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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 12
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - निषादः

    त्वं नो॑ अग्ने॒ तव॑ देव पा॒युभि॑र्म॒घोनो॑ रक्ष त॒न्व॑श्च वन्द्य। त्रा॒ता तो॒कस्य॒ तन॑ये॒ गवा॑म॒स्यनि॑मेषं॒ रक्ष॑माण॒स्तव॑ व्र॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । तव॑ । दे॒व॒ । पा॒युऽभिः॑ । म॒घोनः॑ । र॒क्ष॒ । त॒न्वः॑ । च॒ । व॒न्द्य॒ । त्रा॒ता । तो॒कस्य॑ । तन॑ये । गवा॑म् । अ॒सि॒ । अनि॑ऽमेषम् । रक्ष॑माणः । तव॑ । व्र॒ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं नो अग्ने तव देव पायुभिर्मघोनो रक्ष तन्वश्च वन्द्य। त्राता तोकस्य तनये गवामस्यनिमेषं रक्षमाणस्तव व्रते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। नः। अग्ने। तव। देव। पायुऽभिः। मघोनः। रक्ष। तन्वः। च। वन्द्य। त्राता। तोकस्य। तनये। गवाम्। असि। अनिऽमेषम्। रक्षमाणः। तव। व्रते ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स एवोपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे देव वन्द्याग्ने सभेश्वर ! तव व्रते वर्त्तमानान् मघोनो नोऽस्मान् अस्माकं वा तन्वस्तनूँश्च पायुभिस्त्वमनिमेषं रक्ष तथा रक्षमाणस्त्वं तव व्रते वर्त्तमानस्य तोकस्य गवामस्य संसारस्य चानिमेषं च तनये त्राता भव ॥ १२ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) सभेशः (नः) अस्माकमस्मान् वा (अग्ने) सर्वाभिरक्षक (तव) सर्वाधिपतेः (देव) सर्वसुखदातः (पायुभिः) रक्षादिव्यवहारैः (मघोनः) मघं प्रशस्तं धनं विद्यते येषां तान्। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। मघमिति धननामधेयम् । (निघं०२.१०) (रक्ष) पालय (तन्वः) शरीराणि। अत्र सुपां सुलुग्० इति शसः स्थाने जस्। (वन्द्य) स्तोतुमर्ह (त्राता) रक्षक (तोकस्य) अपत्यस्य। तोकमित्यपत्यनामसु पठितम् । (निघं०२.२) (तनये) विद्याशरीरबलवर्धनाय प्रवर्त्तमाने पुत्रे। तनयमित्यपत्यनामसु पठितम् । (निघं०२.२) (गवाम्) मनआदीन्द्रियाणां चतुष्पदां वा (अस्य) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षस्य संसारस्य (अनिमेषम्) प्रतिक्षणम् (रक्षमाणः) रक्षन् सन्। अत्र व्यत्ययेन शानच् (तव) प्रजेश्वरस्य (व्रते) सत्यपालनादिनियमे ॥ १२ ॥

    भावार्थः

    सभापती राजा परमेश्वरस्य जगद्धारणपालनादिगुणैरिवोत्तमगुणै राज्यनियमप्रवृत्ताञ्जनान् सततं रक्षेत् ॥ १२ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में भी सभापति का उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    हे (देव) सब सुख देने और (वन्द्य) स्तुति करने योग्य (अग्ने) तथा यथोचित सबकी रक्षा करनेवाले सभेश्वर ! (तव) सर्वाधिपति आपके (व्रते) सत्य पालन आदि नियम में प्रवृत्त और (मघोनः) प्रशंसनीय धनयुक्त (नः) हम लोगों को और हमारे (तन्वः) शरीरों को (पायुभिः) उत्तम रक्षादि व्यवहारों से (अनिमेषम्) प्रतिक्षण (रक्ष) पालिये (रक्षमाणः) रक्षा करते हुए आप जो कि आपके उक्त नियम में वर्त्तमान (तोकस्य) छोटे-छोटे बालक वा (गवाम्) प्राणियों की मन आदि इन्द्रियाँ और गाय बैल आदि पशु हैं उनके तथा (अस्य) सब चराचर जगत् के प्रतिक्षण (त्राता) रक्षक अर्थात् अत्यन्त आनन्द देनेवाले हूजिये ॥ १२ ॥

    भावार्थ

    सभापति राजा ईश्वर के जो संसार की धारणा और पालना आदि गुण हैं, उनके तुल्य उत्तम गुणों से अपने राज्य के नियम में प्रवृत्त जनों की निरन्तर रक्षा करे ॥ १२ ॥

