ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 23/ मन्त्र 7
उ॒त वा॒ यो नो॑ म॒र्चया॒दना॑गसोऽराती॒वा मर्तः॑ सानु॒को वृकः॑। बृह॑स्पते॒ अप॒ तं व॑र्तया प॒थः सु॒गं नो॑ अ॒स्यै दे॒ववी॑तये कृधि॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । वा॒ । यः । नः॒ । म॒र्चया॑त् । अना॑गसः । अ॒रा॒ती॒ऽवा । मर्तः॑ । सा॒नु॒कः । वृकः॑ । बृह॑स्पते । अप॑ । तम् । व॒र्त॒य॒ । प॒थः । सु॒ऽगम् । नः॒ । अ॒स्यै । दे॒वऽवी॑तये । कृ॒धि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत वा यो नो मर्चयादनागसोऽरातीवा मर्तः सानुको वृकः। बृहस्पते अप तं वर्तया पथः सुगं नो अस्यै देववीतये कृधि॥
स्वर रहित पद पाठउत। वा। यः। नः। मर्चयात्। अनागसः। अरातीऽवा। मर्तः। सानुकः। वृकः। बृहस्पते। अप। तम्। वर्तय। पथः। सुऽगम्। नः। अस्यै। देवऽवीतये। कृधि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 23; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे बृहस्पते यो नोऽनागसो पथो मर्चयादुत वा योऽराती वा सानुको वृको मर्त्तो भवेत्तं पथोऽपवर्त्तय नोऽस्यै देववीतये सुगं कृधि ॥७॥
पदार्थः
(उत) अपि (वा) पक्षान्तरे (यः) जगदीश्वरो विद्वान् वा (नः) अस्मान् (मर्चयात्) सुमार्गे नयेत् (अनागसः) अनपराधिनः (अरातीवा) योऽरातीन्शत्रून् वनति संभजति (मर्त्तः) मनुष्यः (सानुकः) सानुगादिः (वृकः) स्तेनः (बृहस्पते) बृहतः पापाद्वियोजकः (अप) (तम्) (वर्त्तय) दूरीकुरु। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः (पथः) मार्गात् (सुगम्) सुष्ठु गच्छन्ति यस्मिन्मार्गे तम् (नः) अस्माकम् (अस्यै) प्रत्यक्षायै (देववीतये) देवेषु दिव्यगुणेषु व्याप्तये (कृधि) कुरु ॥७॥
भावार्थः
हे परमेश्वर! येऽस्मान् सुमार्गेण सुखं प्रापयन्ति तान् प्रापय। ये च दुष्पथं नयन्ति तान् वियोजय कृपया शुद्धं सरलं धर्म्यं मार्गञ्च प्रापय ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (बृहस्पते) बड़े पाप वियोग करनेवाले (यः) जो (नः) हम लोगों को (अनागसः) अनपराधी (पथः) मार्ग से (मर्चयात्) जो सुमार्गयान उसमें प्राप्त करें (उतवा) अथवा जो (अरातीवा) शत्रुओं का अच्छे प्रकार सेवन करता (सानुकः) और अनुगामी के साथ वर्त्तमान (वृकः) चोर (मर्त्तः) मनुष्य हो (तम्) उसको उस मार्ग से (अप,वर्त्तय) दूर करो (नः) हमारी (अस्यै) इस (देववीतये) दिव्य गुणों में व्याप्ति के लिये (सुगम्) सुगम मार्ग (कृधि) करो ॥७॥
भावार्थ
हे परमेश्वर! जो हम लोगों को सुमार्ग से सुख को प्राप्त कराते, उनको पहुँचाइये और जो दुष्पथ को पहुँचाते हैं, उनको अलग कीजिये तथा कृपा से शुद्ध सरल धर्मयुक्त मार्ग को प्राप्त कीजिये ॥७॥
विषय
अविघ्नम्
पदार्थ
१. (उत वा) = और (य:) = जो (अरातीवा) = शत्रुवत् हमारी ओर आनेवाला, (सानुक:) = [समुच्छ्रितः] अभिमान के कारण ऊपर उठाये हुए सिरवाला, (वृकः) = लोभी पुरुष (अनागसः) = निष्पाप (नः) = हमें (मर्चयात्) = हिंसित करे, (तम्) = उसको पथ:-हमारे मार्ग से अपवर्तया दूर करिए। वह हमें मार्ग पर आगे बढ़ने से रोक न सके। २. हे बृहस्पते ज्ञान के स्वामिन् प्रभो ! उसे हमारे मार्ग से दूर करके आप (नः) = हमारी (अस्यै) = इस (देववीतये) = दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिए व [देवानां वीतिर्यस्मिन्] यज्ञ के लिए (सुगं कृधि) = मार्ग को सुगमता से आने योग्य करिए।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुकृपा से दुष्टपुरुष हमारे उत्तम कर्मों में विघ्न न डाल सकें। हमारे कर्म निर्विघ्नता से पूर्ण हों।
