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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - निषादः

    त्वम॑ग्ने प्रथ॒मो मा॑त॒रिश्व॑न आ॒विर्भ॑व सुक्रतू॒या वि॒वस्व॑ते। अरे॑जेतां॒ रोद॑सी होतृ॒वूर्येऽस॑घ्नोर्भा॒रमय॑जो म॒हो व॑सो ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ग्ने॒ । प्र॒थ॒मः । मा॒त॒रिश्व॑ने । आ॒विः । भ॒व॒ । सु॒क्र॒तू॒ऽया । वि॒वस्व॑ते । अरे॑जेताम् । रोद॑सी॒ इति॑ । हो॒तृ॒ऽवूर्ये॑ । अस॑घ्नोः । भा॒रम् । अय॑जः । म॒हः । व॒सो॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने प्रथमो मातरिश्वन आविर्भव सुक्रतूया विवस्वते। अरेजेतां रोदसी होतृवूर्येऽसघ्नोर्भारमयजो महो वसो ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। प्रथमः। मातरिश्वने। आविः। भव। सुक्रतूऽया। विवस्वते। अरेजेताम्। रोदसी इति। होतृऽवूर्ये। असघ्नोः। भारम्। अयजः। महः। वसो इति ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने जगदीश्वर विद्वन् वा ! प्रथमस्त्वं येन सुक्रतूया मातरिश्वना होतृवूर्ये रोदसी द्यावापृथिव्यावरेजेतां तस्मै मातरिश्वने विवस्वते चाविर्भवैतौ प्रकटीभावय। हे वसो ! याभ्यां महो भारमयजो यजसि तौ नो बोधय ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) ईश्वरः सभाध्यक्षो वा (अग्ने) विज्ञापक (प्रथमः) कारणरूपेणाऽनादिर्वा कार्य्येष्वादिमः (मातरिश्वने) यो मातर्याकाशे श्वसिति सोऽयं मातरिश्वा वायुस्तत्प्रकाशाय (आविः) प्रसिद्धार्थे (भव) भावय (सुक्रतूया) शोभनः क्रतुः प्रज्ञाकर्म वा यस्मात् तेन। अत्र सुपां सुलुग्० इति याडादेशः। (विवस्वते) सूर्यलोकाय (अरेजेताम्) चलतः। भ्यसते रेजत इति भयवेपनयोः। (निरु०३.२१) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ। रोदसी इति द्यावापृथिवीनामसु पठितम् । (निघं०३.३०) (होतृवूर्ये) होतॄणां स्वीकर्त्तव्ये। अत्र वॄ वरणे इत्यस्माद्बाहुलकादौणादिकः क्यप् प्रत्ययः। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। (अष्टा०७.१.१०२) इत्यॄकारस्योकारः। हलि च इति दीर्घश्च। (असघ्नोः) हिंस्याः (भारम्) (अयजः) सङ्गमयसि (महः) महान्तम् (वसो) वासयति सर्वान् यस्तत्सम्बुद्धौ ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    कारणरूपोऽग्निः स्वकारणाद् वायुनिमित्तेन सूर्याकृतिर्भूत्वा तमो हत्त्वा पृथिवीप्रकाशौ धरति, स यज्ञशिल्पहेतुर्भूत्वा कलायन्त्रेषु प्रयोजितः सन् महाभारयुक्तान्यपि यानानि सद्यो गमयतीति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे दोनों कैसे हैं, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) परमात्मन् वा विद्वन् ! (प्रथमः) अनादिस्वरूप वा समस्त कार्यों में अग्रगन्ता (त्वम्) आप जिस (सुक्रतूया) श्रेष्ठ बुद्धि और कर्मों को सिद्ध करानेवाले पवन से (होतृवूर्ये) होताओं को ग्रहण करने योग्य (रोदसी) विद्युत् और पृथिवी (अरेजेताम्) अपनी कक्षा में घूमा करते हैं, उस (मातरिश्वने) अपनी आकाश रूपी माता में सोनेवाले पवन वा (विवस्वते) सूर्यलोक के लिये उनको (आविः भव) प्रकट कराइये । हे (वसो) सबको निवास करानेहारे ! आप शत्रुओं का (असघ्नोः) विनाश कीजिये, जिनसे (महः) बड़े-बड़े (भारम्) भारयुक्त यान को (अयजः) देश-देशान्तर में पहुँचाते हो, उनका बोध हमको कराइये ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    कारणरूप अग्नि अपने कारण और वायु के निमित्त से सूर्य रूप से प्रसिद्ध तथा अन्धकार विनाश करके पृथिवी वा प्रकाश का धारण करता है, वह यज्ञ वा शिल्पविद्या के निमित्त से कलायन्त्रों में संयुक्त किया हुआ बड़े-बड़े भारयुक्त विमान आदि यानों को शीघ्र ही देश-देशान्तर में पहुँचाता है ॥ ३ ॥

