Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 31 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 4
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - निषादः

    त्वम॑ग्ने॒ मन॑वे॒ द्याम॑वाशयः पुरू॒रव॑से सु॒कृते॑ सु॒कृत्त॑रः। श्वा॒त्रेण॒ यत्पि॒त्रोर्मुच्य॑से॒ पर्या त्वा॒ पूर्व॑मनय॒न्नाप॑रं॒ पुनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ग्ने॒ । मन॑वे । द्याम् । अ॒वा॒श॒यः॒ । पु॒रू॒रव॑से । सु॒ऽकृते॑ । सु॒कृत्ऽत॑रः । श्वा॒त्रेण॑ । यत् । पि॒त्रोः । मुच्य॑से । परि॑ । आ । त्वा॒ । पूर्व॑म् । अ॒न॒य॒न् । आ । अप॑रम् । पुन॒रिति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने मनवे द्यामवाशयः पुरूरवसे सुकृते सुकृत्तरः। श्वात्रेण यत्पित्रोर्मुच्यसे पर्या त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। मनवे। द्याम्। अवाशयः। पुरूरवसे। सुऽकृते। सुकृत्ऽतरः। श्वात्रेण। यत्। पित्रोः। मुच्यसे। परि। आ। त्वा। पूर्वम्। अनयन्। आ। अपरम्। पुनरिति ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स ईश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने जगदीश्वर ! सुकृत्तरस्त्वं पुरूरवसे सुकृते मनवे द्यामवाशयः श्वात्रेण सह वर्त्तमानं त्वां विद्वांसः पूर्वं पुनरपरं चानयन् प्राप्नुवन्ति। हे जीव ! ये त्वां श्वात्रेण सह वर्त्तमानं पूर्वमपरं च देहं विज्ञापयन्ति यद्यतः समन्ताद् दुःखान्मुक्तो भवसि, यस्य च नियमेन त्वं पित्रोः सकाशान्महाकल्पान्ते पुनरागच्छसि, तस्य सेवनं ज्ञानं च कुरु ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) सर्वप्रकाशकः (अग्ने) परमेश्वर ! (मनवे) मन्यते जानाति विद्याप्रकाशेन सर्वव्यवहारं तस्मै ज्ञानवते मनुष्याय (द्याम्) सूर्य्यलोकम् (अवाशयः) प्रकाशितवान् (पुरूरवसे) पुरवो बहवो रवा शब्दा यस्य विदुषस्तस्मै। पुरूरवा बहुधा रोरूयते। (निरु०१०.४६) पुरूरवा इति पदनामसु पठितम् । (निघं०५.४) अनेन ज्ञानवान् मनुष्यो गृह्यते। अत्र पुरूपदाद् रु शब्द इत्यस्मात् पुरूरवाः। (उणा०४.२३७) इत्यसुन् प्रत्ययान्तो निपातितः। (सुकृते) यः शोभनानि कर्माणि करोति तस्मै (सुकृत्तरः) योऽतिशयेन शोभनानि करोतीति सः (श्वात्रेण) धनेन विज्ञानेन वा । श्वात्रमिति धननामसु पठितम् । (निघं०२.१०) पदनामसु च । (निघं०४.२) (यत्) यं यस्य वा (पित्रोः) मातुः पितुश्च सकाशात् (मुच्यसे) मुक्तो भवसि (परि) सर्वतः (आ) अभितः (त्वा) त्वां जीवम् (पूर्वम्) पूर्वकल्पे पूर्वजन्मनि वा वर्त्तमानं देहम् (पुनः) पश्चादर्थे ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    येन जगदीश्वरेण सूर्य्यादिकं जगद्रचितं येन विदुषा सुशिक्षा ग्राह्यते तस्य प्राप्तिः सुकृतैः कर्मभिर्भवति चक्रवर्त्तिराज्यादिधनस्य चेति ॥ ४ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) जगदीश्वर ! (सुकृत्तरः) अत्यन्त सुकृत कर्म करनेवाले (त्वम्) सर्वप्रकाशक आप (पुरूरवसे) जिसके बहुत से उत्तम-उत्तम विद्यायुक्त वचन हैं और (सृकृते) अच्छे-अच्छे कामों को करनेवाला है, उस (मनवे) ज्ञानवान् विद्वान् के लिये (द्याम्) उत्तम सूर्यलोक को (अवाशयः) प्रकाशित किये हुए हैं। विद्वान् लोग (श्वात्रेण) धन और विज्ञान के साथ वर्त्तमान (पूर्वम्) पूर्वकल्प वा पूर्वजन्म में प्राप्त होने योग्य और (अपरम्) इसके आगे जन्म-मरण आदि से अलग प्रतीत होनेवाले आपको (पुनः) बार-बार (अनयन्) प्राप्त होते हैं। हे जीव ! तू जिस परमेश्वर को वेद और विद्वान् लोग उपदेश से प्रतीत कराते हैं, जो (त्वा) तुझे (श्वात्रेण) धन और विज्ञान के साथ वर्त्तमान (पूर्वम्) पिछले (अपरम्) अगले देह को प्राप्त कराता है और जिसके उत्तम ज्ञान से मुक्त दशा में (पित्रोः) माता और पिता से तू (पर्यामुच्यसे) सब प्रकार के दुःख से छूट जाता तथा जिसके नियम से मुक्ति से महाकल्प के अन्त में फिर संसार में आता है, उसका विज्ञान वा सेवन तू (आ) अच्छे प्रकार कर ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    जिस जगदीश्वर ने सूर्य आदि जगत् रचा वा जिस विद्वान् से सुशिक्षा का ग्रहण किया जाता है उस परमेश्वर वा विद्वान् की प्राप्ति अच्छे कर्मों से होती है तथा चक्रवर्त्ति राज्य आदि धन का सुख भी वैसे ही होता है ॥ ४ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर वह ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अग्ने जगदीश्वर ! सुकृत्तरः त्वं पुरूरवसे सुकृते मनवे द्याम अवाशयः श्वात्रेण सह वर्त्तमानं त्वां विद्वांसः पूर्वं पुनरपरं च  आनयन् प्राप्नुवन्ति। हे जीव ! ये त्वां श्वात्रेण सह वर्त्तमानं पूर्वम् अपरम् च देहं विज्ञापयन्ति यत् यतः समन्तात्  दुःखान् मुक्तः भवसि यस्य च नियमेन त्वं पित्रोः सकाशात् महाकल्पान्ते पुनः आगच्छसि तस्य सेवनं ज्ञानं च कुरु॥४॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) परमेश्वर ! (सुकृत्तरः) योऽतिशयेन शोभनानि करोतीति स=अत्यन्त अच्छे या नेक काम कर्म करनेवाले, (त्वम्) सर्वप्रकाशकः=सर्वप्रकाशक आप, (पुरूरवसे) पुरवो बहवो रवा शब्दा यस्य विदुषस्तस्मै=जिसके बहुत से उत्तम-उत्तम विद्यायुक्त वचन हैं और  (सुकृते) यः शोभनानि कर्माणि करोति तस्मै=जिसके बहुत से उत्तम-उत्तम विद्यायुक्त वचन हैं और (मनवे) मन्यते जानाति विद्याप्रकाशेन सर्वव्यवहारं तस्मै ज्ञानवते मनुष्याय=ज्ञानवान् विद्वान् के लिये, (द्याम्) सूर्य्यलोकम्=सूर्यलोक को,  (अवाशयः) प्रकाशितवान्=प्रकाशित किये हुए हैं, (श्वात्रेण)=धन और विज्ञान के साथ वर्त्तमान, (त्वाम्)=आप, (विद्वांसः) आप विद्वान् लोग, (पूर्वम्)=पूर्वकल्प वा पूर्वजन्म में प्राप्त होने योग्य और (पुनः) पश्चादर्थे=बाद में, (अपरम्)=इसके आगे जन्म-मरण आदि से अलग प्रतीत होनेवाले आपको, (च)=भी, (आनयन्)=प्राप्त होते हैं। हे (जीव) ! (ये)=जो, (त्वाम्)=सर्वप्रकाशकः=सर्वप्रकाशक आप, (श्वात्रेण) धनेन विज्ञानेन वा=धन और विशिष्ट ज्ञान (सह)=के साथ, (वर्त्तमानम्)=वर्त्तमान, (पूर्वम्) पूर्वकल्पे पूर्वजन्मनि वा वर्त्तमानं देहम्=इस जन्म के शरीर में, (अपरम्) इसके आगे जन्म-मरण आदि से अलग प्रतीत होनेवाले आपको, (च)=भी, (देहम्)=शरीर, (विज्ञापयन्ति) =समझते हैं,  (यत्) यं यस्य वा=जो, (यतः)=इसलिये, (समन्तात्)=हर ओर से,  (दुःखान्)=दुःखों से, (मुक्तः)=मुक्त, (भवसि)=होते हो, (च) =और, (यस्य)=जिसके, (नियमेन)=नियम से, (त्वम्)=आप,  (मुच्यसे) मुक्तो भवसि=मुक्त होते हो, (सकाशात्)=निकट से, (महाकल्पान्ते)=महाकल्प के अन्त में, (पुनः) पश्चादर्थे=बाद में, (आगच्छसि)=आते हो, (तस्य)=उसका, (सेवनम्)=सेवन और (ज्ञानम्)=ज्ञान, (च)=भी, (कुरु)=कीजिये॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जिस जगदीश्वर ने सूर्य आदि जगत् रचा और जिससे विद्वान् द्वारा सुशिक्षा ग्रहण की जाती है। उस परमेश्वर की प्राप्ति अच्छे कर्मों से होती है तथा चक्रवर्त्ति राज्य आदि धन का सुख भी वैसे ही होता है ॥ ४ ॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणियाँ-(1) कल्प-काल की एक शानदार अवधि (ब्रह्मा का एक दिन या एक हजार युग, चार हजार, तीन सौ और बीस लाख वर्षों की अवधि, दुनिया की अवधि को मापने वाला; ब्रह्मा के एक माह में तीस ऐसे कल्प होते हैं ।
    (2) महाकल्प- जितने काल में एक व्रह्मा की आयु पूरी होती है, उसे महाकल्प कहते हैं।
    (3) चक्रवर्त्ति राज्य- चक्रवर्त्ति राज्य ऋग्वेद के मन्त्र संख्या (०१.०४.०७) में स्पष्ट किया गया है ॥ ४ ॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)


    हे (अग्ने) परमेश्वर ! (सुकृत्तरः) अत्यन्त अच्छे या नेक काम कर्म करनेवाले, (त्वम्) सर्वप्रकाशक आप, (पुरूरवसे) जिसके बहुत से उत्तम-उत्तम विद्यायुक्त वचन हैं। उस (मनवे) ज्ञानवान् विद्वान् के लिये (द्याम्) सूर्यलोक को  (अवाशयः) प्रकाशित किये हुए हैं। (श्वात्रेण)  धन और विज्ञान के साथ वर्त्तमान (त्वाम्) आप (विद्वांसः) विद्वान् लोग (पूर्वम्) पूर्वकल्प वा पूर्वजन्म में प्राप्त होने योग्य और (पुनः) बाद में, (अपरम्) इसके आगे जन्म-मरण आदि से अलग प्रतीत होने वाले आपको (च) भी (आनयन्) प्राप्त होते हैं। हे (जीव) ! (ये) जो (त्वाम्) सर्वप्रकाशक आप (श्वात्रेण) धन और विशिष्ट ज्ञान (सह) के साथ, (वर्त्तमानम्) वर्त्तमान (पूर्वम्) पूर्वकल्प वा पूर्वजन्म में प्राप्त होने योग्य और (अपरम्) इसके आगे जन्म-मरण आदि से अलग प्रतीत होने वाले आपको (च) भी (देहम्) शरीर (विज्ञापयन्ति) समझते हैं।  (यत्) जो (यतः) इसलिये (समन्तात्) हर ओर से  (दुःखान्) दुःखों से (मुक्तः) मुक्त (भवसि) होते हो (च) और (यस्य) जिसके (नियमेन) नियम से (त्वम्) आप  (मुच्यसे) मुक्त होते हो। (सकाशात्) निकट से  (महाकल्पान्ते) महाकल्प के अन्त में (पुनः) बाद में (आगच्छसि) आते हो। (तस्य) उसका (सेवनम्) सेवन और (ज्ञानम्) ज्ञान  (च) भी (कुरु) कीजिये॥४॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) सर्वप्रकाशकः (अग्ने) परमेश्वर ! (मनवे) मन्यते जानाति विद्याप्रकाशेन सर्वव्यवहारं तस्मै ज्ञानवते मनुष्याय (द्याम्) सूर्य्यलोकम् (अवाशयः) प्रकाशितवान् (पुरूरवसे) पुरवो बहवो रवा शब्दा यस्य विदुषस्तस्मै। पुरूरवा बहुधा रोरूयते। (निरु०१०.४६) पुरूरवा इति पदनामसु पठितम् । (निघं०५.४) अनेन ज्ञानवान् मनुष्यो गृह्यते। अत्र पुरूपदाद् रु शब्द इत्यस्मात् पुरूरवाः। (उणा०४.२३७) इत्यसुन् प्रत्ययान्तो निपातितः। (सुकृते) यः शोभनानि कर्माणि करोति तस्मै (सुकृत्तरः) योऽतिशयेन शोभनानि करोतीति सः (श्वात्रेण) धनेन विज्ञानेन वा । श्वात्रमिति धननामसु पठितम् । (निघं०२.१०) पदनामसु च । (निघं०४.२) (यत्) यं यस्य वा (पित्रोः) मातुः पितुश्च सकाशात् (मुच्यसे) मुक्तो भवसि (परि) सर्वतः (आ) अभितः (त्वा) त्वां जीवम् (पूर्वम्) पूर्वकल्पे पूर्वजन्मनि वा वर्त्तमानं देहम् (पुनः) पश्चादर्थे ॥ ४ ॥
