ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 8
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वं नो॑ अग्ने स॒नये॒ धना॑नां य॒शसं॑ का॒रुं कृ॑णुहि॒ स्तवा॑नः। ऋ॒ध्याम॒ कर्मा॒पसा॒ नवे॑न दे॒वैर्द्या॑वापृथिवी॒ प्राव॑तं नः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । स॒नये॑ । धना॑नाम् । य॒शस॑म् । का॒रुम् । कृ॒णु॒हि॒ । स्तवा॑नः । ऋ॒ध्याम॑ । कर्म॑ । अ॒पसा॑ । नवे॑न । दे॒वैः । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । प्र । अ॒व॒त॒म् । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नो अग्ने सनये धनानां यशसं कारुं कृणुहि स्तवानः। ऋध्याम कर्मापसा नवेन देवैर्द्यावापृथिवी प्रावतं नः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। नः। अग्ने। सनये। धनानाम्। यशसम्। कारुम्। कृणुहि। स्तवानः। ऋध्याम। कर्म। अपसा। नवेन। देवैः। द्यावापृथिवी इति। प्र। अवतम्। नः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदुपासकः प्रजायै कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! त्वं स्तवानः सन् नोऽस्माकं धनानां सनये संविभागाय यशसं कारुं कृणुहि सम्पादय, यतो वयं पुरुषार्थिनो भूत्वा नवेनापसा सह कर्म कृत्वा ऋध्याम नित्यं वर्द्धेम विद्याप्राप्तये देवैः सह युवां नोऽस्मान् द्यावापृथिवी च प्रावतं नित्यं रक्षतम् ॥ ८ ॥
पदार्थः
(त्वम्) जगदीश्वरोपासकः (नः) अस्माकम् (अग्ने) कीर्त्युत्साहप्रापक (सनये) संविभागाय (धनानाम्) विद्यासुवर्णचक्रवर्त्तिराज्यप्रसिद्धानाम् (यशसम्) यशांसि कीर्त्तियुक्तानि कर्माणि विद्यन्ते यस्य तम् (कारुम्) य उत्साहेनोत्तमानि कर्माणि करोति तम् (कृणुहि) कुरु। अत्र उतश्च प्रत्ययाच्छन्दो वा वचनम्। (अष्टा०६.४.१०६) अनेन वार्तिकेन हेर्लुक् न। (स्तवानः) यः स्तौति सः (ऋध्याम) वर्द्धेम (कर्म) क्रियमाणमीप्सितम् (अपसा) पुरुषार्थयुक्तेन कर्मणा सह। अप इति कर्मनामसु पठितम् । (निघं०२.१) (नवेन) नूतनेन। नवेति नवनामसु पठितम् । (निघं०३.२८) (देवैः) विद्वद्भिः सह (द्यावापृथिवी) भूमिसूर्यप्रकाशौ (प्र) प्रकृष्टार्थे (प्रावतम्) अवतो रक्षतम् (नः) अस्मान् ॥ ८ ॥
भावार्थः
मनुष्यैरतेदर्थं परमात्मा प्रार्थनीयः। हे जगदीश्वर ! भवान् कृपयाऽस्माकं मध्ये सर्वासामुत्तमधनप्रापिकानां शिल्पादिविद्यानां वेदितॄनुत्तमान् विदुषो निर्वर्तय, यतो वयं तैः सह नवीनं पुरुषार्थं कृत्वा पृथिवीराज्यं सर्वेभ्यः पदार्थेभ्य उपकारांश्च गृह्णीयामेति ॥ ८ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर परमात्मा का उपासक प्रजा के वास्ते कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) कीर्त्ति और उत्साह के प्राप्त करानेवाले जगदीश्वर वा परमेश्वरोपासक ! (स्तवानः) आप स्तुति को प्राप्त होते हुए (नः) हम लोगों के (धनानाम्) विद्या सुवर्ण चक्रवर्त्ति राज्य प्रसिद्ध धनों के (सनये) यथायोग्य कार्य्यों में व्यय करने के लिये (यशसम्) कीर्त्तियुक्त (कारुम्) उत्साह से उत्तम कर्म करनेवाले उद्योगी मनुष्य को नियुक्त (कृणुहि) कीजिये, जिससे हम लोग नवीन (अपसा) पुरुषार्थ से (नित्य) नित्य बुद्धियुक्त होते रहें और आप दोनों विद्या की प्राप्ति के लिये (देवैः) विद्वानों के साथ करते हुए (नः) हम लोगों की और (द्यावापृथिवी) सूर्य प्रकाश और भूमि को (प्रावतम्) रक्षा कीजिये ॥ ८ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को परमेश्वर की इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये कि हे परमेश्वर ! आप कृपा करके हम लोगों में उत्तम धन देनेवाली सब शिल्पविद्या के जाननेवाले उत्तम विद्वानों को सिद्ध कीजिये, जिससे हम लोग उनके साथ नवीन-नवीन पुरुषार्थ करके पृथिवी के राज्य और सब पदार्थों से यथायोग्य उपकार ग्रहण करें ॥ ८ ॥
विषय
फिर परमात्मा का उपासक प्रजा के वास्ते कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे अग्ने! त्वं स्तवानः सन् नः अस्माकं धनानां सनये संविभागाय यशसं कारुं कृणुहि सम्पादय यतः वयं पुरुषार्थिनः भूत्वा नवेन अपसा सह कर्म कृत्वा ऋध्याम नित्यम् वर्द्धेम विद्याप्राप्तये देवैः सह युवां नः अस्मान् द्यावापृथिवी च प्रावतं नित्यं रक्षतम्॥८॥
पदार्थ
हे (अग्ने) कीर्त्युत्साहप्रापक=कीर्त्ति और उत्साह के प्राप्त करानेवाले, (त्वम्) जगदीश्वरोपासकः=परमेश्वर के उपासक तुम ! (स्तवानः+सन्) यः स्तौति सः=वह जो स्तुति करते हुए (नः) अस्माकम्=हमारे, (धनानाम्) विद्यासुवर्णचक्रवर्त्तिराज्यप्रसिद्धानाम्=विद्या, सुवर्ण और चक्रवर्त्ति राज्य के प्रसिद्ध धनों के, (सनये) संविभागाय=यथायोग्य कार्य्यों में व्यय करने के लिये, (यशसम्) यशांसि कीर्त्तियुक्तानि कर्माणि विद्यन्ते यस्य तम्=कीर्त्तियुक्त, (कारुम्) य उत्साहेनोत्तमानि कर्माणि करोति तम्=मनुष्य को उत्साह से उत्तम कर्म कराने वाला उद्योगी (कृणुहि) कुरु=बनाइये, (यतः)=जिससे, (वयम्)=हम लोग, (पुरुषार्थिनः)=पुरुषार्थी, (भूत्वा)=होकर, (नवेन) नूतनेन=नवीन, (अपसा) पुरुषार्थयुक्तेन कर्मणा सह=पुरुषार्थ कर्मों के, (सह)=साथ, (कर्म)=कर्म, (कृत्वा)=करके, (ऋध्याम) वर्द्धेम=बढ़ायें, (विद्याप्राप्तये)=विद्या की प्राप्ति के लिये, (देवैः)=विद्वानों के, (सह)=साथ, (युवाम्)=आप दोनों, (नः) अस्मान्=हम, (द्यावापृथिवी) भूमिसूर्यप्रकाशौ=भूमि और सूर्य के प्रकाश की (च)=भी (प्रावतम्) अवतो रक्षतम्=नित्य रक्षा कीजिये॥८॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों को इसलिए परमेश्वर की प्रार्थना करनी चाहिये। हे परमेश्वर ! आप कृपा करके हम लोगों के मध्य में सबको उत्तम धन प्राप्त करनेवाले, शिल्पविद्या के जाननेवाले विद्वानों को लाइये। क्योंकि हम उनके साथ नवीन-नवीन पुरुषार्थ करके पृथिवी के राज्य में सब पदार्थों से उपकारों को ग्रहण करें ॥८॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी- चक्रवर्त्ति राज्य ऋग्वेद के मन्त्र संख्या (०१.०४.