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    विषय

    इस मन्त्र में भी सभापति का उपदेश किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे देव वन्द्य अग्ने सभेश्वर ! तव व्रते वर्त्तमानान् मघोनः नःअस्मान् अस्माकं वा तन्वः तनून् च पायुभिः त्वम् अनिमेषम् रक्ष तथा रक्षमाणः त्वं तव व्रते वर्त्तमानस्य तोकस्य गवाम् अस्य संसारस्य च अनिमेषं च तनये त्राता भव॥१२॥

    पदार्थ

    हे  (देव) सर्वसुखदातः=! सब सुख देने वाले, (वन्द्य)=स्तुति करने योग्य, (अग्ने) सर्वाभिरक्षक=सबकी हर ओर से रक्षा करनेवाले (सभेश्वर)=सभापति ! (तव) सर्वाधिपतेः= सब के स्वामी आपके (व्रते)=सत्य पालन आदि नियम में प्रवृत्त और, (वर्त्तमानान्)=उपस्थित, (मघोनः) मघं प्रशस्तं धनं विद्यते येषां तान्=प्रशंसनीय धनयुक्त, (नः) अस्माकमस्मान् वा= हम लोगों को या हमारे (च)=और (तन्वः) शरीराणि= शरीरों को, (पायुभिः) रक्षादिव्यवहारैः= रक्षादि व्यवहारों से, (त्वम्) सभेशः=आप सभापति, (अनिमेषम्) प्रतिक्षणम्=हर समय, (रक्ष) पालय=रक्षा कीजिये, (तथा)=ऐसे ही, (रक्षमाणः) रक्षन् सन्=रक्षा करते हुए,  (त्वम्) सभेशः=आप सभापति, (तव) सर्वाधिपतेः=सब के स्वामी परमेश्वर, (व्रते) सत्यपालनादिनियमे=सत्य पालन आदि नियम में प्रवृत्त, (वर्त्तमानस्य)=उपस्थित के, (तोकस्य)=पुत्र के, (गवाम्) मनआदीन्द्रियाणां चतुष्पदां वा=प्राणियों की मन आदि इन्द्रियाँ और गाय बैल आदि पशु हैं उनके, (अस्य) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षस्य संसारस्य=प्रत्यक्ष और  अप्रत्यक्ष संसार के (च)=और  (संसारस्य)=संसार के, (अनिमेषम्) प्रतिक्षणम्= हर समय, (च)=भी, (तनये)=शरीरों के, (त्राता)=रक्षक, (भव)=हूजिये॥१२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    सभापति राजा ईश्वर के संसार को धारण और पालन आदि गुणों के समान उत्तम गुणों से राज्य के नियमों में प्रवृत्त लोग निरन्तर रक्षा करें ॥ १२ ॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (देव) सब सुख देने वाले, (वन्द्य) स्तुति करने योग्य (अग्ने) सबकी हर ओर से रक्षा करनेवाले (सभेश्वर) सभापति !  (तव) सब के स्वामी आपके (व्रते) सत्य पालन आदि नियम में प्रवृत्त और (वर्त्तमानान्) उपस्थित (मघोनः) प्रशंसनीय धनयुक्त (नः) हम लोगों को या हमारे (च) और (तन्वः) शरीरों को (पायुभिः) रक्षादि व्यवहारों से, (त्वम्) आप सभापति (अनिमेषम्) हर समय (रक्ष) रक्षा कीजिये। (तथा) ऐसे ही (रक्षमाणः) रक्षा करते हुए  (त्वम्) आप सभापति (तव) सब के स्वामी परमेश्वर, (व्रते) सत्य पालन आदि नियम में प्रवृत्त (वर्त्तमानस्य) उपस्थित के (तोकस्य) पुत्र, (गवाम्) प्राणियों के मन आदि इन्द्रियाँ और गाय बैल आदि पशु हैं, उनके (अस्य) प्रत्यक्ष और  अप्रत्यक्ष संसार के (च) और  (संसारस्य) संसार के (अनिमेषम्) हर समय में (च) भी (तनये) शरीरों के (त्राता+ भव)  रक्षक हूजिये॥१२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) सभेशः (नः) अस्माकमस्मान् वा (अग्ने) सर्वाभिरक्षक (तव) सर्वाधिपतेः (देव) सर्वसुखदातः (पायुभिः) रक्षादिव्यवहारैः (मघोनः) मघं प्रशस्तं धनं विद्यते येषां तान्। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। मघमिति धननामधेयम् । (निघं०२.१०) (रक्ष) पालय (तन्वः) शरीराणि। अत्र सुपां सुलुग्० इति शसः स्थाने जस्। (वन्द्य) स्तोतुमर्ह (त्राता) रक्षक (तोकस्य) अपत्यस्य। तोकमित्यपत्यनामसु पठितम् । (निघं०२.२) (तनये) विद्याशरीरबलवर्धनाय प्रवर्त्तमाने पुत्रे। तनयमित्यपत्यनामसु पठितम् । (निघं०२.२) (गवाम्) मनआदीन्द्रियाणां चतुष्पदां वा (अस्य) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षस्य संसारस्य (अनिमेषम्) प्रतिक्षणम् (रक्षमाणः) रक्षन् सन्। अत्र व्यत्ययेन शानच् (तव) प्रजेश्वरस्य (व्रते) सत्यपालनादिनियमे ॥ १२ ॥
    विषयः- पुनः स एवोपदिश्यते ॥

