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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 23/ मन्त्र 13
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    भरे॑षु॒ हव्यो॒ नम॑सोप॒सद्यो॒ गन्ता॒ वाजे॑षु॒ सनि॑ता॒ धनं॑धनम्। विश्वा॒ इद॒र्यो अ॑भिदि॒प्स्वो॒३॒॑मृधो॒ बृह॒स्पति॒र्वि व॑वर्हा॒ रथाँ॑इव॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भरे॑षु । हव्य॑ । नम॑सा । उ॒प॒ऽसद्यः॑ । गन्ता॑ । वाजे॑षु । सनि॑ता । धन॑म्ऽधनम् । विश्वाः॑ । इत् । अ॒र्यः । अ॒भि॒ऽदि॒प्स्वः॑ । मृधः॑ । बृह॒स्पतिः॑ । वि । व॒व॒र्ह॒ । रथा॑न्ऽइव ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भरेषु हव्यो नमसोपसद्यो गन्ता वाजेषु सनिता धनंधनम्। विश्वा इदर्यो अभिदिप्स्वो३मृधो बृहस्पतिर्वि ववर्हा रथाँइव॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भरेषु। हव्य। नमसा। उपऽसद्यः। गन्ता। वाजेषु। सनिता। धनम्ऽधनम्। विश्वाः। इत्। अर्यः। अभिऽदिप्स्वः। मृधः। बृहस्पतिः। वि। ववर्ह। रथान्ऽइव॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 23; मन्त्र » 13
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    यो हव्यो नमसोपसद्यो गन्ता सनिता बृहस्पतिरर्यो भरेषु वाजेषु धनन्धनं ववर्ह रथानिव विश्वा इदभिदिप्स्वो मृधो विववर्ह स इद्राज्यं कर्त्तुमर्हति ॥१३॥

    पदार्थः

    (भरेषु) पोषणेषु (हव्यः) आदातुमर्हः (नमसा) सत्कारेण (उपसद्यः) प्राप्तुं योग्यः (गन्ता) (वाजेषु) सङ्ग्रामेषु (सनिता) विभाजकः (धनन्धनम्) (विश्वाः) सर्वाः (इत्) एव (अर्य्यः) स्वामी (अभिदिप्स्वः) अभितो दिप्सवो दम्भितुमिच्छवो यासु ताः (मृधः) सङ्ग्रामान् (बृहस्पतिः) पूज्यपालकः (वि) (ववर्ह) वर्द्धयति (रथानिव) ॥१३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये गुणकर्मस्वभावैर्विजयमाना विमानादियानवत्सद्य ऐश्वर्यं प्राप्य सर्वेषु सत्कर्मसु विभज्य धनादिपदार्थान्प्रददति ते न्यायाधीशा भवितुमर्हन्ति ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (हव्यः) ग्रहण करने और (नमसा) सत्कार से (उपसद्यः) प्राप्त होने योग्य तथा (गन्ता) गमन करने (सनिता) विभाग करने (बृहस्पतिः) और पूज्यों की रक्षा करनेवाला (अर्य्यः) स्वामी (भरेषु) पुष्टियों और (वाजेषु) सङ्ग्रामों में (धनन्धनम्) धन-धन को बढ़ाता वा (रथानिव) रथों के समान (विश्वाः) समस्त (इत्) उन्हीं क्रियाओं को कि (अभिदिप्स्वः) जिनमें दम्भ की इच्छा करनेवाले विद्यमान तथा (मृधः) सङ्ग्रामों को (वि,ववर्ह) नहीं बढ़ाता है, वह राज्य करने को योग्य होता है ॥१३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो गुण-कर्म और स्वभावों से विजय को प्राप्त होते हुए विमानादि यानों के तुल्य शीघ्र ऐश्वर्य को प्राप्त होकर समस्त सत्कर्मों में विभाग कर धनादि पदार्थों को देते हैं, वे न्यायाधीश होने के योग्य हैं ॥१३॥

