ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 16
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - धैवतः
इ॒माम॑ग्ने श॒रणिं॑ मीमृषो न इ॒ममध्वा॑नं॒ यमगा॑म दू॒रात्। आ॒पिः पि॒ता प्रम॑तिः सो॒म्यानां॒ भृमि॑रस्यृषि॒कृन्मर्त्या॑नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माम् । अ॒ग्ने॒ । श॒रणि॑म् । मी॒मृ॒षः॒ । नः॒ । इ॒मम् । अध्वा॑नम् । यम् । अगा॑म । दू॒रात् । आ॒पिः । पि॒ता । प्रऽम॑तिः । सो॒म्याना॑म् । भृमिः॑ । अ॒सि॒ । ऋ॒षि॒ऽकृत् । मर्त्या॑नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमामग्ने शरणिं मीमृषो न इममध्वानं यमगाम दूरात्। आपिः पिता प्रमतिः सोम्यानां भृमिरस्यृषिकृन्मर्त्यानाम् ॥
स्वर रहित पद पाठइमाम्। अग्ने। शरणिम्। मीमृषः। नः। इमम्। अध्वानम्। यम्। अगाम। दूरात्। आपिः। पिता। प्रऽमतिः। सोम्यानाम्। भृमिः। असि। ऋषिऽकृत्। मर्त्यानाम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 16
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स एवार्थः प्रकाश्यते ॥
अन्वयः
हे अग्ने विद्वंस्त्वं सोम्यानां मर्त्यानामापिः पिता प्रमतिर्भृमिर्ऋषिकृदसि न इमां शरणिम् मीमृषो वयं दूरादध्वानमतीत्यागाम नित्यमभिगच्छेम तं त्वं वयं च सेवेमहि ॥ १६ ॥
पदार्थः
(इमाम्) वक्ष्यमाणाम् (अग्ने) सर्वंसहानुत्तमविद्वन्! (शरणिम्) अविद्यादिदोषहिंसिकां विद्याम्। अत्र शृधातोर्बाहुलकादौणादिकोऽनिः प्रत्ययः। (मीमृषः) अत्यन्तं निवारयसि। अत्र लडर्थे लुङडभावश्च। (नः) अस्माकम् (इमम्) वक्ष्यमाणम् (अध्वानम्) धर्ममार्गम् (यम्) मार्गम् (अगाम) जानीयाम प्राप्नुयाम वा । अत्र इण्धातोर्लिङर्थे लुङ्। (दूरात्) विकृष्टात् (आपिः) यः प्रीत्या प्राप्नोति सः (पिता) पालकः (प्रमतिः) प्रकृष्टा मतिर्यस्य (सोम्यानाम्) ये सोमे साधवः सोमानर्हन्ति तेषां पदार्थानाम् (भृमिः) यो नित्यं भ्रमति। भ्रमेः सम्प्रसारणं च । (उणा०४.१२६) अनेन भ्रमुधातोरिन् प्रत्ययः सम्प्रसारणं च स च कित्। (असि) (ऋषिकृत्) ऋषीन् ज्ञानवतो मन्त्रार्थद्रष्टॄन् कृपया ध्यानोपदेशाभ्यां करोति। अत्र कृतो बहुलम् इति करणे क्विप्। (मर्त्यानाम्) मनुष्याणाम् ॥ १६ ॥
भावार्थः
यदा मनुष्याः सत्यभावेन सन्मार्गं प्राप्तुमिच्छन्ति तदा जगदीश्वरस्तेषां सत्पुरुषसङ्गाय प्रीतिजिज्ञासे जनयति, ततस्ते श्रद्धालवः सन्तोऽतिदूरेऽपि वसत आप्तान् योगिनो विदुष उपसंगम्याभीष्टं बोधं प्राप्य धार्मिका जायन्ते ॥ १६ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में भी उसी अर्थ का प्रकाश किया है ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) सबको सहनेवाले सर्वोत्तम विद्वान् ! जो आप (सोम्यानाम्) शान्त्यादि गुणयुक्त (मर्त्यानाम्) मनुष्यों को (आपिः) प्रीति से प्राप्त (पिता) और सर्वपालक (प्रमतिः) उत्तम विद्यायुक्त (भृमिः) नित्य भ्रमण करने और (ऋषिकृत्) वेदार्थ को बोध करानेवाले हैं तथा (नः) हमारी (इमाम्) इस (शरणिम्) विद्यानाशक अविद्या को (मीमृषः) अत्यन्त दूर करने हारे हैं, वे आप और हम (यम्) जिसको हम लोग (दूरात्) दूर से उल्लङ्घन करके (इमम्) वक्ष्यमाण (अध्वानम्) धर्ममार्ग के (अगाम) सन्मुख आवें, उसकी सेवा करें ॥ १६ ॥
