर्त्ति राज्य आदि धन की रक्षा करने के निमित्त हमारे सेनापति हूजिये ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    परमेश्वर का यह स्वभाव है कि जो पुरुष अधर्म छोड़ धर्म करने की इच्छा करते हैं, उनको अपनी कृपा से शीघ्र ही धर्म में स्थिर करता है, जो धर्म से युद्ध वा धन को सिद्ध कराना चाहते हैं, उनकी रक्षा कर उनके कर्मों के अनुसार उनके लिये धन देता और जो खोटे आचरण करते हैं, उनको उनके कर्मों के अनुसार दण्ड देता है, जो ईश्वर की आज्ञा में वर्त्तमान धर्मात्मा थोड़े भी युद्ध के पदार्थों से युद्ध करने को प्रवृत्त होते हैं, ईश्वर उन्हीं को विजय देता है, औरों को नहीं ॥ ६ ॥

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    विषय

    अब ईश्वर का उपासक वा प्रजा पालनेहारा पुरुष क्या-क्या कृत्य करे, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे सक्मन् विचर्षणे अग्ने सेनापते ! यः न्यायविद्यया प्रकाशमानः त्वं विदथे शूरसातौ युद्धे दभ्रेभिः अल्पैः अपि साधनैः वृजिनवर्त्तनिं  नरं भूयसः शत्रून् च हंसि सम् ऋता समृतानि कर्माणि पिपर्षि स त्वं नः सेनाध्यक्षः भव ॥६॥

