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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 15
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    त्वम॑ग्ने॒ प्रय॑तदक्षिणं॒ नरं॒ वर्मे॑व स्यू॒तं परि॑ पासि वि॒श्वतः॑। स्वा॒दु॒क्षद्मा॒ यो व॑स॒तौ स्यो॑न॒कृज्जी॑वया॒जं यज॑ते॒ सोप॒मा दि॒वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ग्ने॒ । प्रय॑तऽदक्षिणम् । नर॑म् । वर्म॑ऽइव । स्यू॒तम् । परि॑ । पा॒सि॒ । वि॒श्वतः॑ । स्वा॒दु॒ऽक्षद्मा॑ । यः । व॒स॒तौ । स्यो॒न॒ऽकृत् । जी॒व॒ऽया॒जम् । यज॑ते । सः । उ॒प॒ऽमा । दि॒वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने प्रयतदक्षिणं नरं वर्मेव स्यूतं परि पासि विश्वतः। स्वादुक्षद्मा यो वसतौ स्योनकृज्जीवयाजं यजते सोपमा दिवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। प्रयतऽदक्षिणम्। नरम्। वर्मऽइव। स्यूतम्। परि। पासि। विश्वतः। स्वादुऽक्षद्मा। यः। वसतौ। स्योनऽकृत्। जीवऽयाजम्। यजते। सः। उपऽमा। दिवः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 15
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स किं करोतीत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने राजधर्मराजमान ! त्वं वर्म्मे वयः स्वादुक्षद्मा स्योनकृन्मनुष्यो वसतौ विविधैर्यज्ञैर्यजते तं प्रयतदक्षिणं जीवयाजं स्यूतं नरं विश्वतः परिपासि, स भवान् दिव उपमा भवति ॥ १५ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) सर्वाभिरक्षकः (अग्ने) सत्यन्यायप्रकाशमान ! (प्रयतदक्षिणम्) प्रयताः प्रकृष्टतया यता विद्याधर्मोपदेशाख्या दक्षिणा येन तम् (नरम्) विनयाभियुक्तं मनुष्यम् (वर्म्मेव) यथा कवचं देहरक्षकम् (स्यूतम्) विविधसाधनैः कारुभिर्निष्पादितम् (परि) अभ्यर्थे (पासि) रक्षसि (विश्वतः) सर्वतः (स्वादुक्षद्मा) स्वादूनि क्षद्मानि जलान्यन्नानि यस्य सः। क्षद्मेत्युदकनामसु पठितम् । (निघं०१.१२) अन्ननामसु च । (निघं०२.७) इदं पदं सायणाचार्येणान्यथैव व्याख्यातं तदसङ्गतम्। (यः) मनुष्य (वसतौ) निवासस्थाने (स्योनकृत्) यः स्योनं सुखं करोति सः (जीवयाजम्) जीवान् याजयति धर्मं च सङ्गमयति तम् (यजते) यो यज्ञं करोति (सः) धर्मात्मा परोपकारी विद्वान्। अत्र सोऽचि लोपे चेत्पादपूरणम्। (अष्टा०६.१.१३४) अनेन सोर्लोपः। (उपमा) उपमीयतेऽनयेति दृष्टान्तः (दिवः) सूर्यप्रकाशस्य ॥ १५ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये सर्वेषां सुखकर्त्तारः पुरुषार्थिनो मनुष्याः प्रयत्नेन यज्ञान् कुर्वन्ति, ते यथा सूर्यः सर्वान् प्रकाश्य सुखयति तथा भवन्ति यथा युद्धे प्रवर्त्तमानान् वीरान् शस्त्रघातेभ्यः कवचं रक्षति, तथैव राजादयो राजसभा जना धार्मिकान्नरान् सर्वेभ्यो दुःखेभ्यो रक्षेयुरिति ॥ १५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) सबको अच्छे प्रकार जाननेवाले सभापति आप (वर्म्मेव) कवच के समान (यः) जो (स्वादुक्षद्मा) शुद्ध अन्न जल का भोक्ता (स्योनकृत्) सबको सुखकारी मनुष्य (वसतौ) निवासदेश में नाना साधनयुक्त यज्ञों से (यजते) यज्ञ करता है, उस (प्रयतदक्षिणम्) अच्छे प्रकार विद्या धर्म के उपदेश करने (जीवयाजम्) और जीवों को यज्ञ करानेवाले (स्यूतम्) अनेक साधनों से कारीगरी में चतुर (नरम्) नम्र मनुष्य को (विश्वतः) सब प्रकार से (परिपासि) पालते हो (सः) ऐसे धर्मात्मा परोपकारी विद्वान् आप (दिवः) सूर्य के प्रकाश की (उपमा) उपमा पाते हो ॥ १५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो सब के सुख करनेवाले पुरुषार्थी मनुष्य यत्न के साथ यज्ञों को करते हैं, वे जैसे सूर्य सबको प्रकाशित करके सुख देता है, वैसे सबको सुख देनेवाले होते हैं। जैसे युद्ध में प्रवृत्त हुए वीरों को शस्त्रों के घाओं से बख्तर बचाता है, वैसे ही सभापति राजा और राजजन सब धार्मिक सज्जनों को सब दुःखों से रक्षा करते रहें ॥ १५ ॥

