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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 17
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    म॒नु॒ष्वद॑ग्ने अङ्गिर॒स्वद॑ङ्गिरो ययाति॒वत्सद॑ने पूर्व॒वच्छु॑चे। अच्छ॑ या॒ह्या व॑हा॒ दैव्यं॒ जन॒मा सा॑दय ब॒र्हिषि॒ यक्षि॑ च प्रि॒यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒नु॒ष्वत् । अ॒ग्ने॒ । अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् । अ॒ङ्गि॒रः॒ । य॒या॒ति॒ऽवत् । सद॑ने । पू॒र्व॒ऽवत् । शु॒चे॒ । अच्छ॑ । या॒हि॒ । आ । व॒ह॒ । दैव्य॑म् । जन॑म् । आ । सा॒द॒य॒ । ब॒र्हिषि॑ । यक्षि॑ । च॒ । प्रि॒यम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मनुष्वदग्ने अङ्गिरस्वदङ्गिरो ययातिवत्सदने पूर्ववच्छुचे। अच्छ याह्या वहा दैव्यं जनमा सादय बर्हिषि यक्षि च प्रियम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मनुष्वत्। अग्ने। अङ्गिरस्वत्। अङ्गिरः। ययातिऽवत्। सदने। पूर्वऽवत्। शुचे। अच्छ। याहि। आ। वह। दैव्यम्। जनम्। आ। सादय। बर्हिषि। यक्षि। च। प्रियम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 17
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स एवोपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे शुचेऽङ्गिरोऽग्ने सभापते ! त्वं विनयायाभ्यां मनुष्वदङ्गिरस्वद्ययातिवत्पूर्ववत् प्रियं दैव्यं जनमच्छायाहि तं च विद्याधर्मं प्रति वह प्रापय बर्हिष्यासादय सदने यक्षि याजय च ॥ १७ ॥

    पदार्थः

    (मनुष्वत्) यथा मनुष्या गच्छन्ति तद्वत् (अग्ने) सर्वाभिगन्तः सभेश ! (अङ्गिरस्वत्) यथा शरीरे प्राणा गच्छन्त्यागच्छन्ति तद्वत् (अङ्गिरः) पृथिव्यादीनामङ्गानां प्राणवद्धारक ! (ययातिवत्) यथा प्रयत्नवन्तः पुरुषाः कर्माणि प्राप्नुवन्ति प्रापयन्ति च तद्वत्। अत्र यती प्रयत्न इत्यस्मादौणादिक इन् प्रत्ययः स च बाहुलकाण्णित् सन्वच्च। इदं सायणाचार्य्येण भूतपूर्वस्य कस्यचिद् ययाते राज्ञः कथासम्बन्धे व्याख्यातं तदनजर्यम् (सदने) सीदन्ति जना यस्मिंस्तस्मिन् (पूर्ववत्) यथा पूर्वे विद्वांसो विद्यादानार्थं गच्छन्त्यागच्छन्ति तद्वत् (शुचे) पवित्रकारक (अच्छ) श्रेष्ठार्थे (याहि) प्राप्नुहि (आ) समन्तात् (वह) प्रापय । अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (दैव्यम्) देवेषु विद्वत्सु कुशलस्तम् (जनम्) मनुष्यम् (आ) आभिमुख्ये (सादय) अवस्थापय (बर्हिषि) उत्तमे मोक्षपदेऽन्तरिक्षे वा (यक्षि) याजय वा। अत्र सामान्यकाले लुङडभावश्च। (च) (प्रियम्) सर्वाञ्जनान् प्रीणन्तम् ॥ १७ ॥