    विषयः- पुनः स ईश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः- हे अग्ने जगदीश्वर ! सुकृत्तरस्त्वं पुरूरवसे सुकृते मनवे द्यामवाशयः श्वात्रेण सह वर्त्तमानं त्वां विद्वांसः पूर्वं पुनरपरं चानयन् प्राप्नुवन्ति। हे जीव ! ये त्वां श्वात्रेण सह वर्त्तमानं पूर्वमपरं च देहं विज्ञापयन्ति यद्यतः समन्ताद् दुःखान्मुक्तो भवसि, यस्य च नियमेन त्वं पित्रोः सकाशान्महाकल्पान्ते पुनरागच्छसि, तस्य सेवनं ज्ञानं च कुरु॥४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- येन जगदीश्वरेण सूर्य्यादिकं जगद्रचितं येन विदुषा सुशिक्षा ग्राह्यते तस्य प्राप्तिः सुकृतैः कर्मभिर्भवति चक्रवर्त्तिराज्यादिधनस्य चेति ॥ ४ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    'श्वात्र' द्वारा मुक्ति

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - अग्रणी प्रभो ! (त्वम्) - तू (मनवे) - ज्ञानी पुरुष के लिए (द्याम्) - मस्तिष्करूप द्युलोक को (अवाशयः) - [वाशृ शब्दे] ज्ञान की वाणियों से परिपूर्ण कर देता है , अर्थात् तू अपने समझदार भक्त के मस्तिष्क को ज्ञानोज्ज्वल करनेवाला है , 

    २. (पुरूरवसे) - [रु शब्दे] खूब ही स्तवन करनेवाले , (सुकृते) - पुण्यशाली के लिए तू (सुकृत्तरः) - उत्तम कार्यों को अत्यधिक करनेवाला है , अर्थात् स्तोता व पुण्य - प्रवण व्यक्ति के जीवन में उत्तम कर्म आपकी ही शक्ति व प्रेरणा से होते हैं । 

    ३. भक्त की इस प्रार्थना को सुनकर प्रभु कहते हैं कि (श्वात्रेण) - [धनेन विज्ञानेन वा - द०] शुद्ध अध्यात्म - सम्पत्ति व विज्ञान के द्वारा (यत्) - जो तू (पित्रोः) - माता - पिता से (मुच्यसे) - छूट जाता है , अर्थात् तुझे जन्म लेकर माता - पिता के दर्शन नहीं करने पड़ते , तो उस समय (त्वा) - तुझे ये पवित्र धन व विज्ञान (परि , आ) - सब ओर से (पूर्वम्) - अपने पूर्वस्थान में (अनयन्) - ले - जाते हैं । ब्रह्मलोक ही तो तेरा पूर्वस्थान है , तुझे वे 'श्वात्र' उस ब्रह्मलोक में ले - जानेवाले होते हैं । (अपरं पुनः न) - ये श्वात्र तुझे इस जन्म - मरण - चक्ररूप निचले लोक में नहीं ले - जाते , अर्थात् तेरे जन्म का कारण नहीं बनते । इस शुद्ध ज्ञान व धनों से तू मुक्तिलाभ करनेवाला होता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ज्ञानी को ज्ञान प्राप्त कराते हैं , स्तोता को पुण्यशाली बनाते हैं , शुद्ध ज्ञान व धन से मनुष्य जन्म - मरण के चक्र से ऊपर उठ जाता है । ये ज्ञान व धन उसे अपने पूर्व स्थान 'ब्रह्मलोक' में ले जाते हैं और उसे अपरलोक में आने से बचा देते हैं । 