    अन्वयः- हे देव वन्द्याग्ने सभेश्वर ! तव व्रते वर्त्तमानान् मघोनो नोऽस्मान् अस्माकं वा तन्वस्तनूँश्च पायुभिस्त्वमनिमेषं रक्ष तथा रक्षमाणस्त्वं तव व्रते वर्त्तमानस्य तोकस्य गवामस्य संसारस्य चानिमेषं च तनये त्राता भव॥१२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- सभापती राजा परमेश्वरस्य जगद्धारणपालनादिगुणैरिवोत्तमगुणै राज्यनियमप्रवृत्ताञ्जनान् सततं रक्षेत् ॥ १२ ॥

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    विषय

    सर्वरक्षक' प्रभु

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - परमात्मन् ! हे (देव) - सब विघ्न - बाधाओं व आपत्तियों को परास्त करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) - आप (नः मघोनः) - हमारे मघवान् - मखवान् - यज्ञशील पुरुषों को [मघ - मख] (तव पायुभिः) - अपने रक्षणों से (रक्ष) - रक्षित कीजिए । प्रभु यज्ञशील पुरुषों की रक्षा करते ही हैं । 

    २. हे (वन्द्य) - वन्दना व स्तुति के योग्य प्रभो । (तन्वः च) - हमारे शरीरों को भी (रक्ष) - आप रक्षित कीजिए । आपकी कृपा से ही हम वासनाओं से बचकर शरीरों को नीरोग रख सकेंगे । 

    ३. (तोकस्य) - हमारे पुत्र - पौत्रों के (त्राता) - रक्षक भी आप ही हैं । हम तो निमित्तमात्र होते हैं । हमें निमित्त बनाकर रक्षण तो आप ही करते हैं । 

    ४. (तनये) - हमारी सन्तानों में (गवाम्) - ज्ञानेन्द्रियों के (त्राता असि) - रक्षक हो । उनकी ज्ञानेन्द्रियों को न विकृत होने देनेवाले हो । 

    ५. हे प्रभो ! आप उन सबकी (अनिमेष) - निर्निमेषरूप से , सदा सावधान होकर (रक्षमाणः) - रक्षा करते हो जोकि (तव व्रते) - आपके व्रत में चलते हैं । प्रभु ने एक वाक्य में जीव के लिए यही व्रत निश्चित किया है कि 'वह कर्म करता हुआ ही जीने की इच्छा करे' - [कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतः समाः] । व्यास के शब्दों में [तदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च । तस्माद्धर्मानिमान् सर्वान् नाभिमानात् समाचरेत् ॥] वेद का आदेश यही है कि मनुष्य निरभिमान भाव से कर्म करता रहे , यह कर्मशील पुरुष सदा प्रभु से रक्षित होता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम यज्ञशील बन प्रभु से रक्षणीय हों , प्रभु ही हमारे शरीरों व सन्तानों के रक्षक हैं । हमारी सन्तानों की ज्ञानेन्द्रियों को भी प्रभु ही रक्षित करनेवाले हैं । हम प्रभु के दिये हुए 'कर्म करने के व्रत' का पालन करते हैं तो प्रभु निर्निमेष रूप से हमारा रक्षण करते हैं । 