    भावार्थः

    यैर्मनुष्यैर्विद्यया धर्मानुष्ठानेन प्रेम्णा सेवितः सभापतिः स तानुत्तमेषु धर्म्येषु व्यवहारेषु प्रेरयति ॥ १७ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (शुचे) पवित्र (अङ्गिरः) प्राण के समान धारण करनेवाले (अग्ने) विद्याओं से सर्वत्र व्याप्त सभाध्यक्ष ! आप (मनुष्वत्) मनुष्यों के जाने-आने के समान वा (अङ्गिरस्वत्) शरीरव्याप्त प्राणवायु के सदृश राज्यकर्म व्याप्त पुरुष के तुल्य वा (ययातिवत्) जैसे पुरुष यत्न के साथ कामों को सिद्ध करते कराते हैं वा (पूर्ववत्) जैसे उत्तम प्रतिष्ठावाले विद्वान् विद्या देनेवाले हैं, वैसे (प्रियम्) सबको प्रसन्न करनेहारे (दैव्यम्) विद्वानों में अति चतुर (जनम्) मनुष्य को (अच्छ) अच्छे प्रकार (आयाहि) प्राप्त हूजिये, उस मनुष्य को विद्या और धर्म की ओर (वह) प्राप्त कीजिये तथा (बर्हिषि) (सदने) उत्तम मोक्ष के साधन में (आसादय) स्थित और (यक्षि) वहाँ उसको प्रतिष्ठित कीजिये ॥ १७ ॥

    भावार्थ

    जिन मनुष्यों ने विद्या धर्मानुष्ठान और प्रेम से सभापति की सेवा की है, वह उनको उत्तम-उत्तम धर्म के कामों में लगाता है ॥ १७ ॥

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    विषय

    मनु - अंगिरा - ययाति व पूर्व बनना

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में मार्ग से भटक जाने का उल्लेख था । प्रभु से प्रार्थना की थी कि हे प्रभो ! आप हम विनीत भक्तों का मार्गदर्शन कीजिए । प्रभु प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि हे (अग्ने) - प्रगतिशील जीव और अतएव (अंगिरः) - अंगों में रसवाले तथा (शुचे) - पवित्र जीवनवाले जीव ! तू (मनुष्यवत्) - मननशील ज्ञानी पुरुष की भाँति (अंगिरस्वत्) - अंग - अंग में रसवाले , अर्थात् जीवन से परिपूर्ण पुरुष की भाँति (ययातिवत्) - [वायो इव यातिः यस्य] वायु की भाँति सतत क्रियाशील पुरुष की भाँति तथा (पूर्ववत्) - [पूर्वति] अपना पूर्ण करनेवाले की भाँति (सदने) - अपने घर में (अच्छ) - उस प्रभु की ओर (याहि) - जानेवाला बन । एवं , प्रभु की प्रथम प्रेरणा यह है कि तू विचारशील , रसमय अंगोंवाला , वायु की भाँति क्रियाशील व जीवन में अच्छाइयों का पूरण करनेवाला बन । 

    २. अपने इस घर में तू सदा (दैव्यं जनम्) - प्रभु के बन्दों को , अर्थात् प्रभु की ओर चलनेवाले पवित्र दिव्य पुरुषों को (आवह) - सब ओर से अपने घर में प्राप्त करानेवाला हो । इन विद्वान् , व्रती अतिथियों का सम्पर्क तुझे सदा उत्तम प्रेरणा प्राप्त करानेवाला होगा । यह अतिथि - यज्ञ तुझे अन्ततः प्रभु का अतिथि बनाएगा - तू प्रभु को प्राप्त करनेवाला होगा । 

    ३. प्रतिदिन प्रातः - सायं तू उस प्रभु को (बर्हिषि) - अपने इस वासनाशून्य हृदय में (आसादय) - बिठाने का सर्वथा प्रयत्न कर । तू हृदय - देश में प्रभु का ध्यान कर । सदा हृदयस्थ प्रभु के समीप तू भी बैठ । दो क्षण के लिए यह प्रभु के समीप बैठना तुझे पवित्र जीवनवाला बनाएगा । 