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    विषय

    स्वर्गोपम जीवन

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - परमात्मन् ! (त्वम्) - आप (प्रयत - दक्षिणम्) - पवित्र , दूरदर्शितापूर्ण तथा उत्साहयुक्त दान देनेवाले (नरम्) - दान के द्वारा अपनी उन्नति करनेवाले पुरुष को (स्यूतं वर्म इव) - सिले हुए कवच की भाँति (विश्वतः परिपासि) - सब ओर से रक्षित करते हो । जो मनुष्य दान देते हैं प्रभु उनके कवच बनते हैं और उन्हें वासनाओं से व रोगादि से विद्ध नहीं होने देते । 

    २. (यः) - जो पुरुष (स्वादुक्षद्मा) - 'रस्य , स्निग्ध , स्थिर व हृद्य' लक्षणोंवाले सात्त्विक अन्नों का सेवन करता है , 

    ३. सात्त्विक अन्न के सेवन से सात्त्विकवृत्तिवाला बनकर जो (वसतौ) - बस्ती में (स्योनकृत्) - सुख को करनेवाला है , अर्थात् सभी के जीवन को सुखी बनानेवाला है , 

    ४. जो अपने इस जीवन में (जीवयाजं यजते) - जीवों के यज्ञ को करता है , अर्थात् जीवों का आदर करता है , उनके साथ मिलकर चलता है तथा उनके हित के लिए दान करता है , (सः) - वह पुरुष (दिवः उपमा) - स्वर्ग से उपमित करने योग्य है , अर्थात् कहा जा सकता है कि उसका जीवन स्वर्गापम है , यह स्वर्ग में निवास करनेवाला है 

    ५. एवं वह गृहस्थ बन जाता है [क] जहाँ कि लोगों की वृत्ति श्रद्धापूर्वक दान देने की है , [ख] जो प्रभु को अपना कवच बनाकर चलते हैं , [ग] सात्त्विक अन्न का सेवन करते हैं , [घ] बस्ती में सभी के हित के कार्य करते हैं , [ङ] जीवों का आदर , प्रेम व हित करने में तत्पर रहते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - दान , प्रभु में श्रद्धा , सात्त्विक अन्न का सेवन , सर्वहित व प्राणिमात्र का भला करना जीवन को स्वर्गापम बना देता है । 

