ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 9
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - निषादः
त्वं नो॑ अग्ने पि॒त्रोरु॒पस्थ॒ आ दे॒वो दे॒वेष्व॑नवद्य॒ जागृ॑विः। त॒नू॒कृद्बो॑धि॒ प्रम॑तिश्च का॒रवे॒ त्वं क॑ल्याण॒ वसु॒ विश्व॒मोपि॑षे ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । पि॒त्रोः । उ॒पऽस्थे॑ । आ । दे॒वः । दे॒वेषु॑ । अ॒न॒व॒द्य॒ । जागृ॑विः । त॒नू॒ऽकृत् । बो॒धि॒ । प्रऽम॑तिः । च॒ । का॒रवे॑ । त्वम् । क॒ल्या॒ण॒ । वसु॑ । विश्व॑म् । आ । ऊ॒पि॒षे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नो अग्ने पित्रोरुपस्थ आ देवो देवेष्वनवद्य जागृविः। तनूकृद्बोधि प्रमतिश्च कारवे त्वं कल्याण वसु विश्वमोपिषे ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। नः। अग्ने। पित्रोः। उपऽस्थे। आ। देवः। देवेषु। अनवद्य। जागृविः। तनूऽकृत्। बोधि। प्रऽमतिः। च। कारवे। त्वम्। कल्याण। वसु। विश्वम्। आ। ऊपिषे ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
अनवद्याग्ने सभास्वामिन् ! जागृविर्देवस्तनूकृत्त्वं देवेषु पित्रोरुपस्थे नोऽस्मानोपिषे वपसि सर्वतः प्रादुर्भावयसि। हे कल्याणप्रमतिस्त्वं कारवे मह्यं विश्वमाबोधि समन्ताद्बोधय ॥ ९ ॥
पदार्थः
(त्वम्) सर्वमङ्गलकारकः सभाध्यक्षः (नः) अस्मान् (अग्ने) विज्ञानस्वरूप (पित्रोः) जनकयोः (उपस्थे) उपतिष्ठन्ति यस्मिन् तस्मिन्। अत्र घञर्थे कविधानं स्थास्नापाव्यधिहनियुध्यर्थम्। (अष्टा०वा०३.३.५८) अनेनाधिकरणे कः। (आ) अभितः (देवः) सर्वस्य न्यायविनयस्य द्योतकः (देवेषु) विद्वत्सु अग्न्यादिषु त्रयस्त्रिंशद्दिव्यगुणेषु वा (अनवद्य) न विद्यते वद्यं निन्द्यं कर्म्म यस्मिन् तत्सम्बुद्धौ अवद्यपण्यवर्य्या० (अष्टा०३.१.१०१) अनेन गर्ह्येऽवद्यशब्दो निपातितः। (जागृविः) यो नित्यं धर्म्ये पुरुषार्थे जागर्ति सः (तनूकृत्) यस्तनूषु पृथिव्यादिविस्तृतेषु लोकेषु विद्यां करोति सः (बोधि) बोधय। अत्र लोडर्थे लङडभावोऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (प्रमतिः) प्रकृष्टा मतिर्ज्ञानं यस्य सः (च) समुच्चये (कारवे) शिल्पकार्यसम्पादनाय (त्वम्) सर्वविद्यावित् (कल्याण) कल्याणकारक (वसु) विद्याचक्रवर्त्यादिराज्यसाध्यधनम् (विश्वम्) सर्वम् (आ) समन्तात् (ऊपिषे) वपसि। अत्र लडर्थे लिट् ॥ ९ ॥
भावार्थः
पुनरित्थं जगदीश्वरः प्रार्थनीयः। हे भगवन् ! यदा यदास्माकं जन्म दद्यास्तदा तदा विद्वत्तमानां सम्पर्के जन्म दद्यास्तत्रास्मान् सर्वविद्यायुक्तान् कुरु, यतो वयं सर्वाणि धनानि प्राप्य सदा सुखिनो भवेमेति ॥ ९ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (अनवद्य) उत्तम कर्मयुक्त (अग्ने) सब पदार्थों के जाननेवाले सभापते ! (जागृविः) धर्मयुक्त पुरुषार्थ में जागने (देवः) सब प्रकाश करने (तनूकृत्) और बड़े-बड़े पृथिवी आदि बड़े लोकों में ठहरने हारे आप (देवेषु) विद्वान् वा अग्नि आदि तेजस्वी दिव्य गुणयुक्त लोकों में (पित्रोः) माता-पिता के (उपस्थे) समीपस्थ व्यवहार में (नः) हम लोगों को (ऊपिषे) वार-वार नियुक्त कीजिये। (कल्याण) हे अत्यन्त सुख देनेवाले राजन् ! (प्रमतिः) उत्तम ज्ञान देते हुए आप (कारवे) कारीगरी के चाहनेवाले मुझ को (वसु) विद्या, चक्रवर्त्ति राज्य आदि पदार्थों से सिद्ध होनेवाले (विश्वम्) समस्त धन का (आबोधि) अच्छे प्रकार बोध कराइये ॥ ९ ॥