    ४. इस प्रकार प्रतिदिन प्रभु के समीप बैठने से तू प्रियं च यक्षि - प्रिय बातों की अपने साथ संगत करनेवाला बन । तेरे जीवन में वे ही कर्म स्थान पाएँ , जो माधुर्य को लिये हुए हों । 'मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे पराणम्' इन शब्दों के अनुसार तेरा आना - जाना भी मधुर हो 'वाचा 

    वदामि मधुवत्' वाणी से तू मीठा ही बोले ॥ 

    भावार्थ

    भावार्थ - ‘हम मनु - गिरा - ययाति व पूर्व’ बनें । हमारे घर में सज्जनों का आना हो । हृदय में प्रभु का ध्यान हो और हम अपने जीवन में प्रिय बातों को करें । 

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    विषय

    इस मन्त्र में भी उसी अर्थ का प्रकाश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अग्ने विद्वन् त्वं सोम्यानां मर्त्यानाम् आपिः पिता प्रमतिः भृमिः ऋषिकृत् असि नः इमां शरणिं मीमृषः वयं दूरात् अध्वानम् अतीत्य अगाम नित्यम् अभिगच्छेम तं त्वं वयं च सेवेमहि॥१६॥  

    पदार्थ

    हे  (अग्ने) सर्वंसहानुत्तमविद्वन्=सबको सहनेवाले सर्वोत्तम विद्वान्! (त्वम्)=आप, (सोम्यानाम्) ये सोमे साधवः सोमानर्हन्ति तेषां पदार्थानाम्=जो पवित्रों  में उत्तम हैं, उन पदार्थों के, (मर्त्यानाम्) मनुष्याणाम्=मनुष्यों को, (आपिः) यः प्रीत्या प्राप्नोति सः=प्रीति से प्राप्त करता है, (पिता) पालकः=और पालन कर्ता है, (प्रमतिः) प्रकृष्टा मतिर्यस्य=उत्तम विद्या से युक्त, (भृमिः) यो नित्यं भ्रमति=नित्य भ्रमण करने और, (ऋषिकृत्) ऋषीन् ज्ञानवतो मन्त्रार्थद्रष्टॄन् कृपया ध्यानोपदेशाभ्यां करोति= ज्ञानवान् मन्त्रार्थ के दृष्टा ऋषियों की कृपा से  ध्यान और उपदेश करते हैं, (असि)=हैं तथा, (नः) हमारी, (इमाम्) वक्ष्यमाणाम्=इस कही गई, (शरणिम्) अविद्यादिदोषहिंसिकां विद्याम्=अविद्या आदि दोषों का नाश करने वाली विद्या को, (मीमृषः) अत्यन्तं निवारयसि=अत्यन्त दूर करनेवाले हैं, [उन्हें] (वयम्)=हम, (दूरात्) विकृष्टात्= दूर करके, (अध्वानम्) धर्ममार्गम्=धर्ममार्ग के, (अतीत्य)=पार गये हुए, (अगाम) जानीयाम प्राप्नुयाम वा=बोध करें, (नित्यम्)=नित्य, (अभिगच्छेम)=हर ओर से प्राप्त करें, (तम्)=उसकी,  (त्वम्)=आप, (च)=और (वयम्)=हम, (सेवेमहि)=सेवा करें॥१६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जब मनुष्य सत्यभाव से अच्छे मार्ग को प्राप्त करना चाहते हैं, तब परमेश्वर उनको सत्पुरुषों के साथ प्रीति जिज्ञासा से  उत्पन्न करता है। उससे वे उपदेश के जानने की इच्छा उत्पन्न करते हैं। इससे वे श्रद्धालु हुए अत्यन्त दूर बसनेवाले भी आप्त, योगी और विद्वानों के समीप जाकर अभीष्ट बोध को प्राप्त करके धर्मात्मा हो जाते हैं ॥ १६ ॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (अग्ने) सबको सहनेवाले सर्वोत्तम विद्वान्! (त्वम्) आप (सोम्यानाम्) जो पवित्रों  में उत्तम हैं, उन पदार्थों को [और] (मर्त्यानाम्) मनुष्यों को (आपिः) प्रीति से प्राप्त करते हो और (पिता) [और] पालन करते हो। (प्रमतिः) उत्तम विद्या से युक्त (भृमिः) जो नित्य भ्रमण करने [और] (ऋषिकृत्+असि) ज्ञानवान् मन्त्रार्थ के दृष्टा ऋषियों की कृपा से  ध्यान और उपदेश करते हैं [और] (नः) हमारी, (इमाम्) इस कही गई (शरणिम्) अविद्या आदि दोषों का नाश करने वाली विद्या को (मीमृषः) अत्यन्त दूर करनेवाले हो। [उन्हें]  हम (दूरात्) दूर से (अध्वानम्) धर्ममार्ग के (अतीत्य) पार जा करके (अगाम) जानें। (नित्यम्) नित्य (अभिगच्छेम) हर ओर से प्राप्त करें। (तम्) उसकी  (त्वम्) आप (च) और (वयम्) हम (सेवेमहि) सेवा करें॥१६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इमाम्) वक्ष्यमाणाम् (अग्ने) सर्वंसहानुत्तमविद्वन्! (शरणिम्) अविद्यादिदोषहिंसिकां विद्याम्। अत्र शृधातोर्बाहुलकादौणादिकोऽनिः प्रत्ययः। (मीमृषः) अत्यन्तं निवारयसि। अत्र लडर्थे लुङडभावश्च। (नः) अस्माकम् (इमम्) वक्ष्यमाणम् (अध्वानम्) धर्ममार्गम् (यम्) मार्गम् (अगाम) जानीयाम प्राप्नुयाम वा । अत्र इण्धातोर्लिङर्थे लुङ्। (दूरात्) विकृष्टात् (आपिः) यः प्रीत्या प्राप्नोति सः (पिता) पालकः (प्रमतिः) प्रकृष्टा मतिर्यस्य (सोम्यानाम्) ये सोमे साधवः सोमानर्हन्ति तेषां पदार्थानाम् (भृमिः) यो नित्यं भ्रमति। भ्रमेः सम्प्रसारणं च । (उणा०४.१२६) अनेन भ्रमुधातोरिन् प्रत्ययः सम्प्रसारणं च स च कित्। (असि) (ऋषिकृत्) ऋषीन् ज्ञानवतो मन्त्रार्थद्रष्टॄन् कृपया ध्यानोपदेशाभ्यां करोति। अत्र कृतो बहुलम् इति करणे क्विप्। (मर्त्यानाम्) मनुष्याणाम्॥१६॥
    विषयः- पुनः स एवार्थः प्रकाश्यते ॥

    अन्वयः- हे अग्ने विद्वंस्त्वं सोम्यानां मर्त्यानामापिः पिता प्रमतिर्भृमिर्ऋषिकृदसि न इमां शरणिम् मीमृषो वयं दूरादध्वानमतीत्यागाम नित्यमभिगच्छेम तं त्वं वयं च सेवेमहि॥१६॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यदा मनुष्याः सत्यभावेन सन्मार्गं प्राप्तुमिच्छन्ति तदा जगदीश्वरस्तेषां सत्पुरुषसङ्गाय प्रीतिजिज्ञासे जनयति, ततस्ते श्रद्धालवः सन्तोऽतिदूरेऽपि वसत आप्तान् योगिनो विदुष उपसंगम्याभीष्टं बोधं प्राप्य धार्मिका जायन्ते ॥१६॥