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    विषय

    'सब धनों के दाता' प्रभु

    पदार्थ

    १. वे प्रभु (भरेषु) = संग्रामों में (हव्यः) = पुकारने योग्य हैं। प्रभु ने ही तो वस्तुतः इन संग्रामों में हमें विजयी बनाना है। (नमसा) = नमन के द्वारा वे प्रभु (उपसद्यः) = उपस्थान के योग्य हैं। हमें विनीत होकर सदा प्रभुचरणों में उपस्थित होना चाहिये। (वाजेषु गन्ता) = संग्रामों में प्रभु ही हमारे शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले हैं-उनकी ओर जानेवाले हैं और वे प्रभु (धनंधनम्) = प्रत्येक धन को सनिता देनेवाले हैं [दाता सा०] । २. वे (अर्यः) = स्वामी (बृहस्पतिः) = ज्ञान के रक्षक प्रभु (इद) = निश्चय से (विश्वाः) = सब (अभिदिप्स्वः) = हमारा हिंसन करनेवाले (मृधः) = हिंसक शत्रुओं को (विववर्ह) = विशेषरूप से उखाड़ फेंकते हैं, (इव) = उसी प्रकार जैसे कि एक वीरयोद्धा संग्राम में (रथान्) = शत्रुरथों को तोड़-फोड़कर दूर फेंकनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम नम्रता से प्रभु का उपासन करें। प्रभु ही हमें संग्रामों में विजयी करेंगे। वे ही हमें सब धनों को प्राप्त करायेंगे ।

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    विषय

    राज्यपालक राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( सः ) वह ( बृहस्पतिः ) वेद, न्याय और राज्य का पालक राजा और संसार का पालक बृहस्पति परमेश्वर ( भरेषु ) संग्रामों में, यज्ञों में और प्रज्ञा के पालन पोषण के कार्यों में ( हव्यः ) सदा आदर पूर्वक स्वीकार करने और स्तुति करने योग्य, ( नमसा ) विनय और आदर से ( उपसद्यः ) प्राप्त करने योग्य ( वाजेषु गन्ता ) संग्राम कार्यों में जानेवाला, [ परमेश्वर, ( वाजेषु गन्ता ) ज्ञान और बलों में व्यापक, ] ( धनंधनं सनिता ) बहुत प्रकार के और बहुत से धनैश्वर्य को प्रजाओं में विभक्त करने वाला, ( अर्यः ) प्रजाओं का स्वामी ( विश्वाः ) समस्त ( अभिदिप्स्वंः ) नाश करने की इच्छुक ( मृधः ) नाशकारिणी शत्रु सेनाओं या युद्धों को ( रथान् इव ) शत्रु के रथों के समान ( वि ववर्ह ) संहार करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ देवताः– १, ५,९,११, १७, १९ ब्रह्मणस्पतिः । २–४, ६–८, १०, १२–१६, १८ बृहस्पतिश्च ॥ छन्दः– १, ४, ५, १०, ११, १२ जगती । २, ७, ८, ९, १३, १४ विराट् जगती । ३, ६, १६, १८ निचृज्जगती । १५, १७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे गुण, कर्म स्वभावाने विजय प्राप्त करून विमान इत्यादी यानाप्रमाणे शीघ्र ऐश्वर्य प्राप्त करतात व सत्कर्मात संपूर्ण धन खर्च करतात, ते न्यायाधीश होण्यायोग्य असतात. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    In the battles of production, defence and progress, O lord, worthy of access, invocation and invitation with gifts of homage for participation, leader in the battles of advancement, and dispenser of wealth and reward in every field of activity, Brhaspati, lord of the realm, father of all, we pray, take on all the strongholds of the proud intimidators and rout them all like their chariots.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of kingdom is further explained.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A capable ruler should always protect the great and reverent persons with honor and respectful approach. Such a ruler becomes master of wealth and power in the battlefield. Like a chariot, he moves to all directions and activities. Moreover, such a ruler does not pick up unnecessary struggles with arrogant persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Here is a simile. One who moves quickly like a fast aircraft and scores prosperity by proper distribution of wealth with his virtues actions and nature, such a person is capable to become a judge.

    Foot Notes

    (नमसा ) सत्कारेण। = With honor. (उपसद्य:) प्राप्तुं योग्यः = Desirable. (सनिता) विभाजकः = One who divides properly. (अभिदिप्सव:) अमितो दिप्सवो दम्भितुमिच्छवो यासु ता: = Arrogant in nature. (वि ववर्ह ) वर्द्धयति । = Does not increase or pick up.

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