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    विषय

    सर्वेश्वर्यप्रद, ज्ञानप्रद पिता, और कवच के समान रक्षक

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन्! परमेश्वर! विद्वान् यशकर्त्ता और यज्ञाग्नि जिस प्रकार (प्रयतदक्षिणम्) दान दक्षिणा देने वाले धार्मिक पुरुष की रक्षा करता है और (स्यूतं वर्म इव नरं) खूव दृढ़ता से सीया हुआ कवच जिस प्रकार युद्ध में मनुष्य की रक्षा करता है उसी प्रकार तू परमेश्वर भी (प्रयतदक्षिणं) अपनी समस्त चित्तवृत्ति, क्रियाशक्ति और वीर्य को अच्छी प्रकार नियम में रखने वाले (नरं) साधक पुरुष को (विश्वतः) सब प्रकार से (परि पासि) रक्षा करता है। और (यः) जो पुरुष (वसतौ) अपने निवास योग्य गृह या देह में (स्वादुक्षद्मा ) उत्तम स्वादयुक्त, पुष्टिकारक जल, अन्न खाता और (स्योनकृत्) अपने आपको सुखी रखता हुआ (जीवयाजं यजते) प्राण धारण करने के निमित्त आजीवन यज्ञ करता है (सः) वह (दिवः) सूर्य के समान सुखप्रद (उपमा) जाना जाता है। इसी प्रकार राजा भी उत्तम शास्त्रादि ज्ञान के देने वाले पुरुष को कवच के समान रक्षा करता है। जो राजा अपनी वसति, राष्ट्र में सब प्रजा को सुख दे, (जीवयाजं यजते) समस्त प्राणियों को अन्न दान करे वह सूर्य के समान दानशील तेजस्वी कहाता है। इसी प्रकार शरीर में जाठर अग्नि और वीर्य भी संयतवीर्य वाले यति की रक्षा करता, उत्तम अन्न के भोक्ता को आजीवन सुखपूर्वक प्राण प्रदान करता है वह ‘सूर्य’ या स्वर्ग के समान है। आरोग्यं परमं सुखम् । इति चतुस्त्रिंशों वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आंङ्गिरस ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ १–७, ९–१५, १७ जगत्यः । ८, १६, १८ त्रिष्टुभः । अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे सूर्य सर्वांना प्रकाशित करून सुख देतो तसे सर्वांना सुखी करणारी पुरुषार्थी माणसे प्रयत्नाने यज्ञ करून सर्वांना सुख देतात. जसे युद्धात प्रवृत्त असलेल्या वीरांचे, शस्त्रांचे घाव झेलण्याचे काम ढाल करते तसे सभापती राजा व राज्यातील लोकांनी सर्व धार्मिक सज्जनांचे सर्व दुःखांपासून रक्षण करावे. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of light and law, guardian of all, like a strongly fabricated armour you protect from all sides the man initiated and consecrated who abides in the home with delicious foods, doing noble deeds with yajna and dharma and serves life as an example of the saving light of heaven.

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    Subject of the mantra

    Then, what does that (Agni) do? This has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)=God, (satyanyāyaprakāśamāna)= illuminator of truth and justice, (rājadharmarājamāna)=radiant with royalty, [aura]=and, (tvam)=you all protector, (varmmeva)=like body guard, (vayaḥ)=life, (svādukṣadmā)=who has tasty water and food, (syonakṛt)=One who pleases all, [usa]=that, (manuṣyaḥ)=of human being, (vasatau)=in the residence, (vividhaiḥ)=of different types, (yajñaiḥ) by yajan, (yajate) =one who performs yajan, (tam)=that, (prayatadakṣiṇam)=By preaching good knowledge and righteousness, [aura]=and, (jīvayājam)=providers of yajan to living beings, (syūtam)=skillful in workmanship by many means, (naram)=of meek ma, (viśvataḥ)=by all means, (pāsi)=protect, (saḥ)=such a charitable philanthropist (bhavān)=you, (divaḥ)=of sunlight, (upamā+bhavati)= are likened to the examples.

    English Translation (K.K.V.)