भावार्थ
जब मनुष्य सत्यभाव से अच्छे मार्ग को प्राप्त होना चाहते हैं, तब जगदीश्वर उनको उत्तम ज्ञान का प्रकाश करनेवाले विद्वानों का संग होने के लिये प्रीति और जिज्ञासा अर्थात् उनके उपदेश के जानने की इच्छा उत्पन्न करता है। इससे वे श्रद्धालु हुए अत्यन्त दूर भी बसनेवाले सत्यवादी योगी विद्वानों के समीप जाय, उनका संग कर अभीष्ट बोध को प्राप्त होकर धर्मात्मा होते हैं ॥ १६ ॥
विषय
मर्त्य से ऋषि बनना
पदार्थ
१. हे (अग्ने) - प्रभो ! (नः) - हमारी (इमाम्) - इस (शरणिम्) - [शृ हिंसायाम्] व्रत - लोप त्रुटि को (मीमृषः) - क्षमा कीजिए अथवा मसल डालिए , समाप्त कर दीजिए । (यम्) - जिस (इमम्) - इस (अध्वानम्) - मार्ग से हम दूर चले गये हैं उस हमारी भूल को क्षमा कीजिए । (आपिः) - आप ही हमारे बन्धु हैं , (पिता) - रक्षक हैं , (प्रमतिः) - प्रकृष्ट मति के देनेवाले आचार्य हैं । आपने ही हम भटके हुओं को मार्ग पर लाना है । एक बन्धु की भाँति , पिता की भाँति , आचार्य की भाँति आपने ही तो हमें सन्मार्ग का दर्शन कराना है । हम भटक भी गये हैं तो आपके क्रोध के पात्र न होकर आपकी दया [Merey मृष] के ही तो पात्र हैं
२. हे प्रभो ! (सोम्यानाम्) - सौम्य स्वभाववाले हम लोगों के आप ही (भृमिः असि) - मुख मोड़नेवाले हैं , अर्थात् ठीक दिशा के दिखलानेवाले हैं , हृदयस्थ रूपेण आप ही सतत प्रेरणा देते हुए हमें मार्ग का दर्शन कराते हैं , हमारे कर्तव्याकर्तव्य का बोध देते हैं । इस प्रकार पवित्र बनाकर आप (मर्त्यानां ऋषिकृत्) - सामान्य मनुष्यों को ऋषिकोटि में पहुँचा देते हैं । हमें भी आप अवश्य ही इस श्रेणी में लाने की कृपा करेंगे ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही हमारे बन्ध , पिता व आचार्य हैं । वे हमारी त्रुटियों को मसल व नष्ट करके , हम विनीत बननेवालों को सन्मार्ग दिखलाते हैं और हमें सामान्य मनुष्य से ऋषि बना देते हैं ।
विषय
फिर वह क्या करता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे अग्ने राजधर्मराजमान ! त्वं वर्म इव वयः स्वादुक्षद्मा स्योनकृत् मनुष्यः वसतौ विविधैः यज्ञैः यजते तं प्रयतदक्षिणं जीवयाजं स्यूतं नरं विश्वतः परि पासि, स भवान् दिव उपमा भवति॥१५॥
पदार्थ
हे (अग्ने)=परमेश्वर, (सत्यन्यायप्रकाशमान)=सत्य और न्याय का प्रकाश करनेवाले, (राजधर्मराजमान) =राजधर्म से दीप्तिमान ! (त्वम्) सर्वाभिरक्षकः=सबके रक्षक आप (वर्म्मेव) यथा कवचं देहरक्षकम्=देह के रक्षक कवच के समान, (वयः)=आयु, (स्वादुक्षद्मा) स्वादूनि क्षद्मानि जलान्यन्नानि यस्य सः=स्वादिष्ट जल और अन्न हैं जिसके, (स्योनकृत्) यः स्योनं सुखं करोति सः=जो सबका सुखकारी है, [उस] (मनुष्यः)=मनुष्य के, (वसतौ) निवासस्थाने= निवास