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    विषय

    फिर वे दोनों कैसे हैं, यह उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अग्ने जगदीश्वर विद्वन् वा ! प्रथमः त्वं येन सुक्रतूया मातरिश्वना होतृवूर्ये रोदसी द्यावापृथिव्यौ अरेजेतां तस्मै मातरिश्वने विवस्वते च आविः भव एतौ प्रकटीभावय। हे वसो ! याभ्यां महः भारम् अयजः यजसि तौ नो बोधय ॥३॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विज्ञापक=विशेष ज्ञान का दाता, (जगदीश्वर) जगदीश्वर=परमात्मा (वा)=या (विद्वन्)= विद्वान् ! (प्रथमः) कारणरूपेणाऽनादिर्वा कार्य्येष्वादिमः=कारणरूप से अनादिस्वरूप वा समस्त कार्यों में अग्रगन्ता,  (त्वम्) ईश्वरः सभाध्यक्षो वा=आप ईश्वर या सभाध्यक्ष, (येन)=जिससे,  (सुक्रतूया) शोभनः क्रतुः प्रज्ञाकर्म वा यस्मात् तेन=श्रेष्ठ बुद्धि और कर्मों को सिद्ध करानेवाले (मातरिश्वना) यो मातर्याकाशे श्वसिति सोऽयं मातरिश्वा वायुस्तत्प्रकाशाय=अपनी आकाश रूपी माता में सोनेवाले पवन वा, (होतृवूर्ये) होतॄणां स्वीकर्त्तव्ये=होताओं के द्वारा ग्रहण करने योग्य, (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ=विद्युत् और पृथिवी, (अरेजेताम्) चलतः=अपनी कक्षा में घूमा करते हैं, (तस्मै)=उस, (मातरिश्वना) यो मातर्याकाशे श्वसिति सोऽयं मातरिश्वा वायुस्तत्प्रकाशाय=अपनी आकाश रूपी माता में सोनेवाले पवन वा, (विवस्वते) सूर्यलोकाय=सूर्यलोक के लिये उनको, (च)=भी, (आविः) प्रसिद्धार्थे=प्रकट, (भव)=कराइये, (एतौ)=ये दोनों, (प्रकटीभावय)=प्रकट हों, हे  (वसो) वासयति सर्वान् यस्तत्सम्बुद्धौ=सबको निवास करानेवाले ! (याभ्याम्)=जो, (महः) महान्तम्= बड़े-बड़े से, (भारम्) (अयजः) सङ्गमयसि=भारयुक्त यान को, (तौ)=उन दोनों का, (नः)=हमें, (बोधय)=बोध कराइये ॥ ३ ॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    कारणरूप अग्नि अपने कारण और वायु के निमित्त से सूर्य रूप से प्रसिद्ध होकर और अन्धकार विनाश करके पृथिवी और प्रकाश को धारण करता है। वह यज्ञ और शिल्पविद्या का निमित्त होकर कलायन्त्रों में प्रयोग होता हुआ बड़े-बड़े भार से युक्त यानों आदि को शीघ्र ही ले जाता है ॥३॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अग्ने) विशेष ज्ञान के दाता  (जगदीश्वर) परमात्मा (वा) या (विद्वन्) विद्वान् ! (प्रथमः) कारणरूप से अनादिस्वरूप वा समस्त कार्यों में अग्रगन्ता (त्वम्) आप ईश्वर या सभाध्यक्ष (येन) जिससे  (सुक्रतूया) श्रेष्ठ बुद्धि और कर्मों को सिद्ध करानेवाले (मातरिश्वना) अपनी आकाश रूपी माता में सोनेवाले पवन या (होतृवूर्ये) होताओं के द्वारा ग्रहण करने योग्य (रोदसी) विद्युत् और पृथिवी (अरेजेताम्) अपनी कक्षा में घूमा करते हैं। (तस्मै) उस (मातरिश्वना) अपनी आकाश रूपी माता में सोने वाले पवन या (विवस्वते) सूर्यलोक के लिये उनको (च) भी (आविः) प्रकट (भव) कराइये। (एतौ) ये दोनों (प्रकटीभावय) प्रकट हों।  हे  (वसो) सबको निवास करानेवाले! (याभ्याम्) जो (महः) बड़े-बड़े (भारम्) भारयुक्त यान  हैं, (तौ) उन दोनों का (नः) हमें (बोधय) बोध कराइये॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) ईश्वरः सभाध्यक्षो वा (अग्ने) विज्ञापक (प्रथमः) कारणरूपेणाऽनादिर्वा कार्य्येष्वादिमः (मातरिश्वने) यो मातर्याकाशे श्वसिति सोऽयं मातरिश्वा वायुस्तत्प्रकाशाय (आविः) प्रसिद्धार्थे (भव) भावय (सुक्रतूया) शोभनः क्रतुः प्रज्ञाकर्म वा यस्मात् तेन। अत्र सुपां सुलुग्० इति याडादेशः। (विवस्वते) सूर्यलोकाय (अरेजेताम्) चलतः। भ्यसते रेजत इति भयवेपनयोः। (निरु०३.२१) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ। रोदसी इति द्यावापृथिवीनामसु पठितम् । (निघं०३.३०) (होतृवूर्ये) होतॄणां स्वीकर्त्तव्ये। अत्र वॄ वरणे इत्यस्माद्बाहुलकादौणादिकः क्यप् प्रत्ययः। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। (अष्टा०७.१.१०२) इत्यॄकारस्योकारः। हलि च इति दीर्घश्च। (असघ्नोः) हिंस्याः (भारम्) (अयजः) सङ्गमयसि (महः) महान्तम् (वसो) वासयति सर्वान् यस्तत्सम्बुद्धौ ॥ ३ ॥
    विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः- हे अग्ने जगदीश्वर विद्वन् वा ! प्रथमस्त्वं येन सुक्रतूया मातरिश्वना होतृवूर्ये रोदसी द्यावापृथिव्यावरेजेतां तस्मै मातरिश्वने विवस्वते चाविर्भवैतौ प्रकटीभावय। हे वसो ! याभ्यां महो भारमयजो यजसि तौ नो बोधय ॥३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- कारणरूपोऽग्निः स्वकारणाद् वायुनिमित्तेन सूर्याकृतिर्भूत्वा तमो हत्त्वा पृथिवीप्रकाशौ धरति, स यज्ञशिल्पहेतुर्भूत्वा कलायन्त्रेषु प्रयोजितः सन् महाभारयुक्तान्यपि यानानि सद्यो गमयतीति ॥ ३ ॥
     

