ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 23/ मन्त्र 10
त्वया॑ व॒यमु॑त्त॒मं धी॑महे॒ वयो॒ बृह॑स्पते॒ पप्रि॑णा॒ सस्नि॑ना यु॒जा। मा नो॑ दुः॒शंसो॑ अभिदि॒प्सुरी॑शत॒ प्र सु॒शंसा॑ म॒तिभि॑स्तारिषीमहि॥
स्वर सहित पद पाठत्वया॑ । व॒यम् । उ॒त्ऽत॒मम् । धी॒म॒हे॒ । वयः॑ । बृह॑स्पते । पप्रि॑णा । सस्नि॑ना । यु॒जा । मा । नः॒ । दुः॒ऽशंसः॑ । अ॒भि॒ऽदि॒प्सुः । ई॒श॒त॒ । प्र । सु॒ऽशंसाः॑ । म॒तिऽभिः॑ । ता॒रि॒षी॒म॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वया वयमुत्तमं धीमहे वयो बृहस्पते पप्रिणा सस्निना युजा। मा नो दुःशंसो अभिदिप्सुरीशत प्र सुशंसा मतिभिस्तारिषीमहि॥
स्वर रहित पद पाठत्वया। वयम्। उत्ऽतमम्। धीमहे। वयः। बृहस्पते। पप्रिणा। सस्निना। युजा। मा। नः। दुःऽशंसः। अभिऽदिप्सुः। ईशत। प्र। सुऽशंसाः। मतिऽभिः। तारिषीमहि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 23; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे बृहस्पते पप्रिणा सस्निना युजा त्वया सह वर्त्तमाना वयमुत्तमं वयो धीमहे यतो नोऽभिदिप्सुर्दुःशंसो नोऽस्मान्मेशत मतिभिः सह वर्त्तमानाः सुशंसा वयं प्रतारिषीमहि ॥१०॥
पदार्थः
(त्वया) (वयम्) (उत्तमम्) श्रेष्ठम् (धीमहे) दधीमहि। अत्र छन्दस्युभयथेत्यार्द्धधातुकत्वं बहुलं छन्दसीति शपो लोपश्च (वयः) जीवनम् (बृहस्पते) विद्वन् (पप्रिणा) परिपूर्णेन (सस्निना) शुचिना (युजा) युक्तेन (मा) (नः) अस्मान् (दुःशंसः) दुष्टः शंसो यस्य स चोरः (अभिदिप्सुः) अभितो दम्भमिच्छुः (ईशत) समर्थो भवेत् (प्र) (सुशंसाः) शोभनः शंसः स्तुतिर्येषान्ते (मतिभिः) प्रज्ञाभिः (तारिषीमहि) तरेम। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम् ॥१०॥
भावार्थः
ये पूर्णविद्यानां योगिनां शुद्धात्मनां सङ्गं कुर्वन्ति ते दीर्घजीविनो भवन्ति ये विद्वत्सहचरिता भवन्ति तेभ्यो दुःखं दातुं केऽपि न शक्नुवन्ति ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (बृहस्पते) विद्वान् (पप्रिणा) परिपूर्ण (सस्निना) शुद्ध पवित्र पदार्थ (युजा) युक्त (त्वया) तुम्हारे साथ वर्त्तमान (वयम्) हम लोग (उत्तमम्) श्रेष्ठ (वयः) जीवन को (धीमहे) धारण करें जिससे (अभिदिप्सुः) सब ओर से कपट की इच्छा करनेवाला (दुःशंसः) जिसकी दुष्ट कहावत प्रसिद्ध वह चोर (नः) हमलोगों का (मा,ईशत) ईश्वर न हो और (मतिभिः) प्रज्ञाओं के साथ वर्त्तमान (सुशंसाः) जिनकी सुन्दर स्तुति ऐसे हम लोग (प्र,तारिषीमहि) उत्तमता से तरें, सर्व विषयों के पार पहुँचें ॥१०॥
भावार्थ
जो पूर्ण विद्यावाले योगी शुद्धात्मा जनों का संग करते हैं, वे दीर्घजीवी होते हैं, जो विद्वानों के सहचारी होते हैं, उनके लिये दुःख देने को कोई भी समर्थ नहीं हो सकते हैं ॥१०॥
विषय
उत्तमं वयः=उत्कृष्ट जीवन
पदार्थ
१. हे (बृहस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो! (पप्रिणा) = हमारा पूरण करनेवाले (सस्निना) = हमारे जीवन का शोधन करनेवाले (युजा) = सदा साथ रहनेवाले (त्वया) = तेरे से (वयम्) = हम (उत्तमं वयः) = उत्कृष्ट जीवन को (धीमहे) = धारण करें। हम आपकी उपासना करें और आप हमारे जीवन की न्यूनताओं को दूर करके हमारे जीवन का शोधन करिए। इस प्रकार आपको साथी पाकर हम उत्कृष्ट जीवन को प्राप्त हों। २. (दुःशंस:) = बुराइयों का शंसन करनेवाला- सदा अशुभ को शुभ के रूप में चित्रित करके हमें अशुभ की ओर ले जानेवाला (अभिदिप्सुः) = हमारे इहलोक व परलोक दोनों का हिंसन करनेवाला व्यक्ति (नः) = हमारा (मा ईशत्) = ईश मत बन जाए। हम उसके प्रभाव में न आ जाएँ । उससे बहकाये जाकर हम अपना नाश न कर बैठें। ३. हम सदा (मतिभिः) = बुद्धिपूर्वक (सुशंसा:) = उत्तम स्तवन करते हुए (प्रतारिषीमहि) = इस भवसागर को तैर जाएँ । यहाँ विषयवासनारूप ग्राहों से गृहीत होकर बीच में ही डूब न जाएँ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का उपासन करते हुए उत्कृष्ट जीवन को प्राप्त करें। दुःशंस पुरुषों के प्रभाव में न आ जाएँ । प्रभुस्तवन से हमारी बुद्धि ठीक बनी रहे और हम भवसागर से तैर जाएँ ।
विषय
राज्यपालक राजा का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( बृहस्पते ) परमात्मन् ! हे विद्वन् ! राजन् ! ( त्वया ) तुझ (पप्रिणा) पालन करने और सब ऐश्वर्य से पूर्ण करने वाले, (सस्त्रिना) शुद्ध पवित्र आचारवान्, ( युजा ) सहायक से ( वयं ) हम ( उत्तमं ) उत्तम ( वयः ) ज्ञान, बल और दीर्घजीवन ( धीमहे ) धारण करें । ( दुःशंसः ) कुख्याति वाला, और दुष्ट शासन करने वाला, बुरे २ उपदेश देने वाला दुष्ट पुरुष ( अभिदिप्सुः ) सब को मारने और ठगने वाला वञ्चक पुरुष ( नः ) हम पर ( मा ईषत ) कभी प्रभुता न करे । हम लोग ( सुशंसाः ) उत्तम कीर्त्तिवाले, उत्तम उपदेष्टा होकर ( मतिभिः ) उत्तम वुद्धियों से युक्त होकर (तारिषीमहि) स्वयं तरें और अन्यों को संकटों से पार उतारें । इति त्रिंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ देवताः– १, ५,९,११, १७, १९ ब्रह्मणस्पतिः । २–४, ६–८, १०, १२–१६, १८ बृहस्पतिश्च ॥ छन्दः– १, ४, ५, १०, ११, १२ जगती । २, ७, ८, ९, १३, १४ विराट् जगती । ३, ६, १६, १८ निचृज्जगती । १५, १७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे पूर्ण विद्यावान, योगी, शुद्ध आत्मा असणाऱ्यांची संगती धरतात ते दीर्घजीवी होतात. जे विद्वानाचे सहकारी असतात त्यांना कुणीही दुःख देऊ शकत नाही. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Brhaspati, lord of the universe, ruler of the world, master of supreme knowledge, giver of fulfilment, purifier and sanctifier, ever helpful, may we, we pray, develop and promote the best life on earth. May no disreputable reviler or deceitful saboteur or destroyer rule over us. And may we, we pray, be righteous, faithful and honourable, and with our intelligent people swim across our problems of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
A common man seeks tips from the learned person.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! we seek to lead a a noble life in your company, leading a rich and full pure life. By doing so no ill intention and hostile person can become our master. Let us admire you with all the chosen wise language. This will take us across the life-span smoothly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who live in the company of fully learned, Yogi and pious persons, they enjoy long life. Nobody can harm or annoy them.
Foot Notes
(धीमहे) दधीमहि = Hold. (सस्निना) शुचिना। = By. pious man. (दु:शंस: ) दुष्ट: शंसो यस्य स चोरः । = Thief or criminal. (अभिदिप्सु:) अभितो दम्भमिच्छुः = Arrogant or a wicked. (तारिषीमहि ) तरेम । अत्न व्यत्ययेनात्मनेपदम् । = Cross.
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