स्थान में, (विविधैः)=विविध प्रकार के, (यज्ञैः)=यज्ञों से, (यजते) यो यज्ञं करोति=जो यज्ञ करता है, (तम्)=उस, (प्रयतदक्षिणम्) प्रयताः प्रकृष्टतया यता विद्याधर्मोपदेशाख्या दक्षिणा येन तम्=अच्छे प्रकार विद्या और धर्म के उपदेश करके, (जीवयाजम्) जीवान् याजयति धर्मं च सङ्गमयति तम्=और जीवों को यज्ञ करानेवाले, (स्यूतम्) विविधसाधनैः कारुभिर्निष्पादितम्= अनेक साधनों से कारीगरी में चतुर, (नरम्) विनयाभियुक्तं मनुष्यम्=नम्र मनुष्य को, (विश्वतः) सर्वतः=सब प्रकार से (पासि) रक्षसि=रक्षा करते हो, (सः) धर्मात्मा परोपकारी विद्वान्=ऐसे धर्मात्मा परोपकारी विद्वान्, (भवान्)=आप, (दिवः) सूर्यप्रकाशस्य=सूर्य के प्रकाश की, (उपमा) उपमीयतेऽनयेति दृष्टान्तः=उदाहरणों से उपमा पाते, (भवति)= हो॥१५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो सब के सुख करनेवाले पुरुषार्थी मनुष्य प्रयत्न से साथ यज्ञ करते हैं, वे जैसे सूर्य सबको प्रकाशित करके सुख देता है, वैसे ही होते हैं। जैसे युद्ध में प्रवृत्त हुए वीरों को शस्त्रों के घाओं से कवच बचाता है, वैसे ही राजा आदि राज सभा के धार्मिक लोगों की सब दुःखों से रक्षा करते रहो ॥१५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (अग्ने) परमेश्वर! (सत्यन्यायप्रकाशमान) सत्य और न्याय का प्रकाश करनेवाले, (राजधर्मराजमान) राजधर्म से दीप्तिमान [और] (त्वम्) सबके रक्षक आप (वर्म्मेव) देह के रक्षक कवच के समान (वयः) आयु, (स्वादुक्षद्मा) स्वादिष्ट जल और अन्न हैं जिसके, (स्योनकृत्) जो सबका सुखकारी है, [उस] (मनुष्यः) मनुष्य के (वसतौ) निवास स्थान में (विविधैः) विविध प्रकार के (यज्ञैः) यज्ञों से (यजते) जो यज्ञ करता है, (तम्) उसे (प्रयतदक्षिणम्) अच्छे प्रकार से विद्या और धर्म के उपदेश करके (जीवयाजम्) और जीवों को यज्ञ करानेवाले (स्यूतम्) अनेक साधनों से कारीगरी में चतुर (नरम्) नम्र मनुष्य की (विश्वतः) सब प्रकार से (पासि) रक्षा करते हो। (सः) ऐसे धर्मात्मा परोपकारी विद्वान् (भवान्) आप की (दिवः) सूर्य के प्रकाश के (उपमा+भवति) उदाहरणों से उपमा होती है॥१५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) सर्वाभिरक्षकः (अग्ने) सत्यन्यायप्रकाशमान ! (प्रयतदक्षिणम्) प्रयताः प्रकृष्टतया यता विद्याधर्मोपदेशाख्या दक्षिणा येन तम् (नरम्) विनयाभियुक्तं मनुष्यम् (वर्म्मेव) यथा कवचं देहरक्षकम् (स्यूतम्) विविधसाधनैः कारुभिर्निष्पादितम् (परि) अभ्यर्थे (पासि) रक्षसि (विश्वतः) सर्वतः (स्वादुक्षद्मा) स्वादूनि क्षद्मानि जलान्यन्नानि यस्य सः। क्षद्मेत्युदकनामसु पठितम् । (निघं०१.१२) अन्ननामसु च । (निघं०२.७) इदं पदं सायणाचार्येणान्यथैव व्याख्यातं तदसङ्गतम्। (यः) मनुष्य (वसतौ) निवासस्थाने (स्योनकृत्) यः स्योनं सुखं करोति सः (जीवयाजम्) जीवान् याजयति धर्मं च सङ्गमयति तम् (यजते) यो यज्ञं करोति (सः) धर्मात्मा परोपकारी विद्वान्। अत्र सोऽचि लोपे चेत्पादपूरणम्। (अष्टा०६.१.१३४) अनेन सोर्लोपः। (उपमा) उपमीयतेऽनयेति दृष्टान्तः (दिवः) सूर्यप्रकाशस्य ॥ १५ ॥
