ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 14
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
त्वम॑ग्न उरु॒शंसा॑य वा॒घते॑ स्पा॒र्हं यद्रेक्णः॑ पर॒मं व॒नोषि॒ तत्। आ॒ध्रस्य॑ चि॒त्प्रम॑तिरुच्यसे पि॒ता प्र पाकं॒ शास्सि॒ प्र दिशो॑ वि॒दुष्ट॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒ग्ने॒ । उ॒रु॒ऽशंसा॑य । वा॒घते॑ । स्पा॒र्हम् । यत् । रेक्णः॑ । प॒र॒मम् । व॒नोषि॑ । तत् । आ॒ध्रस्य॑ । चि॒त् । प्रऽम॑तिः । उ॒च्य॒से॒ । पि॒ता । प्र । पाक॑म् । शास्सि॑ । प्र । दिशः॑ । वि॒दुःऽट॑रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमग्न उरुशंसाय वाघते स्पार्हं यद्रेक्णः परमं वनोषि तत्। आध्रस्य चित्प्रमतिरुच्यसे पिता प्र पाकं शास्सि प्र दिशो विदुष्टरः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। अग्ने। उरुऽशंसाय। वाघते। स्पार्हम्। यत्। रेक्णः। परमम्। वनोषि। तत्। आध्रस्य। चित्। प्रऽमतिः। उच्यसे। पिता। प्र। पाकम्। शास्सि। प्र। दिशः। विदुःऽटरः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 14
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स एवोपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे अग्ने विज्ञानयुक्त न्यायाधीश ! यद् यतः प्रमतिर्विदुष्टरस्त्वमुरुशंसाय वाघते स्पार्हं परमं रेक्णो धनं पाकं दिश उपदेशकाँश्च वनोषि धर्मेणाध्रस्य सर्वान् पिता चिदिव प्रशास्सि तस्मात् सर्वैर्मान्यार्होऽसि ॥ १४ ॥
पदार्थः
(त्वम्) प्रजाप्रशासिता (अग्ने) विज्ञानस्वरूप (उरुशंसाय) उरुर्बहुविधः शंसः स्तुतिर्यस्य तस्मै (वाघते) वाक् हन्यते ज्ञायते येन तस्मै विदुष ऋत्विजे मनुष्याय। वाघत इत्यृत्विङ्नामसु पठितम् । (निघं०३.१८) (स्पार्हम्) स्पृहा वाञ्छा तस्या इदं स्पार्हम् (यत्) यस्मात् (रेक्णः) धनम् । रेक्ण इति धननामसु पठितम् । (निघं०२.१०) रिचेर्धने घिच्च। (उणा०४.१९९) अनेन रिच्धातोर्धनेऽर्थेऽसुन् प्रत्ययः स च घिन्नुडागमश्च। (परमम्) अत्युत्तमम् (वनोषि) याचसे (तत्) धनम् (आध्रस्य) समन्ताद् ध्रियमाणस्य राज्यस्य। अत्र आङपूर्वाद्धाञ् धातोर्बाहुलकादौणादिको रक् प्रत्यय आकारलोपश्च। (चित्) इव (प्रमतिः) प्रकृष्टा मतिर्ज्ञानं यस्य सः (उच्यसे) परिभाष्यसे (पिता) पालकः (प्र) प्रकृष्टार्थे (पाकम्) पचन्ति परिपक्वं ज्ञानं कुर्वन्ति यस्मिन् धर्म्ये व्यवहारे तम् (शास्सि) उपदिशसि (प्र) प्रशंसायाम् (दिशः) ये दिशन्त्युपसृजन्ति सदाचारं तानाप्तान् (विदुष्टरः) यो विविधानि दुरिष्टानि तारयति प्लावयति सः ॥ १४ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा पिता स्वसन्तानस्य पालन-धनदान-धारण-शिक्षां करोति, तथैव राजा सर्वस्याः प्रजाया पालकत्वाज्जीवेभ्यः सर्वेषां धनानां सम्यग्विभागेन तेषां कर्मानुसारात् सुखदुःखानि प्रदद्यात् ॥ १४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में भी उसी अर्थ का प्रकाश किया है ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विज्ञानप्रिय न्यायकारिन् ! (यत्) जिस कारण (प्रमतिः) उत्तमज्ञानयुक्त (विदुष्टरः) नाना प्रकार के दुःखों से तारनेवाले आप (उरुशंसाय) बहुत प्रकार की स्तुति करनेवाले (वाघते) ऋत्विक् मनुष्य के लिये (स्पार्हम्) चाहने योग्य (परमम्) अत्युत्तम (रेक्णः) धन (पाकम्) पवित्रधर्म और (दिशः) उत्तम विद्वानों को (वनोषि) अच्छे प्रकार चाहते हैं और राज्य को धर्म से (आध्रस्य) धारण किये हुए (पिता) पिता के (चित्) तुल्य सबको (प्र शास्सि) शिक्षा करते हैं, (तत्) इसी से आप सब के माननीय हैं ॥ १४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पिता अपने सन्तानों की पालना वा उनको धन देता वा शिक्षा आदि करता है, वैसे राजा सब प्रजा के धारण करने और सब जीवों को धन के यथायोग्य देने से उनके कर्मों के अनुसार सुख दुःख देता है ॥ १४ ॥
विषय
इस मन्त्र में भी उसी अर्थ का प्रकाश किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे अग्ने विज्ञानयुक्त न्यायाधीश ! यद् यतः प्रमतिः विदुष्टरः उरुशंसाय वाघते स्पार्ह परमं रेक्णः धनं पाकं दिशः उपदेशकान् च वनोषि धर्मेण आध्रस्य सर्वान् पिता चित् इव प्रशास्सि तस्मात् सर्वैः मान्यार्ह असि ॥ १४ ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विज्ञानयुक्त न्यायाधीश=विशेष ज्ञान से युक्त न्यायाधीश ! (यत्) यस्मात्=जिस कारण से, (प्रमतिः) प्रकृष्टा मतिर्ज्ञानं यस्य सः=उत्तम ज्ञान से युक्त, (विदुष्टरः) यो विविधानि दुरिष्टानि तारयति प्लावयति सः=जो नाना प्रकार के दुःखों से तारनेवाले हैं, (उरुशंसाय) उरुर्बहुविधः शंसः स्तुतिर्यस्य तस्मै=बहुत प्रकार की स्तुति जिनकी हैं, उनके लिए, (वाघते) वाक् हन्यते ज्ञायते येन तस्मै विदुष ऋत्विजे मनुष्याय=उस ऋत्विक् मनुष्य के लिये जिससे वाणी जानी जाता है, (स्पार्हम्) स्पृहा वाञ्छा तस्या इदं स्पार्हम्=इच्छित, (परमम्) अत्युत्तमम्=अति उत्तम, (रेक्णः) धनम्=धन को, (पाकम्) पचन्ति परिपक्वं ज्ञानं कुर्वन्ति यस्मिन् धर्म्ये व्यवहारे तम्=जिस धर्म में ज्ञान को परिपक्व करते हैं, (दिशः) ये दिशन्त्युपसृजन्ति सदाचारं तानाप्तान्=जो आप्त सदाचार अपनाते हैं, उनको (च)=और, (उपदेशकान्)=उपदेशकों को, (वनोषि) याचसे= याचना करते हो और (धर्मेण)=धर्म से, (आध्रस्य) समन्ताद् ध्रियमाणस्य राज्यस्य=हर ओर से राज्य को धारण किये हुए, (सर्वान्)=सब के, (पिता)=पिता, (चित्) इव=समान, (प्र) प्रकृष्टार्थे=अच्छे प्रकार से, (शास्सि) उपदिशसि=शिक्षा देते हो, (तस्मात्)=इसलिये, (सर्वैः)= सब, (मान्यार्ह)=माननीय (असि) हो॥१४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पिता अपने सन्तानों का पालन, उनको धन देता और शिक्षा करता है, वैसे ही राजा सबका और प्रजा के पालन से जीवों के लिए समस्त धनों के अच्छी तरह बंटवारे से उनको कर्म के अनुसार सुख दुःख प्रदान करता है ॥ १४ ॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (अग्ने) विशेष ज्ञान से युक्त न्यायाधीश ! (यत्) जिस कारण से (प्रमतिः) उत्तम ज्ञान से युक्त (विदुष्टरः) जो विविध प्रकार के दुःखों से तारनेवाले हैं, (उरुशंसाय) बहुत प्रकार की जिनकी स्तुति हैं, उनके लिए [और] (वाघते) उस ऋत्विक् मनुष्य के लिये जिससे वाणी जानी जाती है, (स्पार्हम्) इच्छित (परमम्) परम (रेक्णः) धन को (पाकम्) जिस धर्म में ज्ञान को परिपक्व करते हैं, (दिशः) जो आप्त सदाचार अपनाते हैं। उनको (च) और (उपदेशकान्) उपदेशकों को, (वनोषि) याचना करते हो और (धर्मेण) धर्म से (आध्रस्य) हर ओर से राज्य को धारण किये हुए, (सर्वान्) सब के (पिता) रक्षक के (चित्) समान (प्र) अच्छे प्रकार से (शास्सि) शिक्षा देते हो, (तस्मात्) इसलिये (सर्वैः) सब के (मान्यार्ह) माननीय (असि) हो॥१४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) प्रजाप्रशासिता (अग्ने) विज्ञानस्वरूप (उरुशंसाय) उरुर्बहुविधः शंसः स्तुतिर्यस्य तस्मै (वाघते) वाक् हन्यते ज्ञायते येन तस्मै विदुष ऋत्विजे मनुष्याय। वाघत इत्यृत्विङ्नामसु पठितम् । (निघं०३.१८) (स्पार्हम्) स्पृहा वाञ्छा तस्या इदं स्पार्हम् (यत्) यस्मात् (रेक्णः) धनम् । रेक्ण इति धननामसु पठितम् । (निघं०२.१०) रिचेर्धने घिच्च। (उणा०४.१९९) अनेन रिच्धातोर्धनेऽर्थेऽसुन् प्रत्ययः स च घिन्नुडागमश्च। (परमम्) अत्युत्तमम् (वनोषि) याचसे (तत्) धनम् (आध्रस्य) समन्ताद् ध्रियमाणस्य राज्यस्य। अत्र आङपूर्वाद्धाञ् धातोर्बाहुलकादौणादिको रक् प्रत्यय आकारलोपश्च। (चित्) इव (प्रमतिः) प्रकृष्टा मतिर्ज्ञानं यस्य सः (उच्यसे) परिभाष्यसे (पिता) पालकः (प्र) प्रकृष्टार्थे (पाकम्) पचन्ति परिपक्वं ज्ञानं कुर्वन्ति यस्मिन् धर्म्ये व्यवहारे तम् (शास्सि) उपदिशसि (प्र) प्रशंसायाम् (दिशः) ये दिशन्त्युपसृजन्ति सदाचारं तानाप्तान् (विदुष्टरः) यो विविधानि दुरिष्टानि तारयति प्लावयति सः॥१४॥
विषयः- पुनः स एवोपदिश्यते ॥
अन्वयः- हे अग्ने विज्ञानयुक्त न्यायाधीश ! यद् यतः प्रमतिर्विदुष्टरस्त्वमुरुशंसाय वाघते स्पार्हं परमं रेक्णो धनं पाकं दिश उपदेशकाँश्च वनोषि धर्मेणाध्रस्य सर्वान् पिता चिदिव प्रशास्सि तस्मात् सर्वैर्मान्यार्होऽसि॥१४॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा पिता स्वसन्तानस्य पालन-धनदान-धारण-शिक्षां करोति, तथैव राजा सर्वस्याः प्रजाया पालकत्वाज्जीवेभ्यः सर्वेषां धनानां सम्यग्विभागेन तेषां कर्मानुसारात् सुखदुःखानि प्रदद्यात् ॥ १४ ॥
विषय
उरुशंस
पदार्थ
१. हे (अग्ने) - प्रभो ! (त्वम्) - आप (उरुशंसाय) - खूब ही शंसन व स्तवन करनेवाले (वाघते) - मेधावी , बुद्धिमान् ऋत्विक् पुरुष के लिए (तत्) उस (परमं रेक्णः) - उत्कृष्ट धन को (वनोषि) - प्राप्त कराते हो [जीतते हो] (यत्) - जोकि (स्पार्हम्) - स्पृहणीय है - चाहने योग्य है । प्रभुकृपा से 'स्तोता मेधावी' पुरुष को उत्कृष्ट स्पृहणीय धन प्राप्त होता है ।
२. (आध्रस्य चित्) - आधार देने योग्य निर्बल , निर्धन पुरुष के भी आप (प्रमतिः) - प्रकृष्ट मति देनेवाले (उच्यसे) - कहे जाते हो । इस प्रकृष्ट मति को देकर ही आप (पिता) - इसके रक्षक होते हो । प्रभु सहायता के पात्र व्यक्तियों का सहाय्य करने के लिए उन्हें उत्कृष्ट बुद्धि देते हैं । इस बुद्धि से वे अपनी स्थिति को ठीक कर पाते हैं ।
३.हे प्रभो ! आप 'पिता' हैं । पिता के रूप में (पाकम्) - पक्तव्य प्रज्ञावाले बालकों को भी आप (प्रशास्सि) - प्रकृष्ट ज्ञानोपदेश देते हो ।