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    विषय

    आचार्य के कर्त्तव्य । पक्षान्तर में—देह में स्थित प्रजोत्पादक वीर्य का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन् परमेश्वर! अग्रणी नायक राजन्! सभाध्यक्ष! हे (देव) सुख के देने हारे, राष्ट्र का विजय करने वाले! (त्वं) तू (मघोनः) ऐश्वर्य से युक्त (नः) हम सम्पन्न प्रजाजनों की और (नः तन्वः च) हमारे शरीरों और (तोकस्य) हमारे सन्तानों के (तन्वः च) शरीरों की अपने (पायुभिः) पालनकारी साधनों से (रक्ष) रक्षा कर। तू (तनये) हमारे पुत्र पौत्रादि सन्तति के निमित्त (तव व्रते) अपने नियम शासन व्यवस्था में (अनिमेषं) बिना किसी प्रमाद के, निरन्तर (रक्षमाणः) उनके प्राणों की रक्षा करता हुआ भी उनकी (गवाम्) गौ आदि पशुओं और चक्षु आदि इन्द्रियों का भी (त्राता असि) पालक है। उत्पादक वीर्य भी अपने पालनकारी गुणों से हमारे सन्तति प्रसन्तति की और उनके हस्त, पाद, चक्षु आदि तक की निरन्तर पालना करता है। वीर्य में दोष आने से ही सन्तति में व्यंग आदि दोष उत्पन्न होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आंङ्गिरस ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ १–७, ९–१५, १७ जगत्यः । ८, १६, १८ त्रिष्टुभः । अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जगाची धारणा व पालन इत्यादी ईश्वराचे जे गुण आहेत त्याप्रमाणे उत्तम गुणांनी सभापती राजाने आपल्या राज्याचे नियम पालन करणाऱ्यांचे निरंतर रक्षण करावे. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, universal protector and sustainer of life, generous and brilliant lord, adorable power, blest are we with wealth and prosperity. Protect and promote us and our health and age with all your powers of protection and sustenance. You are the saviour and vigilant guardian of our children, our land and cows, and our sense and mind for the sake of our posterity. And we are steady and dedicated to the rules and discipline of your law.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of He is and what should He do? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)=Chairman of the Assembly with special knowledge! (devāḥ)=scholar, (nahuṣasya)=of human beings, (āyavaḥ)= for the growth of specialized knowledge such as, (imām) liye (iḻām)=to the speech of the four Vedas, (akṛṇvan)=has been revealed, (manuṣasya)=only for men, (śāsanīm)=of all learning, righteousness and conduct, (satyaśikṣām) =to truthful learning, (ca)=also, (akṛṇvan)=reveale, [aura]=and, (prajā)= descendants, (ca)=also, (yat)=as, (mamakasya)=like us (pituḥ)=by closeness to father, (putraḥ+ jāyate)=a son of the nature who sanctifies his ancestors is born, (tathā)=in the same way, (bhavati)= group of kings have subjects.

    English Translation (K.K.V.)

    O Chairman of the assembly with special knowledge! The speech of these four Vedas has been revealed for the growth of special knowledge of a learned man. He has also revealed the true teachings of all learning, dharma and conduct of all human beings, and children, like us, by the nearness of the father, are born sons of the nature of purifying our ancestors, in the same way the group of kings have subjects.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Through the system created by God, without the Vedas scriptures and politics, the subjects cannot be followed. The subjects are like the unknown children of the king, the Chairman should educate the subjects like the king's son.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same (Agni) is taught further in the 12th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O worthy of praise, President of the Assembly, Presserve us who possess good wealth (earned righteously) and always remain under your true laws. Preserve the bodies of our children also who are always engaged in developing their knowledge and physique with your preserving powers and means incessantly protecting in your holy way. Guard our mind and other senses as well cattle and other animals and other articles of the world. You are our true protector.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (देव) सर्वसुखदात: = The Giver of all Happiness. - ( तोकस्य ) अपत्यस्य तोकमित्यपत्यनामसु पठितम् ( निघं० २.२ ) = Of the Off-spring. (तनये) विद्याशरीरबलवर्धनाय प्रवर्तमाने पुत्रे ( तनयम् इत्यपत्यनामसु निघ० २.१ ) = In the son trying to develop the power of his knowledge and body. ( गवाम् ) मन आदीन्द्रियाणां चतुष्पदां वा = Of mind and other senses or quadrupeds. ( व्रते ) सत्यपालनादिनियमे = In the laws of the observance of truth etc.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The king who is the President of the Assembly should always preserve and guard all lawful people with the attributes of protection etc. of God and following Him with all noble virtues.

    Translator's Notes

    The word देव is derived from दा-दाने besides दिवु and द्युत् as pointed out by Yaskacharya in the Nirukta 1.15. देवो दानाद् वा दीपनाद् वा द्योतनाद् वा घुस्थानो भवति वा (निरु० ७.१५) = Hence Rishi Dayananda has interpreted it as सर्व सुखदातः. तनयः is derived from तनु-विस्तारे to expand or grow, hence Rishi Dayananda's interpretation. तनये विद्याशरीरबलवर्धनाय प्रवर्तमाने पुत्रे । That shows how deep Rishi Dayananda went to understand and interpret the correct significance of the Vedic words.

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