विषयः- पुनः स किं करोतीत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः- हे अग्ने राजधर्मराजमान ! त्वं वर्म्मेव वयः स्वादुक्षद्मा स्योनकृन्मनुष्यो वसतौ विविधैर्यज्ञैर्यजते तं प्रयतदक्षिणं जीवयाजं स्यूतं नरं विश्वतः परिपासि, स भवान् दिव उपमा भवति॥१५॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। ये सर्वेषां सुखकर्त्तारः पुरुषार्थिनो मनुष्याः प्रयत्नेन यज्ञान् कुर्वन्ति, ते यथा सूर्यः सर्वान् प्रकाश्य सुखयति तथा भवन्ति यथा युद्धे प्रवर्त्तमानान् वीरान् शस्त्रघातेभ्यः कवचं रक्षति, तथैव राजादयो राजसभा जना धार्मिकान्नरान् सर्वेभ्यो दुःखेभ्यो रक्षेयुरिति ॥ १५ ॥
विषय
शरण्य
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानवन्! परमेश्वर, विद्वन्! तू (नः) हमारे (शरणिम्) नाश करने वाली अविद्या को (इमाम्) इस वर्त्तमान की (शरणिम्) नाश करनेवाली अविद्या को या हिंसाभाव को (मीमृषः) दूर कर। (यम्) जिस तेरे पास हम (दूरात्) इतने दूर से भी (इमम् अध्वानम्) इतना लम्बा मार्ग चल कर (अगाम) तुझे प्राप्त हुए हैं वह तू (सोम्यानाम्) शानवान् पुरुषों में भी (प्रमतिः) सबसे उत्कृष्ट ज्ञान वाला, (पिता) पालक और (आपिः) सदा आप्त, बन्धु है। तू ही (मर्त्यानाम्) मनुष्यों के हित के लिये (भृमिः) सूर्य के समान सर्वत्र व्यापक या सत्यासत्य के विवेचक तर्कों, युक्ति, प्रमाणों का उपदेष्टा (असि) है। शरीर-गत वीर्याग्नि हमारे जीवन नाश को दूर करता है जिससे हम लम्बे जीवनपथ को पार कर लेते हैं। वह शरीर का बन्धु, पालक है। (सोम्यानां) वीर्य-रक्षक पुरुषों का (भूमिः) पालक और मनुष्यों में (ऋषिकृत्) ज्ञानी, ऋषियों और शरीर में इन्द्रियों, प्राणों का उत्पादक और बलकारक है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आंङ्गिरस ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ १–७, ९–१५, १७ जगत्यः । ८, १६, १८ त्रिष्टुभः । अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा माणसे सत्यभावाने सन्मार्ग प्राप्त करण्याची इच्छा करतात तेव्हा जगदीश्वर त्यांना सत्पुरुष विद्वानांचा संग उपलब्ध करून देतो, तसेच प्रेम व जिज्ञासा अर्थात त्यांचा उपदेश जाणण्याची इच्छा उत्पन्न करतो. त्यामुळे ते श्रद्धाळू अत्यंत दूर असलेल्या सत्यवादी योगी विद्वानाजवळ जाऊन त्यांचा संग करून अभीष्ट बोध प्राप्त करून धर्मात्मा बनतात. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord of light and knowledge, remove this destructive ignorance of ours so that we come back to the right path from afar. Lord of vision and wisdom, giver of the light divine, omnipresent, ever on the move, immanent and accessible to the people of peace and piety, father, save us, redeem us, bless us.