०७) में स्पष्ट किया गया है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (अग्ने) कीर्त्ति और उत्साह के प्राप्त करानेवाले (त्वम्) परमेश्वर के उपासक तुम ! (स्तवानः+सन्) वह जो स्तुति करते हुए (नः) हमारे (धनानाम्) विद्या, सुवर्ण और चक्रवर्त्ति राज्य के प्रसिद्ध धनों के (सनये) यथायोग्य कार्यों में व्यय करने के लिये (यशसम्) कीर्त्तियुक्त (कारुम्) मनुष्य को उत्साह से उत्तम कर्म कराने वाला उद्योगी (कृणुहि) बनाइये। (यतः) जिससे (वयम्) हम लोग, (पुरुषार्थिनः) पुरुषार्थी (भूत्वा) होकर (नवेन) नवीन (अपसा) पुरुषार्थ कर्मों के (सह) साथ (कर्म) कर्म (कृत्वा) करके (ऋध्याम) बढ़ायें। (विद्याप्राप्तये) विद्या की प्राप्ति के लिये (देवैः) विद्वानों के (सह) साथ (युवाम्) आप दोनों (नः) हम (द्यावापृथिवी) भूमि और सूर्य के प्रकाश की (च) भी (प्रावतम्) नित्य रक्षा कीजिये॥८॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) जगदीश्वरोपासकः (नः) अस्माकम् (अग्ने) कीर्त्युत्साहप्रापक (सनये) संविभागाय (धनानाम्) विद्यासुवर्णचक्रवर्त्तिराज्यप्रसिद्धानाम् (यशसम्) यशांसि कीर्त्तियुक्तानि कर्माणि विद्यन्ते यस्य तम् (कारुम्) य उत्साहेनोत्तमानि कर्माणि करोति तम् (कृणुहि) कुरु। अत्र उतश्च प्रत्ययाच्छन्दो वा वचनम्। (अष्टा०६.४.१०६) अनेन वार्तिकेन हेर्लुक् न। (स्तवानः) यः स्तौति सः (ऋध्याम) वर्द्धेम (कर्म) क्रियमाणमीप्सितम् (अपसा) पुरुषार्थयुक्तेन कर्मणा सह। अप इति कर्मनामसु पठितम् । (निघं०२.१) (नवेन) नूतनेन। नवेति नवनामसु पठितम् । (निघं०३.२८) (देवैः) विद्वद्भिः सह (द्यावापृथिवी) भूमिसूर्यप्रकाशौ (प्र) प्रकृष्टार्थे (प्रावतम्) अवतो रक्षतम् (नः) अस्मान् ॥ ८ ॥
विषयः- पुनस्तदुपासकः प्रजायै कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः- हे अग्ने ! त्वं स्तवानः सन् नोऽस्माकं धनानां सनये संविभागाय यशसं कारुं कृणुहि सम्पादय, यतो वयं पुरुषार्थिनो भूत्वा नवेनापसा सह कर्म कृत्वा ऋध्याम नित्यं वर्द्धेम विद्याप्राप्तये देवैः सह युवां नोऽस्मान् द्यावापृथिवी च प्रावतं नित्यं रक्षतम्॥८॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैरतेदर्थं परमात्मा प्रार्थनीयः। हे जगदीश्वर! भवान् कृपयाऽस्माकं मध्ये सर्वासामुत्तमधनप्रापिकानां शिल्पादिविद्यानां वेदितॄनुत्तमान् विदुषो निर्वर्तय, यतो वयं तैः सह नवीनं पुरुषार्थं कृत्वा पृथिवीराज्यं सर्वेभ्यः पदार्थेभ्य उपकारांश्च गृह्णीयामेति॥८॥
विषय
यशस्वी कर्ता
पदार्थ
१. हे अग्ने ! (स्तवानः) - स्तुति किये जाते हुए (त्वम्) - आप (नः) - हमें (धनानां सनये) - धनों की प्राप्ति के लिए (यशसं कारुम्) - यशस्वी व कलापूर्ण ढङ्ग से कार्यों को करनेवाला (कृणुहि) - बना दीजिए , अर्थात् हम प्रभुस्तवन करनेवाले बनें , प्रभुस्तवन करते हुए क्रियाशील बनें , प्रत्येक क्रिया को इस प्रकार से करें कि वह हमारे यश का कारण बने । यह यशस्वी कर्म हमारी धन - वृद्धि का कारण तो बनेगा ही ।