भावार्थ
फिर भी ईश्वर की इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये कि हे भगवन् ! जब-जब आप जन्म दें, तब-तब श्रेष्ठ विद्वानों के सम्बन्ध में जन्म दें और वहाँ हम लोगों को सर्व विद्यायुक्त कीजिये, जिससे हम लोग सब धनों को प्राप्त होकर सदा सुखी हों ॥ ९ ॥
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
अनवद्य अग्ने सभास्वामिन् ! जागृविः देवः तनूकृत् त्वं देवेषु पित्रोः उपस्थे नःअस्मान् ओपिषे वपसि सर्वतः प्रादुर्भावयसि। हे कल्याण प्रमतिः त्वं कारवे मह्यं विश्वम् आबोधि समन्तात् बोधय॥९॥
पदार्थ
(अनवद्य) न विद्यते वद्यं निन्द्यं कर्म्म यस्मिन् तत्सम्बुद्धौ=जिसमें निंदनीय कर्म न हों उसमें (अग्ने) विज्ञानस्वरूप= सब पदार्थों का विशिष्ट ज्ञान रखने वाले (सभास्वामिन्)=सभापते ! (जागृविः) यो नित्यं धर्म्ये पुरुषार्थे जागर्ति सः= धर्मयुक्त पुरुषार्थ में जागृत रहने वाला, (देवः) सर्वस्य न्यायविनयस्य द्योतकः=सबको न्याय और विनय से प्रकाशित करने वाला, (तनूकृत्) यस्तनूषु पृथिव्यादिविस्तृतेषु लोकेषु विद्यां करोति सः=और बड़े-बड़े पृथिवी आदि बड़े लोकों में विद्या का प्रकाश करने वाला, (त्वम्) सर्वमङ्गलकारकः सभाध्यक्षः=सबका मङ्गल करने वाले सभाध्यक्ष, (देवेषु) विद्वत्सु अग्न्यादिषु यस्त्रिंशद्दिव्यगुणेषु वा=विद्वान् या अग्नि आदि तैंतीस दिव्य गुणों में, (पित्रोः) जनकयोः=माता-पिता के, (उपस्थे) उपतिष्ठन्ति यस्मिन् तस्मिन्=जहाँ स्थित होते हैं, उस स्थान में, (नः) अस्मान्=हमारे, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (ऊपिषे) वपसि=उत्पन्न करते हो। हे (कल्याण)=कल्याण करनेवाले ! (प्रमतिः) प्रकृष्टा मतिर्ज्ञानं यस्य सः=जिसका उत्तम ज्ञान है, ऐसे (त्वम्) सर्वविद्यावित्=सब विद्याओं को जाननेवाले आप ! (कारवे) शिल्पकार्यसम्पादनाय=शिल्पकार्य का सम्पादन करने के लिये, (मह्यम्)=मुझको, (विश्वम्) सर्वम्=समस्त, (आ) अभितः=हर ओर से, (बोधि)=बोध कराइये॥९॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
फिर इस प्रकार से ईश्वर की प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये। हे भगवान् ! जब-जब आप हमारा जन्म दें, तब-तब विद्वानों के सम्पर्क में जन्म दीजिये और वहाँ हम लोगों को सब विद्याओं से युक्त कीजिये, जिससे हम लोग सब धनों को प्राप्त करके सदा सुखी हों॥९॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (अनवद्य) जिसमें निंदनीय कर्म न हों उसमें (अग्ने) सब पदार्थों का विशिष्ट ज्ञान रखने वाले (सभास्वामिन्) सभापति ! (जागृविः) धर्मयुक्त पुरुषार्थ में जागृत रहने वाले, (देवः) सबको न्याय और विनय से प्रकाशित करने वाले, (तनूकृत्) और बड़े-बड़े पृथिवी आदि बड़े लोकों में विद्या का प्रकाश करने वाले, (त्वम्) सबका मङ्गल करने वाले सभाध्यक्ष, (देवेषु) विद्वान् या अग्नि आदि तैंतीस दिव्य गुणों में, (पित्रोः) माता-पिता (उपस्थे) जहाँ स्थित होते हैं, उस स्थान में (नः) हमारे (आ) हर ओर से (ऊपिषे) उत्पन्न करते हो। हे (कल्याण) कल्याण करनेवाले ! (प्रमतिः) जिसका उत्तम ज्ञान है, ऐसे (त्वम्) सब विद्याओं को जाननेवाले आप ! (कारवे) शिल्पकार्य का सम्पादन करने के लिये (मह्यम्) मुझको (आ) हर ओर से (विश्वम्) समस्त (बोधि) बोध कराइये॥९॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) सर्वमङ्गलकारकः सभाध्यक्षः (नः) अस्मान् (अग्ने) विज्ञानस्वरूप (पित्रोः) जनकयोः (उपस्थे) उपतिष्ठन्ति यस्मिन् तस्मिन्। अत्र घञर्थे कविधानं स्थास्नापाव्यधिहनियुध्यर्थम्। (अष्टा०वा०३.३.५८) अनेनाधिकरणे कः। (आ) अभितः (देवः) सर्वस्य न्यायविनयस्य द्योतकः (देवेषु) विद्वत्सु अग्न्यादिषु त्रयस्त्रिंशद्दिव्यगुणेषु वा (अनवद्य) न विद्यते वद्यं निन्द्यं कर्म्म यस्मिन् तत्सम्बुद्धौ अवद्यपण्यवर्य्या० (अष्टा०३.१.१०१) अनेन गर्ह्येऽवद्यशब्दो निपातितः। (जागृविः) यो नित्यं धर्म्ये पुरुषार्थे जागर्ति सः (तनूकृत्) यस्तनूषु पृथिव्यादिविस्तृतेषु लोकेषु विद्यां करोति सः (बोधि) बोधय। अत्र लोडर्थे लङडभावोऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (प्रमतिः) प्रकृष्टा मतिर्ज्ञानं यस्य सः (च) समुच्चये (कारवे) शिल्पकार्यसम्पादनाय (त्वम्) सर्वविद्यावित् (कल्याण) कल्याणकारक (वसु) विद्याचक्रवर्त्यादिराज्यसाध्यधनम् (विश्वम्) सर्वम् (आ) समन्तात् (ऊपिषे) वपसि। अत्र लडर्थे लिट् ॥ ९ ॥
विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः- अनवद्याग्ने सभास्वामिन् ! जागृविर्देवस्तनूकृत्त्वं देवेषु पित्रोरुपस्थे नोऽस्मानोपिषे वपसि सर्वतः प्रादुर्भावयसि। हे कल्याणप्रमतिस्त्वं कारवे मह्यं विश्वमाबोधि समन्ताद्बोधय॥९॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- पुनरित्थं जगदीश्वरः प्रार्थनीयः। हे भगवन् ! यदा यदास्माकं जन्म दद्यास्तदा तदा विद्वत्तमानां सम्पर्के जन्म दद्यास्तत्रास्मान् सर्वविद्यायुक्तान् कुरु, यतो वयं सर्वाणि धनानि प्राप्य सदा सुखिनो भवेमेति॥९॥
विषय
पालक - प्रभु
पदार्थ
१. हे (अग्ने) - अग्रणी प्रभो ! (त्वम्) - आप (नः) - हमारे (पित्रोः) - माता - पिता की (उपस्थे) - गोद में (आ) - सब प्रकार से (देवः) - सब गतियों के करानेवाले हो [दिव् - गति] (देवेषु) - सब देवों में (अनवद्य) - प्रशस्त प्रभो ! आप (जागृविः) - सदा जागते हो , अर्थात् हमारे रक्षण में आप कभी प्रमाद नहीं करते । माता - पिता के माध्यम द्वारा आप ही वस्तुतः हमारा रक्षण करते हैं ।
२. (तनूकृत्) - हमारे शरीरों के निर्माण करनेवाले प्रभो ! (बोधि) - आप हमारा सदा ध्यान कीजिए । आपसे पालित होकर ही हम अपनी शक्तियों का विस्तार कर पाएँगे । माता - पिता भी आपसे शक्ति प्राप्त करके हमारा पालन करते हैं और सब सूर्यादि देव भी आपसे ही देवत्व को प्राप्त करके हमारा कल्याण किया करते हैं । सब देवों में प्रशस्त आप ही हैं , देवों को भी आपने ही देवत्व प्राप्त कराया है , आपसे शक्ति प्राप्त करके सूर्य हमें प्राणशक्ति - सम्पन्न बनाता है , चन्द्रमा हमारे लिए ओषधियों में रस का संचार करता है , एवं माता - पिता व इन देवों के द्वारा प्रभु हमारा पालन करते हैं ।
३. हे प्रभो ! (च) - और आप ही (कारवे) - सुन्दरता से कार्य करनेवाले के लिए (प्रमतिः) - प्रकृष्ट बुद्धि देनेवाले हैं ।
४. हे (कल्याण) - कल्याणस्वरूप प्रभो ! (त्वम्) - आप (विश्वं वसु) - निवास के लिए आवश्यक सम्पूर्ण धनों को (आ ऊपिषे) - प्राप्त कराते हो ।
भावार्थ
भावार्थ - माता - पिता के द्वारा व सूर्यादि देवों के द्वारा प्रभु ही हमारा पालन करते हैं , हम क्रियाशील बनते हैं तो प्रभु ही हमें प्रकृष्ट बुद्धि प्राप्त कराते हैं , वे ही सम्पूर्ण धनों के देनेवाले हैं ।