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    विषय

    सर्वगुण सम्पन्न ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन्! अग्नि के समान तेजस्विन्! हे (अङ्गिरः) सूर्य के समान प्रकाशवाले! वायु के समान समस्त संसार के अंग २ में व्यापक! हे (शुचे) परम पावन! पवित्र आचार वाले! तू (मनुष्वत्) मननशील पुरुषों से युक्त होकर, (अङ्गिरस्वत्) तेजस्वी, बलवान् पुरुषों से युक्त होकर (ययातिवत्) विद्याओं के पार और संग्राम में आगे बढ़ने वाले वीर पुरुषों से युक्त होकर और (पूर्ववत्) अपने से पूर्व विद्यमान गुरु माता पिता और पूज्य पुरुषों से युक्त होकर (सदने) राजसभा भवन में या मुख्य पद पर (अच्छ याहि) हमें प्राप्त हो। तू (दैव्यं जनम्) विद्वानों और राजाओं के हितकारी पुरुषों को (आ वह) प्राप्त कर। और (प्रियम्) सबके प्रिय, पुरुष को (बर्हिषि) आसन पर, प्रजाजन के ऊपर शासन के लिये स्थापन कर और उसको (यक्षि च) उचित वेतन आदि प्रदान कर। अथवा तुल्यर्थेवतिः। मननशील, तेजस्वी और प्रयाण में कुशल पुरुष के समान राजसभा में या मुख्य आसन पर आ। वीर्याग्नि पक्ष में—हे (शुचे) शुक्र रूप अग्ने! तू मन के सहित अंग २ में व्याप्त रस या बल के सहित (ययातिवत्) क्रिया शक्ति से युक्त होकर (सदने) गृहरूप देह में प्राप्त है। (दैव्यं जनम्) तू अभिलषित, कार्य क्रीड़ा में कुशल उत्पादक अंग को प्राप्त करता, वृद्धिजनक गर्भाशय में प्राप्त होता और सुख प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आंङ्गिरस ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ १–७, ९–१५, १७ जगत्यः । ८, १६, १८ त्रिष्टुभः । अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे विद्या, धर्मानुष्ठान व प्रेम यांनी सभापतीची सेवा करतात त्यांना तो उत्तम धर्म व व्यवहार कार्यात लावतो. ॥ १७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of the world, Angira, life-breath of existence, the very light of purity, come well beautifully, come like a human presence, come like the breath of freshness, come like the effort and achievement of life, come as ever before. Come to the dear holy man of divinity, bear him on to knowledge and Dharma, seat him on the sacred grass of the vedi in the house of yajna, and conduct the yajna for us unto the light of heaven.

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    Subject of the mantra

    In this mantra also, the same (chairman i.e.God) has been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (śuce)=sanctifiers, (aṅgiraḥ)=life breath pervading the body, (agne)=One who understands everyone, such a chairman, (tvam)=you, (vinayāyābhyām)=by modesty, (manuṣvat)=like a human goes, (aṅgirasvat)=like the breath of life in the body exhales and inhales, (yayātivat)=Just as men accomplish or get things done with effort, [yā]=or, (pūrvavat)=Just as the scholars of the past come and go to donate knowledge, so (priyam)=all-pleasers, (daivyam)=Very skilled in the deities and scholars, that (janam)=to human being, (accha)=for the best purpose, (yāhi)=get obtained, (tam)=to that, (ca)=also, (vidyādharmam) =of vidya dharma, (prati)=towards, (ā)=from all sides, (vaha)=having obtained, (barhiṣi)=in the position of perfect salvation or in space, (sādaya)=establish, (ca)=and, [usase]=with that, (yakṣi)= harmonize.

    English Translation (K.K.V.)