    पदार्थ

    हे  (सक्मन्) यः सचति तत्सम्बुद्धौ=सब पदार्थों का सम्बन्ध करानेवाले, (विचर्षणे) विविधपदार्थानां यथार्थद्रष्टा तत्सम्बुद्धौ=अनेक प्रकार के पदार्थों को अच्छे प्रकार देखनेवाले, (अग्ने) सर्वतोऽभिरक्षक सेनापते=सब ओर से रक्षा करने वाले सेनापति, (यः)=जो, (न्यायविद्यया)=न्यायविद्या द्वारा, (प्रकाशमानः)=प्रकाशमान्, (त्वम्) प्रजापालनेऽधिकृतः=प्रजा का पालन करने में अधिकृत, (विदथे) धर्म्ये युद्धे यज्ञे=धर्म युद्ध और यज्ञ में, (शूरसाता) शूराणां सातिः सम्भजनं यस्मिन् तस्मिन् संग्रामे=जिस संग्राम में वीरों को उपहार दे दिये जाते हैं, (दभ्रेभिः) अल्पैर्युद्धसाधनैः सह= थोड़े ही साधनों से ,  (वृजिनवर्त्तनिम्) वृजिनस्य बलस्य वर्त्तनिर्मार्गो यस्य तम्=अधर्म मार्ग में चलनेवाले, (नरम्)=मनुष्यों का, (भूयसः) बहून्= बहुत, (शत्रून्)=शत्रुओं का, (हंसि) हननकर्त्ता है, (च)=और, (समृता) सम्यक् ऋतं सत्यं येषु तानि= अच्छे प्रकार के सत्य हैं जिनमें, उनके (कर्माणि)=कर्मों के,  (पिपर्षि) पालयसि=पालनकर्त्ता हो। (सः)=वह, (त्वम्) =आप, (नः)=हमारे लिये, (सेनाध्यक्षः)= सेनापति, (भव)=हूजिये॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    परमेश्वर का यह स्वभाव है कि जो पुरुष अधर्म छोड़कर धर्म करने की इच्छा करते हैं, उनको अपनी कृपा से धर्म में स्थित करता है, जो धर्म और युद्ध को सिद्ध करके धन की इच्छा करते हैं, उनकी रक्षा करके उनके कर्मों के अनुसार उनको धन भी देता है। जो दुष्ट आचरण करते हैं, उनको उनके कर्मों के अनुसार दण्ड देते हुए ताड़ना करता है, जो ईश्वर की आज्ञा में वर्त्तमान रहते हैं, ऐसे धर्मात्मा थोड़े भी युद्ध के साधनों से युद्ध करने में प्रवृत्त होते हैं, उन्हीं को विजय देता है, अन्यों को नहीं॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (सक्मन्) सब पदार्थों का सम्बन्ध करानेवाले, (विचर्षणे) अनेक प्रकार के पदार्थों को अच्छे प्रकार देखनेवाले, (अग्ने) सब ओर से रक्षा करने वाले सेनापति! (यः) जो (न्यायविद्यया) न्यायविद्या द्वारा (प्रकाशमानः) प्रकाशमान् (त्वम्) प्रजा का पालन करने में अधिकृत आप (विदथे) धर्म, युद्ध और यज्ञ में (शूरसाता)  जिस संग्राम में वीरों को उपहार दिये जाते हैं, (दभ्रेभिः) थोड़े ही साधनों से  (वृजिनवर्त्तनिम्) कुटिल मार्ग में चलनेवाले (नरम्) मनुष्यों का और (भूयसः) बहुत (शत्रून्) शत्रुओं का (हंसि) हनन कर्त्ता है (च) और (समृता) अच्छे प्रकार के सत्य हैं जिनमें, उनके (कर्माणि) कर्मों के,  (पिपर्षि) पालन कर्त्ता हो।  (सः) वह (त्वम्) आप (नः) हमारे (सेनाध्यक्षः) सेनापति (भव) हूजिये॥६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) प्रजापालनेऽधिकृतः (अग्ने) सर्वतोऽभिरक्षक ! (वृजिनवर्त्तनिम्) वृजिनस्य बलस्य वर्त्तनिर्मार्गो यस्य तम्। अत्र सह सुपेति समासः। वृजिनमिति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (नरम्) मनुष्यम् (सक्मन्) यः सचति तत्सम्बुद्धौ (पिपर्षि) पालयसि (विदथे) धर्म्ये युद्धे यज्ञे। विदथ इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०३.१७) (विचर्षणे) विविधपदार्थानां यथार्थद्रष्टा तत्सम्बुद्धौ (यः) (शूरसाता) शूराणां सातिः सम्भजनं यस्मिन् तस्मिन् संग्रामे। शूरसाताविति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) अत्र सुपां सुलुग्० इति ङेः स्थाने डादेशः। (परितक्म्ये) परितः सर्वतो हर्षनिमित्ते (धने) सुवर्णविद्या चक्रवर्त्तिराज्यादियुक्तद्रव्ये (दभ्रेभिः) अल्पैर्युद्धसाधनैः सह। दभ्रमिति ह्रस्वनामसु पठितम्। (निघं०३.२) दभ्रमर्भकमित्यल्पस्य दभ्रं दभ्नातेः। सुदम्भं भवति। अर्भकमवहृतं भवति। (निरु०३.२०) अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न। (चित्) अपि (समृता) सम्यक् ऋतं सत्यं येषु तानि। अत्र शे स्थाने डादेशः। (हंसि) (भूयसः) बहून् ॥ 
    विषयः- अथेश्वरोपासकः प्रजारक्षकाः किं कुर्यादित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे सक्मन् विचर्षणेऽग्नेसेनापते ! यो न्यायविद्यया प्रकाशमानस्त्वं विदथे शूरसातौ युद्धे दभ्रेभिरल्पैरपि साधनैर्वृजिनवर्त्तनिं नरम् भूयसः शत्रूंश्च हंसि समृता समृतानि कर्माणि पिपर्षि स त्वम् नः सेनाध्यक्षो भव ॥६॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- परमेश्वरस्यायं स्वभावोऽस्ति ये ह्यधर्मं त्यक्तुं धर्मं च सेवितुमिच्छन्ति, तान् कृपया धर्मस्थान् करोति, ये च धर्म्यं युद्धं धर्मसाध्यं धनं चिकीर्षन्ति तान् रक्षित्वा तत्तत्कर्मानुसारेण तेभ्यो धनमपि प्रयच्छति। ये च दुष्टाचारिणस्तान् तत्तत्कर्मानुकूलफलदानेन ताडयति य ईश्वराज्ञायां वर्त्तमाना धर्मात्मानोऽल्पैरपि युद्धसाधनैर्युद्धं कर्त्तुं प्रवर्त्तन्ते तेभ्यो विजयं ददाति नेतरेषामिति॥६॥