विषय
सर्वेश्वर्यप्रद, ज्ञानप्रद पिता, और कवच के समान रक्षक
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानवन् परमेश्वर! हे (अनवद्य) अनिन्द्य, निष्पाप! तू (देवः) सब सुखों का दाता और (देवेषु) अग्नि आदि तत्वों में सदा (जागृविः) जागरणशील, सदा क्रियाशक्ति रूप से व्यापक होकर (पित्रोः) जगत् के पालक सूर्य पृथिवी दोनों के (उपस्थे) बीच में (आ) सर्वत्र व्यापक है। और तू (प्रमतिः) सबसे उत्कृष्ट ज्ञान वाला और (तनुकृत्) समस्त प्राणियों और लोकों और पृथिवी आदि तत्वों के रूपों, और देहों को रचने हारा होकर (कारवे) कार्य करने वाले, कर्त्ता जीव को (बोधि) ज्ञान प्रदान कर। हे (कल्याण) मंगलमय! (त्वं) तू ही (कारवे) इस कर्त्ता जीव के सुख के लिए (विश्वं वसु) समस्त प्रकार के ऐश्वर्य (ऊपिषे) सर्वत्र उत्पन्न करता है। प्रजनश्चास्मिकंदर्पः। धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मिन् भरतवर्षभ॥ इन गीता-वचनों के अनुसार—हे (अनवद्य) अनिन्द्य (अग्ने) तेजस्विन्! वीर्य! तू (पित्रोः उपस्थे) माता पिता दोनों के देहांत में (देवः) सुखप्रद एवं (देवेषु जागृविः) कामना युक्त जीवों में जागृत होता है। तू ही (प्रमतिः) उत्तम रीति से स्तम्भित होकर (तनुकृत् बोधि) प्राणि के देह को बनाने वाला जाना जाता है। हे (कल्याण) सुखप्रद! तू (कारवे) जगद्विधाता के लिए (विश्वं वसु) समस्त बसनेवाले जीव संसार को (आ ऊपिषे) भूमि में अन्न बीजों के समान वीज वपन करता और सृष्टि उत्पन्न करता है। राजा और आचार्य माता पिता से उतर कर तीसरा 'देव' है वह सवमें सावधान होकर उत्कृष्ट ज्ञानवान् होकर विद्या में जन्म देने से तनूकृत् है। वह बोध करावे। हे कल्याणकृत्! तू ही समस्त (वसु) ज्ञानैश्वर्य का शिष्यों में मानो वपन करता है। आचार्य का शिक्षण राष्ट्र के नवयुवकों में समस्त जीवों की उन्नति के बीजों को बोने के समान है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आंङ्गिरस ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ १–७, ९–१५, १७ जगत्यः । ८, १६, १८ त्रिष्टुभः । अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराची अशाप्रकारे प्रार्थना केली पाहिजे की, हे देवा! जेव्हा जेव्हा तू जन्म देशील तेव्हा तेव्हा श्रेष्ठ विद्वानांचा संपर्क घडेल असा दे व तेथे आम्हाला सर्व विद्यायुक्त कर, ज्यामुळे आम्ही धन प्राप्त करून सदैव सुखी व्हावे. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, light of the world and giver of knowledge and progress, keep us close in the presence of father and mother under the care and protection of heaven and earth. Brilliant and generous, lord immaculate beyond words of evil and calumny, you are ever awake and active in the lights of nature and hearts of pious humanity. Lord creator and maker of the finest forms of existence, give us the knowledge, give us the protection and expertise for the worker specialist entrepreneur. You are the peace, you are the bliss. You are the wealth, you are the Home. Let the world awake, arise and reach where they belong.