2. ऐसा होने पर (अपसा) - इन व्यापक कर्मों के द्वारा (नवेन) - [नु स्तुतौ , नवः स्तुति] स्तुति के द्वारा तथा (देवैः) - दिव्यगुणों के द्वारा (नः) हमें (द्यावापृथिवी) - मस्तिष्क व शरीर (प्रावतम्) - उत्तमता से रक्षित करनेवाले हों । 'मस्तिष्क' ज्ञान के द्वारा हमारा रक्षण करे तो 'शरीर' शक्ति के द्वारा हमें सुरक्षित करे , अर्थात् प्रभुकृपा से हमारे हाथों में कर्म हो , हृदय में प्रभुस्तवन हो , जीवन में दिव्यगुण हों और हमारे मस्तिष्क व शरीर क्रमशः ज्ञान व शक्ति से युक्त होकर हमें नाश से बचाएँ और अमृतत्व की ओर ले - चलें ।
भावार्थ
भावार्थ - हम यशस्वीकर्ता बनकर धनलाभ करें , क्रियाशीलता को बढ़ाएँ तथा कर्म , स्तवन व दिव्यता के धारण द्वारा व शक्ति को अपना रक्षक बनाएँ ।
विषय
सर्वेश्वर्यंप्रद, ज्ञानप्रद पिता, और कवच के समान रक्षक
भावार्थ
हे (अग्ने) तेजस्विन्! ज्ञानवन्! परमेश्वर! राजन्! (स्तवानः) तू स्वयं स्तुति किया जाकर, उच्च आसन पर प्रस्तुत होकर, अथवा सबको उपदेश या शासन करता हुआ (नः) हमें (धनानां) नाना धनों, ऐश्वर्यों के प्रदान और उत्तम विभाग के लिये (यशसम्) यशस्वी (कारुम्) उत्तम कार्यकर्त्ता, शिल्पी, कर्मशील पुरुष को (कृणुहि) नियुक्त कर। अथवा—हममें से (कारुं यशसं कृणुहि) कर्मण्य शिल्पवान् पुरुप को यशस्वी बना। और हम (नवेन) सदा नवीन नये २ (अपसा) प्रयत्न और उत्साह से (कर्म) अपने अभिलषित कर्म या उद्देश्य को (ऋध्याम) बढ़ावें और अधिक सम्पन्न, अधिक फलदायक बनावें। (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी, स्त्री और पुरुष, एवं राजा प्रजा वर्ग दोनों (देवैः) अग्नि आदि दिव्य पदार्थ और दानशील, एवं विजयशील और निरीक्षक अधिकारी और ज्ञानी, धनाढ्य पुरुषों द्वारा (नः) हमें (प्र अवतम्) भली प्रकार रक्षा करें, पुष्ट करें। राजा ऐश्वर्यों की वृद्धि के लिये उत्तम शिल्पियों को बढ़ावे। जिससे प्रजा अधिक उत्पादक श्रम करें। राजा प्रजा वर्ग उत्तम रक्षकों और रक्षासाधनों से प्रजा को भूखों मरने और आधि व्याधियों से पीड़ित होने से बचायें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आंङ्गिरस ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ १–७, ९–१५, १७ जगत्यः । ८, १६, १८ त्रिष्टुभः । अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी परमेश्वराची या प्रकारे प्रार्थना केली पाहिजे की हे परमेश्वरा! कृपा करून आमच्यामध्ये उत्तम धन देणाऱ्या व शिल्पविद्या जाणणाऱ्या विद्वानांना नियुक्त कर. ज्यामुळे आम्ही त्यांच्याबरोबर नवनवीन पुरुषार्थ करून पृथ्वीचे राज्य व सर्व पदार्थांचा यथायोग्य उपयोग करून घ्यावा. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord giver of honour, sung and celebrated in hymns, for the management and growth of our wealth, give us a reputed expert of economy so that we may advance and prosper with new enterprises, and both heaven and earth may promote us with the blessings of nature and the environment.