Subject of the mantra
In this mantra also, same purport has been elucidated.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (agne)=the best scholar who endures all, (tvam)=you, (somyānām)=Those who are the best of the holy, those things, [aura]=and, (martyānām)=to human beings, (āpiḥ)=who loves affectionately, [aura]=and, (pitā)=protects, (pramatiḥ)=having excellent vidya, (bhṛmiḥ) who travels regularly, [aura]=and, (ṛṣikṛt+asi)=The seers of the knowledgeable mantras meditate and preach by the grace of the sages, [aura]=and, (naḥ)=our, (imām) this said, (śaraṇim)=The knowledge that destroys the defects of nescience etc. (mīmṛṣaḥ) =you are one who drives away very far, [unheṃ]=to those, (vayam) =we, (dūrāt)=from far, (adhvānam)=of way of righteousness, (atītya)=going across,(agāma) jāneṃ| (nityam) nitya (abhigacchema)=obtain from all sides, (tam)=his,(tvam)=you, (ca)=and, (vayam)=we,(sevemahi)=worship.
English Translation (K.K.V.)
O Best scholar who endures all! You, who are the best of the holy, receive those things and human beings with love and nourishes them further. One who is endowed with best of knowledge. Who regularly travels, meditates and preaches by the grace of the sages who are the seers of knowledge and who are the most dispelling of the knowledge which destroys the evils of our nescience etc. Let us know them from afar by crossing the path of the righteousness. Obtain Him from everywhere. You and I should worship Him (God).
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
When human beings want to attain the good path with truthfulness, then the Supreme Lord creates love out of curiosity with good men. From that He (God) evokes desire to know the teachings. Due to this they became devotees, even those who live far away, by approaching experts, yogis and scholars, after attaining the desired realization, become virtuous.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned man, you are kith & kin, father and protector of persons of quiet nature, most wise, going from place to place to preach Dharma, making mortal people seers, please dispel the darkness of our ignorance. May we who have left the path of un- righteousness and come to the path of righteousness always follow it.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अग्ने) सर्वसह अनुत्तम विद्वन् = Learned best person, bearing all with equanimity. (शरणिम्) विद्याद्यदोषहिंसिकां विद्याम् = True knowledge which dispels the darkness of evil. (मीमृष:) अत्यन्तं निवारयसि = Dispel. ( आपिः ) यः प्रीत्या प्राप्नोति सः Kith & Kin who approach lovingly. (ऋषिकृत् ) ऋतवतो मन्त्रार्यद्रष्टृन कृपया ध्यानोपदेशाभ्यां करोति अत्र कृत्यो बहुलमिति करणे क्विप् = He who makes people the seers of the Vedic Mantra-S the knowers of their secret.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When men sincerely desire to get the true path, then God creates in them love and desire to know the Truth from the association with noble persons. Then they being full of faith, having approached truly learned and truthful Yogis, acquire true knowledge and become righteous.
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