    O God! The light of truth and justice, radiant with royalty and protector of all, having life like a protective shield of the body, having delicious water and food, the one who is pleasing to all, the one who performs various kinds of sacrifices in the abode of that person, will be considered good. By preaching knowledge and righteousness in various ways and by performing yajan to the living beings, you protect the humble in every way. Such virtuous benevolent scholars are likened to the examples of your Sunlight.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Those who make efforts to bring happiness to all, perform yajan together, they are just as the Sun gives happiness by illuminating all. Just as the armor protects the warriors engaged in war from the wounds of weapons, so keep on protecting the righteous people of the royal assembly from all sorrows.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What does he (Agni) do is taught in the fifteenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O King shining in your duties of kingship, you protect from all sides like well-stitched armor the humble man who gives presents to the priests and delivers sermons about Dharma and right knowledge to the people; you defend a man who keeps good food and water in his dwelling, is benevolent to all and performs various Yanjas (non-violent sacrifices urging upon them to do them (the Yajnas) and making them righteous.. You are the likeness of the light of the sun i. e. you are like the sun, dispeller of all darkness (of ignorance).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अग्ने) सत्यन्यायप्रकाशमान । = Shining on account of Truth and justice. (प्रयतदक्षिणम्) प्रयताः प्रकृष्टा यता विद्या धर्मोपदेशाख्या दक्षिणा येन । = Who has given presents to the priests and delivered. sermons to preach righteousness to the people. (वर्म) देहरक्षकं कवचम् = Armour that guards the body. ( स्वादुसद्मा) स्वादूनि प्रश्नानि जलानि अन्नानि यस्य सः क्षद्येत्युदक नामसु पठितम् (निघ० १.१२) अन्ननामसु च (निघ० २.७) । = He who has got delicious food and good pure water. (जीवयाजम्) जीवान् याजयति धर्म च संगमयतीति तम् । = He who officiates over the Yajnas or induces others to perform them and unites them with Dharma. (Righteousness and duties). (दिवः) सूर्यप्रकाशस्य = Of the light of the sun.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankara in this Mantra. Those people of benevolent nature who being industrious are engaged in making others happy and performing Yajnas, are like the sun which gives happiness to all by its light. As the armour protects the fighting heroes from the onslaughts of the weapons, so the king and officers of the state should shield all righteous persons from all miseries.

    Translator's Notes

    Sayanacharya has committed two mistakes in his commentary on this Mantra. He has interpreted स्वादुचद्मा as स्वादून्चदतीति स्वादुचद्मा चढ़तिरत्तिकर्मा । अन्येभ्योऽपि दृश्यत इति मनिन् !! = Rishi Dayananda pointing out Sayanacharya's mistake says- इदं पदं सायणाचार्येण अन्यथैव व्याख्यातं तत् असंगतम् || i. e. Sayanacharya has interpreted this word सवादुक्षद्मा wrongly. The interpretation given by Rishi Dayananda is simple and in accordance with the Vedic Lexicon Nighantu which clearly states in 1.12 क्षमेत्युदक नामसु पठितम् (निघ० १.१२) i.e. क्षदम् means water. In Nighantu 2.7 it is stated क्षदमेति [अन्न नामसु पठितम् (निष० २.७) i. e. क्षदम् means food. Therefore Rishi Dayananda's interpretation as स्वादूनि क्षमानि जलानि अन्नानि यस्य सः He who has delicious food and good or pure water is quite correct. The other mistake committed by Sayanacharya is with regard to the meaning of the word जीवयानम् His first interpretation is better जीवा ऋत्विज: इज्यन्ते दक्षिणाभिः पूज्यन्ते भत्रेति अधिकरणे घञ i. e. where priests are honored with sacrificial presents. It is not so objectionable or absurd as the second one when he says- यदा जीवै:पशुभिर्यजनं जीवयज्ञः Yajna with the animals. It is against the spirit of the Vedic Yajnas which are termed as अध्वर or non-violent अध्वर इति यहनाम ध्वति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेध: ( निरुक्ते १.७ ) = A non-violent act ( निरुक्ते १.७ ) How significant is Rishi Dayananda's interpretation as जीवान् याजयति धर्म च संगमयति तम् । = He who prompts others to perform Yajnas (or Officiates over them)and unites them with Dharma or righteous conduct. "यज्–देवपूजासंगतिकरणदानेषु Among the three meanings of the root here Rishi Dayananda has mainly taken the second meaning of for uniting.

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