Subject of the mantra
Then, what kind of He is? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (anavadya)=in which there is no reprehensible deed, in that (agne)=expert in all things, (sabhāsvāmin)=chairman, (jāgṛviḥ)=One who is awake in righteous effort, (devaḥ)=one who manifests all with justice and humility, (tanūkṛt)=and the one who sheds light of knowledge in the big worlds like the big earth etc., (tvam) The Chairman who is auspicious everyone, (deveṣu)=scholar or fire etc. in thirty-three divine qualities, (pitroḥ)=parents, (upasthe)=in the place where they are located, (naḥ)=our, (ā)=from all sides, (ūpiṣe)=create, (kalyāṇa)=benefactors, (pramatiḥ)=One who has the best knowledge, such (tvam)=You who know all the disciplines of knowledge, (kārave)=for the accomplishment of craftsmanship, (mahyam)=to me, (ā)=from all sides, (viśvam)=all, (bodhi)= make me aware.
English Translation (K.K.V.)
O Chairman who has special knowledge of all things in which there are no reprehensible deeds! One who is awakened in righteous effort, who illuminates all with justice and humility, and who manifests knowledge in the big worlds like earth etc. and who blesses everyone, scholar or fire etc. in that place, you create from all sides of us. O benefactor, the one who has the best knowledge, you who know all such disciplines! For the accomplishment of the craftsmanship, make me aware from all sides.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Then one should pray God in this way- “O my god! Whenever you give birth to us, then give birth in contact with scholars and equip us there with all the knowledge, so that we may always be happy after getting all the wealth.”
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Agni is further taught in the 9th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O irreproachable Agni (President of the Assembly) being vigilant or awake to your duties and illuminator of justice and wisdom, disseminator of knowledge about the earth and other worlds, make us illustrious among the enlightened and devoted to our parents. O auspicious being a wise person, enlighten me an artist about all wealth to be gained from knowledge, gold and vast and good Government.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( देव:) सर्वस्य न्यायविनयस्य द्योतकः = Illuminator of all justice and wisdom. ( जागृवि:) यो नित्यं धर्मेण पुरुषार्थे जागर्ति सः = Ever awake to righteous exertion. ( अनवद्य) न विद्यतेऽवद्यं निन्द्यं कर्म यस्मिन् तत्सम्बुद्धौ अनवद्यपण्यवर्य (अष्टा० ३.१.१०) अनेन गर्थेऽवद्यशब्दो निपातितः । = Irreproachable. ( तनूकृत्) यस्तनुषु पृथिव्यादि विस्तृतेषु लोकेषु विद्या करोति । = Receiver of knowledge about the earth and other vast worlds.( ओपिषे ) वपसि ( सर्वतः प्रादुर्भावयसि ) । = Thou makest us illustrious. (अग्ने) विज्ञानस्वरूप = Embodiment of knowledge. ( अदाभ्य) दभितुं हिंसितुं योग्यानि दाभ्यानि तान्यविद्यमानानि यस्य तंत् सम्बुद्धौ । अत्र दभेश्चेति वक्तव्यम् (अष्टा० ३.१.१२४) अनेन वार्तिकेन दभ इति सौलाद धातोर्ण्यत् ॥ = Inviolable or irreproachable.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
God should be prayed thus- Whenever thou grantest us birth, grant us the association of enlightened persons and make us full of knowledge of all sciences, so that having acquired all knowledge, we may enjoy happiness.
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