४. (विदुष्टरः) - 'अतिशयेन अभिज्ञ' वस्तुतः 'सर्वज्ञ' आप (दिशः) - सब दिशाओं को (प्रशास्सि) - शासित कर रहे हो । सब दिशाओं में स्थित प्राणी आपके शासन में ही हैं , अथवा आप (प्रदिशः) - प्रकृष्ट निर्देशों का अनुशासन करते हो । आपकी प्रेरणाएँ सामान्य न होकर प्रकृष्ट होती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - स्तोता , मेधावी पुरुष को स्पृहणीय धन मिलता है , आधार देने योग्य व्यक्ति को वे बुद्धिरूप आधार देते हैं , बालकों का अनुशासन करते हैं और सब दिशाओं में स्थित प्राणियों का अनुशासन भी उन्हीं से हो ही रहा है ।
विषय
आचार्य के कर्त्तव्य । पक्षान्तर में—देह में स्थित प्रजोत्पादक वीर्य का वर्णन ।
भावार्थ
हे (अग्ने) परमेश्वर! राजन्! विद्वन्! सभाध्यक्ष! (त्वम्) तू (यत्) जब (उरुशंसाय) अति अधिक स्तुतिशील एवं विद्वान् (वाघते) वाणी से स्तुति करने वाले, और वाणी द्वारा ज्ञान प्रदान करने वाले विद्वान् को (तत्) नाना प्रकार के उस (परमम्) परम, सर्वश्रेष्ठ (स्पार्हम्) चाहने योग्य, (रेक्णः) धनैश्वर्य (वनोषि) प्रदान करता है तब तू (प्रमतिः) उत्कृष्ट ज्ञानवान्, होकर (आध्रस्य चित्) सब प्रकार से धारण पोषण योग्य राष्ट्र या दुर्बल दीन प्रजाजन का भी (पिता उच्यसे) पालक पिता ही कहाता है। और तभी (पाकं) परिपक्व ज्ञान का (प्र शास्सि) भली प्रकार उपदेश करता है। और तू (विदुस्तरः) सब विद्वानों में श्रेष्ठ होकर (दिशः प्र शास्सि) प्राची आदि दिशाओं तथा नाना विद्या के उपदेष्टा आचार्यों पर भी शासन करता है, उनसे ऊपर अपना विचार रखता और देता है। अथवा (पाकम्, दिशः प्र शास्सि) बालक के समान विद्वानों को ज्ञान देता है। वीर्यपक्ष में—गृहस्थ को तू ही (स्पार्हं रेक्णः परमम्) प्रेम से उत्पन्न सेचन योग्य उत्तम वीर्य प्रदान करता है। तू (प्रमतिः) अच्छी प्रकार स्तम्भित होकर ही दुर्बल का पालक है। परिपक्व होकर (विदुस्तरः दिशः प्रशास्सि) अति दुःसह, अजेय होकर सब दिशाओं, या इन्द्रियों को अपने वश करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आंङ्गिरस ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ १–७, ९–१५, १७ जगत्यः । ८, १६, १८ त्रिष्टुभः । अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे पिता आपल्या संतानांचे पालन व धारण करून त्यांना धन व शिक्षण देतो, तसे राजाने सर्व प्रजेला धारण व पालन करून सर्व जीवांना यथायोग्य धन देऊन त्यांच्या कर्मानुसार सुख-दुःख देत राहावे. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord of light and knowledge, ruler of the world, for the man of celebrated eminence and for the man of yajna and divine speech, you create and give that wealth of life which is the best and most wanted of all. Lord of vision and wisdom, you are called the father of the world you hold in sway, and you superintend the rule of law, and you rise as redeemer of the world in all quarters of space.