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    विषय

    विजय

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) अग्नणी प्रभो ! (त्वम्) - आप (वृजिनवर्तनिम्) - पाप के मार्ग पर चलनेवाले (नरम्) - मनुष्य को (सक्मन्) - मेल होने पर [सच् to be associated with] (विदथे) - ज्ञान में (पिपर्षि) पालित व पूरित करते हो , अर्थात् जब मनुष्य आपका उपासक बनकर आपके चरणों में आता है तब आप उसके ज्ञान को बढ़ाकर उसके अज्ञान को नष्ट कर उसको पापों से बचाते हो , उसकी न्यूनताओं को दूर करते हो , 

    २. हे( विचर्षणे) - विशिष्ट , विविध ज्ञानसम्पन्न प्रभो ! आप तो वे हैं (यः) - जो (शूरसाता) - शूरवीरों से सम्भजनीय , जहाँ कायर पुरुषों का भय के कारण प्रवेश नहीं , उस (परितक्म्ये) - [Dangerous , risky , Unsafe] आशंका से भरे (धने) - [प्रधने] संग्राम में (दभेभिः चित्) - थोड़े - से सैनिकों से भी (समृता) - टक्कर होने पर (भूयसः) - बहुतों को (हंसि) - नष्ट कर देते हो । महाभारत में कृष्ण अल्पसंख्यक पाण्डवों को बहुसंख्यक कौरवों के मुकाबिले में विजयी करते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु के सम्पर्क में हम जहाँ अध्यात्म - संग्रामों में विजय पाते हैं वहाँ बाह्य संग्रामों में भी विजयी होते हैं । पापों से ऊपर उठकर हम पवित्र बनते हैं और थोड़े होते हुए भी बहुतों को जीत लेते हैं । 

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    विषय

    पापनाशक प्रभु ।

    भावार्थ

    (अग्ने) अग्रणी! नायक! सेनापते! हे (विचर्षणे) विविध प्रजाओं के द्रष्टा (त्वम्) तू (सक्मन्) समवाय या संघ से बने (विदथे) युद्ध में (वृजिन-वर्त्तनिम् नरम्) बल के मार्ग से जाने वाले वीर पुरुष को (पिपर्षि) अन्न आदि से पालता पोषता है। और (यः) जो तू (शूरसाता) शूरों से सुखपूर्वक भोगने योग्य (परितक्म्ये) चारों ओर से आक्रमण करने योग्य (धने) युद्ध में भी (दभ्रेभिः) मारने में कुशल छोटे-छोटे वीर पुरुषों के द्वारा (चित्) भी (समृता) एकत्र होकर युद्ध में आये (भूयसः) बहुत से शत्रुओं को भी (हंसि) मार देता है। वही तू सेनापति या राजापद के योग्य है। आत्मा परमेश्वर पक्ष में—हे (विचर्षणे) साक्षिन्! तू (सक्मन्) काम, क्रोधादि के संघ में फंसकर (वृजिनवर्त्तनिं नरः पिपिर्ष) पापमार्ग से जानेवाले पुरुष को बचा लेने में समर्थ है। वीरों से लड़ने में योग्य अति दुःखकर इस संग्राम में एकत्र हुए बहुत से काम क्रोधादि आभ्यन्तर शत्रुओं को (दभ्रेभिः) हृदयाकाश में स्थिर प्राणों के बल से विनष्ट करता है।

    टिप्पणी

    अपि चेत्सुदुराचारो भजते मान्यभाक्। साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग् व्यवसितो हि सः॥गी०॥ शश्वद्भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति कौन्तेय प्रति जानीहि न मद्भक्तः प्रणश्यति॥गी०॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आंङ्गिरस ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ १–७, ९–१५, १७ जगत्यः । ८, १६, १८ त्रिष्टुभः । अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराचा हा स्वभाव आहे की जे पुरुष अधर्म सोडून धर्माची कास धरतात त्यांना आपल्या कृपेने तो तत्काळ धर्मात स्थिर करतो. जे धर्माने युद्ध व धन कमावू इच्छितात त्यांचे रक्षण करून त्यांच्या कर्मानुसार त्यांना धन देतो व जे खोटे आचरण करतात त्यांना त्यांच्या कर्मानुसार दंड देतो. जे ईश्वराच्या आज्ञेचे पालन करणारे धर्मात्मा थोड्याशा युद्धसाहित्यासह युद्ध करण्यास प्रवृत्त होतात, ईश्वर त्यांनाच विजय देतो, इतरांना नाही. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, friend and associate lord of comprehen sive vision, you support the man who goes with the man of strength in yajna, and resist and defeat the man who supports a man of crooked ways of power. And in battle of the brave for the creation of wealth and joy, you destroy many evils with limited men and means dedicated to righteousness.