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    विषय

    प्रभु का प्रादुर्भाव

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - अग्रणी प्रभो! (त्वं प्रथमः) - आप विस्तारवाले हो तथा सर्वप्रथम हो । आप (विवस्वते) - परिचर्यावाले के लिए अथवा ज्ञान की रश्मियोंवाले के लिए (सुक्रतूया) - उत्तम कर्मों की प्रबल इच्छा से (मातरिश्वनः) - वायु के द्वारा - प्राणसाधना के द्वारा (आविर्भव) - प्रकट होते हो , अर्थात् प्रभु का दर्शन विवस्वान् , सुक्रतु तथा प्राणसाधक' को होता है । प्रभु - दर्शन के लिए परिचर्या [भक्ति] व ज्ञान आवश्यक हैं [विवसु] , प्रभु - दर्शन के लिए उत्तम कर्मों व संकल्पों का होना अनिवार्य है [सुक्रतु] तथा इस प्रभु से मेल के लिए प्राणसाधना आवश्यक है 

    २. प्रभु से मेल होने पर (रोदसी) - द्युलोक व पृथिवीलोक (अरेजेताम्) - [रेज् to shine] चमक उठते हैं । शरीर [पृथिवी] यदि स्वास्थ्य की दीप्ति से चमक उठता है तो मस्तिष्क ज्ञान की दीप्ति से चमक उठता है । [यहाँ रेज् धातु का 'चमकना' अर्थ लेना है , कॉपना नहीं] । हे प्रभो ! आप (होतृवूर्ये) - होता से वरण किये जाने पर (भारम्) - कार्यभार को (असघ्नोः) - [सघ् to accept , to bear] स्वीकार करते हो और बर्दाश्त करते हो और (अयजः) - उस - उस यज्ञ को पूर्ण करते हो । (महो) - आप महनीय हो , पूज्य हो तथा तेज के पुञ्ज हो । (वसो) - आप निवास के लिए आवश्यक सब तत्त्वों के देनेवाले हो । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम परिचर्या , उत्तम कर्म तथा प्राणसाधना के द्वारा प्रभु - दर्शन करें । प्रभु - दर्शन से हमारा शरीर स्वस्थ होगा तो मस्तिष्क ज्योति से चमक उठेगा । वस्तुतः भक्त के सब कार्य प्रभु ही पूर्ण किया करते हैं - सब यज्ञ आप से ही होते हैं - सर्वमहान् होता आप ही हैं । आप ही पूज्य हैं , सर्वप्रद हैं । 

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    विषय

    ईश्वर का महान् सामर्थ्य

    भावार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्विन्! परमेश्वर! (त्वम्) तू (मातरिश्वने) अन्तरिक्ष में गतिशील वायु तत्व के भी (प्रथमः) प्रथम विद्यमान होकर, ( विवस्वते ) विविध प्रजाओं और लोकों में व्यापक, और उनको बसाने, धारण करने वाले सूर्य की ज्योति के भी पूर्व (सुक्रतूया) सबसे उत्तम कृति या प्रज्ञा या संकल्प रूप में (आविः भव) प्रक्ट होता है। अर्थात् सूक्ष्म, अग्नि वायु आदि तत्वों की सृष्टि के भी पूर्व परमेश्वर के काम, संकल्प इच्छा या प्रकृति रूप में प्रकट होता है। सुक्रतु प्रकृति। काम, संकल्प, इच्छा अर्थात् 'सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय' इत्यादि ऐत० उपनिषद्। (होतृवूर्ये) सबको अपने भीतर से प्रकट करने और उनको अपने भीतर ले लेने वाले, उत्पादक और प्रलयकारी होता परमेश्वर से वरण करने या संविभाग करने योग्य (रोदसी) द्यौ और पृथिवी दोनों उसी के संकल्प से (अरेजेताम्) कांपती हैं अर्थात् उसीके संकल्प से भोग्यभोक्ता और जीव प्रकृति में प्रथम स्पन्द उत्पन्न हुआ। हे परमेश्वर तू ही (भारम्) सब जीवों और लोकों के भरण पोषण के कार्य को भी (असध्नोः) धारण करता है। हे (वसो) सबको बसाने और सब में बसनेवाले परमेश्वर! तू ही (महः) बड़े सूक्ष्म सूक्ष्म तत्वों को (अयजः) संगत करता है। राजा और विद्वान् के पक्ष में—(मातरिश्वनः प्रथमः) पृथ्वीपर वेग से आक्रमण करने वाले क्षात्रबल और (विवस्वते) विविध प्रजा के स्वामी वैश्य दोनों में (सुक्रतूया प्रथमः आविर्भव) उत्तम कर्म और प्रजा से सर्वश्रेष्ठ होकर रह। (रोदसी) राजा प्रजावर्ग दोनों तेरे से कांपें। होता पुरोहित द्वारा प्रदत्त राजपद पर (भारम् असध्नोः) समस्त राज्यभार को सहन कर। हे (वसो) राजन्! तू (महः अयजः) अपने से बड़ों का आदर और सत्संग कर। भौतिक अग्नि वायु से पूर्व सूर्य रूप से है। वही महान् यन्त्रों को चलाती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आंङ्गिरस ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ १–७, ९–१५, १७ जगत्यः । ८, १६, १८ त्रिष्टुभः । अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कारणरूपी अग्नी आपले कारण व वायूच्या निमित्ताने सूर्यरूप बनतो व अंधःकार नष्ट करतो. तसेच पृथ्वी व प्रकाशाला धारण करतो. तो शिल्पविद्येच्या निमित्ताने कलायंत्रात संयुक्त केलेला असून, मोठमोठ्या भारयुक्त विमान इत्यादी यानांना तात्काळ देशदेशान्तरी पोहोचवितो. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of light and knowledge, you are the first of existence and eternal wakeful presence. By your yajnic vibration of divine intention you manifest for the creation of Matarishva, universal energy of nature, and Vivasvan, the refulgent sun. By the same cause, the all- containing heaven and the generous earth, all productive, come into existence, move and shine. Haven and home of all, immanent power, bear the burden and create the mighty and subtle knowledge of the super power for us.