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ईश्वर और आचार्य के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानमय! (त्वम्) तू ही (मनवे) मननशील (पुरुरवसे) बहुत से ज्ञानोपदेशों को धारण करने वाले, (सुकृते) उत्तम कर्मों के करनेवाले, पुण्याचारी जीव के उपकार के लिए (द्याम्) सूर्य और उसके समान ज्ञानप्रकाश के देने वाले बड़े ज्ञान का (अवाशयः) उपदेश करता है। हे जीव! पुरुष! (यत्) जब तू (पित्रोः) माता पिता के घर से (परिमुच्यसे) मुक्त या पृथक् होता है तब (श्वात्रेण) उसी परमेश्वर के दिये ज्ञान के निमित्त तेरे माता, पिता, बन्धु आदि (त्वा) तुझको (पूर्वम्) पहले गुरु, आचार्य के समीप (आ अनयन्) उपनयन द्वारा प्राप्त कराते हैं। और (पुनः) फिर (अपरम्) दूसरे उसी परमेश्वर के प्रति ये प्राणगण या विद्वान् जन तुझको उसी परमज्ञान के लिए (अनयन्) ले जाते हैं। अथवा—(यत् पित्रोः परि मुच्येसे) जब माता पिता के बन्धन से मुक्त होता है तब (श्वात्रेण) उस परमेश्वर के ज्ञान या व्यवस्था से ही पूर्व जन्म और अपर जन्म, तथा इस कल्प और अगले कल्प को तेरे कर्म आदि तुझे पुनः प्राप्त कराते हैं। राजा के पक्ष में—(मनवे) प्राणी, (पुरुरवसे) विद्वान्, (सुकृते) उत्तम कार्यकुशल इन सबके हित के लिए तू (द्याम् अवाशयः) राजसभा के प्रति आज्ञा देता है। जब तू माता पिता से मुक्त होता है तब तू सूर्य के समान पूर्व और पश्चिम दोनों राष्ट्र या भूमि या सामान्य और विशेष दोनों अधिकारों को प्राप्त होता है। भौतिक अग्नि जब दोनों उत्पादक अरणियों से मुक्त होता है तब प्रथम आहवनीय के निमित्त और फिर उसे होतागण गार्हपत्य के निमित्त वेदि के पूर्व में, और पुनः बाद में; पश्चिम भाग में ले जाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आंङ्गिरस ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ १–७, ९–१५, १७ जगत्यः । ८, १६, १८ त्रिष्टुभः । अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या जगदीश्वराने सूर्य इत्यादी जग निर्माण केलेले आहे व ज्या विद्वानाकडून सुशिक्षण मिळते त्या परमेश्वर व विद्वानाची प्राप्ती चांगल्या कर्मानेच होते आणि चक्रवर्ती राज्य इत्यादी धनाचे सुखही तसेच मिळते. ॥ ४ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of light and knowledge, greater creator of beneficence than anyone else, you create the light and heaven for the man of knowledge, divine speech and noble action. O soul, jiva, who are freed of the obligation and causal link of father and mother by virtue of knowledge and action, the same lord who led you to the previous birth takes you to the next, after this and even after moksha.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Then, what kind of that God is? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)=God, (sukṛttaraḥ)=those who do very good or noble deeds, (tvam)=all revealer you, (purūravase)=whose many excellent and well-knowledgeable words are there, [usa]=that, (manave)=for the learned scholar, (dyām) =to the Sun-world, (avāśayaḥ)=have been illumined, (śvātreṇa)=present with money and specific knowledge, (tvām)=you, (vidvāṃsaḥ)=scholars, (pūrvam)= attainable in previous kalpa or previous birth, [aura]=and, (punaḥ)=afterwards, (aparam) isake āge janma-maraṇa ādi se alaga pratīta hone vāle āpako (ca) bhī (ānayan) prāpta hote haiṃ| he (jīva) ! (ye) jo (tvām) sarvaprakāśaka āpa (śvātreṇa) dhana aura viśiṣṭa jñāna (saha) ke sātha, (varttamānam) varttamāna (pūrvam) pūrvakalpa vā pūrvajanma meṃ prāpta hone yogya aura (aparam)=beyond this, you seem to be separate from birth and death etc., (ca)=also, (deham)=body,(vijñāpayanti)=consider, (yat)=those, (yataḥ)=therefore, (samantāt)=from all sides, (duḥkhān)=from sorrows, (muktaḥ)=liberated, (bhavasi)=be, (ca)=and, (yasya)=whose, (niyamena)=by rule, (tvam)=you, (mucyase)=get liberated, (sakāśāt)=from close quarters, (mahākalpānte)=at the end of Mahakalpa, (punaḥ)=afterwards, (āgacchasi)=come, (tasya)=his, (sevanam)=worship, [aura]=and, (jñānam)=knowledge, (ca)=also,(kuru)=attain.

    English Translation (K.K.V.)

    O God! You who do very good or noble deeds, you are the Omniscient who has many excellent and well-knowledgeable words. For the learned scholar, having illuminated the Sun-world along with the wealth and specific knowledge were worthy to be attained in previous kalpa or life and later you also receive those who appear to be different from birth and death etc. O living being! The Omniscient and all revealer having wealth and special knowledge, which is attainable in the previous cycle or previous birth and who appears to be different from birth and death et cetera. Who is therefore free from sorrows from all directions and from whose rule you are free. You come from close quarters at the end of the Mahakalpa. Worship and know him as well.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God who created the Sun et cetera world and from whom the scholar receives good education. That God is attained by good deeds and the happiness of wealth like the Chakravarti kingdom etc. is in the same way.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    (1) Kalpa- A fabulous period of time (a day of Brahmā or one thousand Yugas, a period of four thousand, three hundred and twenty millions of years of mortals, measuring the duration of the world; a month of Brahmā is supposed to contain thirty such Kalpas. (2) Mahakalpa- The period in which the age of one Brahma is completed is called Mahakalpa. (3) Chakravarti kingdom- The Chakravarti kingdom has been explained in the Rigveda's mantra number (01.04.07).