Subject of the mantra
In this mantra too, same purport has been elucidated.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (agne)=expert judge (yat)=because of, (pramatiḥ)=well-informed, (viduṣṭaraḥ)=Who is the deliverer of various kinds of sorrows, (uruśaṃsāya)=To those who are praised in many ways, [aura]=and, (vāghate)=for that ṛtvik man from whom speech is known, (spārham)=coveted, (paramam)=ultimate, (rekṇaḥ)=to wealth, (pākam)=the ritghteousness in which knowledge matures, (diśaḥ)=to those trustworthy who follow self-righteousness, (ca)=and,(upadeśakān) =to those who preach, (vanoṣi)=appeal, [aura]=and (dharmeṇa)=by righteousness, (ādhrasya)=possessing the kingdom from all sides, (sarvān)=of all, (pitā)=of the protector, (cit)=like,(pra)=well, (śāssi)=educate, (tasmāt)=therefore, (sarvaiḥ)=of all, (mānyārha) =human beings, (asi)=are
English Translation (K.K.V.)
O Judge with special knowledge! For that reason for those who are the deliverers of various kinds of sorrows. Those, who are having excellent knowledge, are praised in many ways and for the virtuous man from whom speech is known, the desired ultimate wealth and who are matured by knowledge. Those, who follow righteousness of self, you appeal to them and the preachers and you teach in a good manner like the protector of all, holding the kingdom from all sides. That's why be honourable for everyone.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Just as a father takes care of his children, gives them wealth and education, in the same way the king grants them happiness and sorrow according to their deeds by properly distributing all the wealth for the living beings.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject (of Agni) is continued—
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned and just king you who are very wise and remover of all difficulties and miseries, desire that a learned many-commended priest may acquire that most desirable wealth (spiritual as well as secular). You are called the well-intentioned protector and father of the State which is to be well-guarded. You who are the wisest, instruct or teach your subjects about the righteous proper conduct and appoint highly learned people true in thought, word and deed, to set the example of and preach about good character.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( वाघते ) वाक् हन्यते ज्ञायते येन तस्मै विदुषे ऋत्विजे मनुष्याय वाघत इति ऋत्विङ्नामसु पठितम् ( निघ० ३.१५) = For a learned priest. ( रेक्ण: ) धनम् रेक्ण इति धननामसु पठितम् ( निघ० २.१० ) रिचेर्धने विच्च । ( उणादि ४.२०६) अनेन रिच् धातोर्धनेर्थेऽसुन् प्रत्ययः नुडागमञ्च | = Wealth.(वनोषि) याचसे = Ask for a desire. ( आध्रस्य ) समन्ताद् ध्रियमाणस्य राज्यस्य अत्र आङ पूर्वकाद् धाञ् धातोर्वाबहुलकात् औणादिको रक् प्रत्ययः आकारलोपश्च ॥ = Of the State to be well-guarded. ( पाकम् ) पचन्ति परिपक्वं ज्ञानं कुर्वन्ति यस्मिन् धर्मे व्यवहारे तम् || = In the righteous conduct where knowledge is ripened. (दिश:) दिशन्ति उपसृजन्ति सदाचारं तान् आप्तान् । = Those learned persons who are true in thought, word and deed. and who teach about good characer. ( विदुष्टर:) यो विविधानि दुरिष्टानि तारयति प्लावयति सः ।। = Destroyer of all difficulties and miseries.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankar or simile used in the Mantra, As a father protects, maintains, educates and gives necessary wealth to his children, in the same manner, a king should protect all his subjects and by proper and just distribution of wealth, according to their actions should reward and punish the people under him.
Translator's Notes
'हन्-हिंसागत्योः गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च Hence Rishi Dayananda has interpreted हन्यते as ज्ञायते । तृढ प्लवन सन्तरणयोः - Rishi Dayananda has interpreted बाघते as वाक् हन्यते ज्ञायते येन तस्मै विदुषे ऋत्विजे मनुष्याय = For a learned priest, but as in the Nighantu the famous Vedic Lexicon, the word वाघतः, has got another meaning of a genius or wise man वाघत इति मेधाविनाम ( निध० ३.१५ ) it may be taken here also in the sense of a wise man besides a learned priest.
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