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    Subject of the mantra

    Then, how are both of them? This has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)=provider of special knowledge, (jagadīśvara)=God, (vā)=or, (vidvan)=scholar, (prathamaḥ)= eternal due to reason or pioneer in all works, (tvam)=You God or Speaker of the Assembly, (yena)=whereby, (sukratūyā)=One who accomplishes superior intellect and deeds, (mātariśvanā)=the wind that sleeps in its sky mother or, (hotṛvūrye)=acceptable by those guides of yajan, (rodasī)=electricity and earth, (arejetām)=move around in their orbits, (tasmai)=that, (mātariśvanā)=the wind that sleeps in its sky mother or (vivasvate)= for the Sun-world, to them, (ca)=also, (āviḥ+ bhava)=reveal, (etau)=both of these, (prakaṭībhāvaya)= visible, He=O! (vaso)=all-inhabitant, (yābhyām)=those, (mahaḥ)=like huge ones, (bhāram)=loaded vehicles are, (tau)=of both of them, (naḥ)=to us, (bodhaya)= make us understand.

    English Translation (K.K.V.)

    O provider of special knowledge, the God or the scholar! Eternal due to reason or pioneer in all works, You God or Speaker of the assembly! By which those who accomplish their superior intellect and deeds, move in their orbit the electricity and the earth, which are acceptable to them by the air or guides of yajan. Those sleep in the lap of their mother in the form of heaven. Make them manifest for the air or the Sun-world that sleeps in the lap of your mother in the form of sky. May both of them be visible. O abode of all! Which are those large loaded vehicles, make us understand both of them.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The causal fire, becoming famous as the Sun by its cause and the cause of the wind and destroying the darkness, acquires the earth and the light. That being the instrument of sacrifice and craftsmanship, being combined in the instruments of the crafts, that quickly takes away the vehicles, etc., carrying huge loads.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they is taught further in the 3rd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) O Omniscient God, Thou art eternal and it is under Thy direction, that the air which enables us to do many noble deeds causes the movement of the earth and the heaven which are accepted as good by all performers of the Yajnas (nonviolent sacrifices). Reveal to us the knowledge of the air and the sun. O Support of the Universe, enlighten us about the real nature of these two (the air and the sun) by which Thou upholdest the great burden of the heaven and the earth and dost not allow us to suffer.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मातरिश्वने) यो मातरि आकाशे श्वसिति सोऽयं मातरिश्वा वायुस्तस्मै = For the air. ( सुक्रतुया ) शोभन: ऋतुः प्रज्ञा कर्म वा यस्मात् तेन । अत्र सुपां सुलुक् इति याडादेशः = Which enables us to do noble deeds. (विवस्वते सूर्यलोकाय = For the solar world.(अयजः) संगमयसि = Thou Unifiest. (वसो) वासयति सर्वान् यस्तत्सम्बुद्धौ । = The Support of all.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the Agni (fire) in the subtlest causal form that takes the form of the sun and dispels darkness and thus upholds the earth and the shining worlds. Being the cause of the Yajna and industries, when used methodically in the machines, it moves the heavy vehicles rapidly.

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