विषय
राज्यपालक राजा का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( वृहस्पते ) परमात्मन् ! हे विद्वन् ! हे राजन् ! ( यः ) जो ( नः ) हम ( अनागसः ) अपराध रहितों को भी ( मर्चयात् ) पीड़ित करे और (अरातिवा) अदानशील, और शत्रु पुरुषों का संगी ( मर्चः ) मनुष्य ( सानुकः वृकः ) अपने साथी संगी लोगों सहित, वा ( सानुकः ) पर्वत शिखरों में विचरने वाले ‘वृक’ भेड़िये के समान हिंसक, डाकू है ( तं ) उसको (नः पथः) हमारे मार्ग से ( अप वर्त्तयः ) दूर कर । ( अस्यै ) इस ( देववीतये ) विद्वानों और उत्तम गुणों को प्राप्त करने और परमेश्वर के ज्ञान और विद्वानों की रक्षा करने के लिये ( नः ) हमारे लिये (सुगं) सुख से गमन करने योग्य उपाय और मार्ग (कृधि ) बना, उपदेश कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ देवताः– १, ५,९,११, १७, १९ ब्रह्मणस्पतिः । २–४, ६–८, १०, १२–१६, १८ बृहस्पतिश्च ॥ छन्दः– १, ४, ५, १०, ११, १२ जगती । २, ७, ८, ९, १३, १४ विराट् जगती । ३, ६, १६, १८ निचृज्जगती । १५, १७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे परमेश्वरा! जे आम्हाला सुमार्गांनी सुख प्राप्त करून देतात त्यांना सुख दे. जे दुष्पथाकडे नेतात त्यांना पृथक कर व कृपा करून शुद्ध-सरळ, धर्मयुक्त मार्ग प्राप्त करून दे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And whoever seize us and injure us, innocent and sinless as we move on, whoever the man-wolf with a train of allies, enemies in the garb of fellow travellers, O Brhaspati, lord saviour of the great and protector from the awesome, remove all such from the path so that it is easy to follow for the attainment of our divine destination.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More knowledge about God and learned persons is imparted below.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God and learned persons ! you always detach us from the sins. You lead us by the right path where there is no element of cry. One who keeps a vigilance on his enemies and chases the criminals with his friends and followers, let them have an easy going in order to nurture the divine qualities in life.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O God! get us company of learned people who take us on the right path. Those who mislead us, keep them off. Let us have your mercy and kindness to lead simple pious life.
Foot Notes
(मर्चयात्) सुमार्गे नयेत् | = Take to right path (अनागसः) अनपराघिन: = Those who are faultless or are not criminals. (अरातीवा) योऽरातीन् शत्रून् वनति संभजति । = Who faces his foes very well. (सानुक:) सानुगादिः । = With his friends and followers. (वर्त्तय ) दूरीकुरु । अनाऽन्येषामपीति दीर्घंः। = Keep off. (सुगम् ) सुष्ठ गच्छन्ति यस्मिन् मार्गे तम् । = Easy path. (देववीतये) देवेषु दिव्यगुणेषु व्याप्तये। = In order to nurture divine qualities.
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