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    Subject of the mantra

    Now, what should the worshiper of God and those who nourish people do? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (sakman)= the one who connects all things, (vicarṣaṇe) =those viewing several things well, (agne) =protecting from all sides, (yaḥ)=that, (nyāyavidyayā)=by jurisprudence, (prakāśamānaḥ)=effulgent, (tvam)=authorized to nourish the subjects, you (vidathe)=In righteousness, war and sacrifice, (śūrasātā)=In the battle in which gifts are given to the heroes, (dabhrebhiḥ)=with little means only, (vṛjinavarttanim)=those moving through crooked way (naram)=of humans, [aura]=and, (bhūyasaḥ)=plentiful, (śatrūn)=of enemies, (haṃsi)=is the killer, (ca)=and,(samṛtā)=There are good kinds of truths in which, their (karmāṇi)=of deeds, (piparṣi)=be a follower (saḥ)=that (tvam)=you, (naḥ)=our, (senādhyakṣaḥ)=commande, (bhava)=be.

    English Translation (K.K.V.)

    O the one who connects all things, the one who sees many kinds of things well, the one who protects from all sides! Those who are empowered by jurisprudence to obey the enlightened subjects, in the battles in which the heroes are gifted in righteousness, war and sacrifice, the people who walk in the crooked path with little means; He is the destroyer of many enemies, and there are good kinds of truths in which, are the follower of their deeds. You be the commander.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    It is the nature of God that by His grace, those men who wish to have righteousness by giving up unrighteousness, establish them in righteousness, those who desire wealth by accomplishing righteousness and war, protecting them and giving them money according to their deeds. He chastises and punishes those who do wicked conduct according to their deeds, those who are present in the command of God, such virtuous souls tend to fight with the least means of war, give victory to them, not to others.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a man who is true devotee of God and the protector of the people do is taught in the 6th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O unifier, Protector and observer of all in true form, " O commander-in-chief of fire-like nature, you destroy in the battle a mighty un-righteous person and many foes with even limited resources and means shining with justice and the light It of knowledge. You preserve and guard truthful acts. is therefore that we request you to be the Commander-in-Chief of the army.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( वृजिनवर्तनिम्) वृजिनस्य बलस्य वर्तनिर्मार्गो यस्य तम् । अह सह सुपेति समासः । वृजिनमिति बलनामसु पठितम् ( निघ० २.९ ) Mighty. (विदथे ) धर्म्ये युद्धे यज्ञे वा, विदथ इतिसंग्रामनामसु पठितम् ( निघ० ३.१७) = In a righteous war or Yajna. ( परितक्म्ये) परितः सर्वतो हर्षानिमित्ते = Delightful. ( तक हसने इति भौवादिकधातोः Tr. ) ( दम्रेभिः ) अल्पैर्युद्धसाधनः सह दभ्रमिति ह्रस्वनामसु पठितम् ( निघ० ३.२) दभ्रम् अर्भकम् इत्यत्यस्य दम्रं दम्नोते: सुदंभं भवति अर्भकवद् वृत्तं भवति । ( निरु० ३.२० ) अल बहुलं छन्दसीतिभिस ऐस् न = Little or insignificant, limited.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    This is the nature of God that He establishes those persons in Dharma (righteousness) who want to give up un-righteousness and observe the rules of righteousness and protecting those who want to wage righteous war (to remedy injustice and tyranny etc.) and acquire wealth with righteous means. He gives them wealth also according to their actions. He punishes those persons who are unrighteous by giving them the fruit of their actions. He gives victory to those righteous persons even with limited resources, who obey His commands and commence a righteous war and not to others.

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