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that God is taught in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God Illuminator of all, Thou Who art always the Doer of the best deeds, gavest knowledge about the sun and other objects to a person full of the light of Wisdom and thoughtful speech, engaged in doing meritorious acts. The enlightened persons attain Thee who art endowed with perfect Wisdom and the Lord of all wealth, in this or in the next life. O souls, acquire the knowledge of that Lord and adore Him who enables you to get emancipation and after enjoying it for a very long period known as Maha-Kalpa, again sends you to this earth through the parents. Serve and honor those wise men also who instruct you already learned about this and the next life.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मनवे) मन्यते जानाति विद्याप्रकाशेन सर्व व्यवहारं तस्मै ज्ञानवते मनुष्याय = To a person full of knowledge. (पुरूरवसे) पुरवः बहवः रवाः -शब्दा यस्य विदुषस्तस्मै पुरूरवा बहुधा रोरूयते (निरु० १०.४६ ) पुरूरवा इति पदनामसु पठितम् निघ० ५.४ ) अनेन ज्ञानवान् मनुष्यो गृह्यते । अत्न पुरूपपदाद् रु-शब्द इत्यस्मात् पुरूरवाः । उणादि० ४. २३७ इत्यसुन प्रत्ययान्तो निपातितः । = An enlightened person who makes noble speech. ( श्वात्रेण ) धनेन विज्ञानेन वा श्वात्रमिति धननामसु पठितम् ( निघ० २.१०) पदनामसु च ( निघ० ४.२ ) = With wealth or knowledge.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The attainment of God Who has created the sun and other objects of the world and of the wise men who impart true knowledge is possible only through meritorious acts. Good wealth in the form of Vast good Government can also be got only through noble deeds.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has interpreted मनवे as मन्यते नानाति विद्याप्रकाशन सर्व व्यवहारं तस्मै ज्ञानवते मनुष्याय as it is derived from मन-अवगमे मन् (man) to know. In the Shatapath Brahman 8.6.3.18 it is clearly stated ये विद्वांसस्ते मनव: ( शत०८.६.३.१८ ) But Sayanacharya forgetting the Meemansa Principle of परन्तु श्रुति सामान्यमात्रम् ( मीमांसा १.३३ ) wrongly takes it as the name of a particular person and says मनोरनुग्रहार्धम् i. e. for showing kindness to Manu. Prof. Wilson also follows him and translates the first stanza as “Thou Agni, hast announced heaven to Manu.” In the foot-note, he says further that “It is said, that Agni explained to Manu that 'heaven was to be gained by pious acts." How can Agni (if it is to be taken to mean fire) explain to Manu or any other person ? Griffith's translation is a bit better when he translates Manu as mankind. Agni, thou makest heaven to thunder for mankind." But it is also wrong as the word Manu derived from (Manu) to know does not stand for mankind as such, but only thoughtful or enlightened person as Rishi Dayananda explains and the passage from the Shatapath Brahmana 8.6.3.18 clearly shows. Rishi Dayananda interprets as पुरुरवा:- बहवः रवाःशब्दा यस्य विदुष तस्मै and quotes from Yaskacharya's Nirukta 10.46 to substantiate his interpretation, but Sayanacharya, Wilson, Griffith and others take Pururava to be the name of a particular King and refer to a story about him given in Vishnu Purana. How absurd it is to give preference to a Purana ignoring the interpretation given by Yaskacharya in Nirukta which Rishi Dayananda has quoted.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top