Subject of the mantra
Then, how should be the worshiper of God be for the public? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (agne)= recipients of fame and enthusiasm, (tvam)=you worshipers of god, (stavānaḥ+san)=one who praises, (naḥ)=our, (dhanānām) Vidya, gold and Chakravarti are the names of the famous wealth of the state, (sanaye)=to spend on deserving works, (yaśasam)=glorified, (kārum)= industrialist who incourages man for doing excellent work,(kṛṇuhi)=make, (yataḥ)=by which, (bhūtvā)=being, (navena)=new, (apasā)=of effortful deeds, (saha)=with,(karma)=deeds, (kṛtvā)=performing, (ṛdhyāma)=enhance, (vidyāprāptaye)=for attaining vidya, (devaiḥ)=of scholars, (saha)=with, (yuvām)=both of you, (naḥ)=our, (dyāvāpṛthivī)=of land and sunlight (ca)=also, (prāvatam)=always protect.
English Translation (K.K.V.)
O you worshipers of the God, who brings fame and enthusiasm! The one, who praises our knowledge, gold and Chakravarti kingdom to spend the famous wealth of the kingdom in the deserving works, make a person of fame, with enthusiasm, an effortful to do good deeds. So that we people become effort-makers and enhance them by performing actions with new effortful deeds. For the attainment of knowledge, along with the scholars, you both protect the land and the light of the Sun.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Therefore, human beings should pray to God- “O God! You kindly bring amongst us all the richest of the wealth, the learned scholars of craftsmanship. Because by making new efforts with them, we should accept help from all things in the kingdom of the earth.”
TRANSLATOR’S NOTES-
The Chakravarti state has been explained in the Rigveda's mantra number (01.04.07).
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is God's devotee for the people is taught in the 8th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O devotee of God, augmenter of fame and zeal, glorifying God, you should render illustrious and performer of good actions enthusiastically, every man among us for the proper and just distribution of wealth in the form of knowledge, gold and vast but good government, so that being industrious, we may grow with new enterprises along with enlightened persons, for the acquisition of knowledge, preserve and guard us and both the earth and the light of the sun.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( सनये ) संविभागाय = For good, proper or just distribution. (कारुम) यः उत्साहेन उत्तमानि कर्माणि करोति तम् = Performer of noble deeds with zeal. (अपसा) पुरुषार्थयुक्तेन कर्मणा सह = With an act done enthusiastically. अप इति कर्मनामसु पठितम् (निघ० २.१ ( द्यावापृथिवी) भूमिसूर्यप्रकाशौ = The earth and the light of the sun. ( धनानाम् ) विद्यासुवर्ण चक्रवर्तिराज्यप्रसिद्धानाम् = Of the wealth of various kinds consisting of knowledge gold and good and vast government.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should pray in the following manner:- O God, create among us such noble learned persons who are the knowers of all arts and sciences that lead to good wealth, so that we may be able to establish an admirable administration on earth by undertaking new enterprises and taking benefit from all substances.
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