    O sanctifying life-breath pervading the body! One who understands all, such a chairman, you come and go through humility like the breath of life in the body like the passing of men, Just as men accomplish or get things done with effort or as the scholars of the past come and go to donate knowledge, in the same way, the most skilled among the deities and scholars who please everyone, get that person for the best purpose. By obtaining him from all sides towards the vidya-dharma (virtue of knowledge), establish him in the position of perfect salvation or in space and harmonize with him.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Those men who have served the chairman with the rituals and love of vidya-dharma (virtue of knowledge), He inspires them in the works of the best righteousness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of Agni is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Agni (President of the Assembly going to all places for supervision etc.) O pure upholder of the earth like the Prana, (Vital breath) like good men, like the Pranas, like industrious persons doing good deeds, like experienced old people, approach a dear learned person with humility and justice. Lead him towards knowledge and Dharma (righteousness) and with their help towards emancipation. Ask him to sit in a proper place like the Yajna Shala or altar and make him perform the Yajna (non-violent sacrifice).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( मनुष्वत्) यथा मनुष्या गच्छन्ति तद्वत् । = Like the conduct of good men. (अङ्गिरस्वत As the Pranas (vital airs in the body). (अंगिर:) पृथिव्यादीनाम् अंगानां प्राणवद्धारक । = Upholder of the earth etc. as the vital breath.( ययातिवत् ) यथा प्रयत्नवन्तः पुरुषाः कर्माणि प्राप्नुवन्ति प्रापयन्ति च । As industrious persons perform actions and cause others to do. (बर्हिषि) उत्तमे मोक्षपदेऽन्तरिक्षे वा । = In the best state of emancipation or in the firmament.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The President of the Assembly, when served by men with the acquisition of knowledge, the observance of the Dharma (rules of righteousness) and with love, urges upon them to discharge their duties properly.

    Translator's Notes

    In this Mantra, the words like मनुष्वत् अंगिरस्वत् and ययातिवत् are found, which Sayanacharya, Wilson, Griffith and many other commentators of the East and the West have misinterpreted taking the words मनु, अंगिरा and Yayati as proper nouns denoting the names of some individuals. According to all the shastras (including the Brahmanas, Six Systems of Philosophy the Smritis, the Upanishads, the Ramayana, the Maha Bharat and others) the Vedas being eternal, cannot have any historical references, therefore this historical interpretation can not hold good and is directly opposed to the principles of Meemansa of the sage Jaimini who is an authority on the system of interpretation of the Vedas. Jaimini has clearly stated.आख्या प्रवचनात् । परन्तु श्रुति सामान्यमात्रम् । (Meemansa by Acharya Jaimini Chap. 1) As to the derivative meanings given by Rishi Dayananda for the words like Manush, Angiras and Yayati that occur in the Mantra, they are authentic being based upon the Brahmanas and the root-meaning. Manush is from मनु-अवबोधे or ज्ञाने So it means a thoughtful man. In the Shatapath Brahmana 8.6.3.18 it is stated विद्वान्सस्ते मनवः i. e. learned persons are called Manus. (शत० ८.६.३.१८) In the Aitareya Brahmana 2.34 it is stated while explaining the Mantra portion अग्निहोता मनुवृत:- अयम् ग्निर्हि सर्वतो मनुष्यैः वृत: Rishi Dayananda has interpreted अग्निरस्वत् in the Mantra as यथा शरीरे प्राणा गच्छन्त्यागच्छन्ति तद्वत् So Angiras has been taken to mean or vital breath. This is well-authenticated as based upon the Shatapath Brahmana 6.1.2.28 and 6.5.2.3-4 where it is clearly stated- प्राणो वा अंगिरा: (शत० ६.१.२८.६५.२.३.४) Angira means Prana, or Vital breath. The word Yayati is derived from यति-प्रयत्ने so it means an industrious person as explained by Rishi Dayananda. He has rightly remarked about Sayanacharya's interpretation that it is wrong as he (Sayana) considers Yayati to be a historical personge. इदं सायणाचार्येण भूतपूर्वस्य कस्यचिद् ययातेः राज्ञः कथासम्बन्धे व्याख्यातं तदशुद्धम् || The reason has been pointed out above. Such an interpretation is also against Sayanacharya's own Introduction to his commentary of the Rigveda where he has proved that the Vedas are eternal.

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