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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 23/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    आ वि॒बाध्या॑ परि॒राप॒स्तमां॑सि च॒ ज्योति॑ष्मन्तं॒ रथ॑मृ॒तस्य॑ तिष्ठसि। बृह॑स्पते भी॒मम॑मित्र॒दम्भ॑नं रक्षो॒हणं॑ गोत्र॒भिदं॑ स्व॒र्विद॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वि॒ऽबाध्य॑ । प॒रि॒ऽरपः॑ । तमां॑सि । च॒ । ज्योति॑ष्मन्त॑म् । रथ॑म् । ऋ॒तस्य॑ । ति॒ष्ठ॒सि॒ । बृह॑स्पते । भी॒मम् । अ॒मि॒त्र॒ऽदम्भ॑नम् । र॒क्षः॒ऽहन॑म् । गो॒त्र॒ऽभिद॑म् । स्वः॒ऽविद॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ विबाध्या परिरापस्तमांसि च ज्योतिष्मन्तं रथमृतस्य तिष्ठसि। बृहस्पते भीमममित्रदम्भनं रक्षोहणं गोत्रभिदं स्वर्विदम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। विऽबाध्य। परिऽरपः। तमांसि। च। ज्योतिष्मन्तम्। रथम्। ऋतस्य। तिष्ठसि। बृहस्पते। भीमम्। अमित्रऽदम्भनम्। रक्षःऽहनम्। गोत्रऽभिदम्। स्वःऽविदम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 23; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्विषयमाह।

    अन्वयः

    हे बृहस्पते विद्वन् यथा सूर्य्यः परिरापस्तमांसि च विबाध्य प्रवर्त्तते तथार्त्तस्य मध्ये वर्त्तमानं भीममभित्रदम्भनं रक्षोहणं गोत्रभिदं स्वर्विदं ज्योतिष्मन्तं रथमातिष्ठसि स त्वं सुखमाप्नोषि ॥३॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (विबाध्य) निःसार्य्य (परिरापः) सर्वतः पापात्मकं कर्म (तमांसि) रात्रीः (च) (ज्योतिष्मन्तम्) बहुप्रकाशम् (रथम्) रमणीयस्वरूपम् (तस्य) सत्यस्य कारणस्य मध्ये (तिष्ठसि) (बृहस्पते) महतां पालक (भीमम्) भयंकरम् (अमित्रदम्भनम्) शत्रुहिंसनम् (रक्षोहणम्) रक्षसां दुष्टानां हन्तारम् (गोत्रभिदम्) मेघस्य भेत्तारम् (स्वर्विदम्) स्वरुदकं विन्दन्ति येन तम् ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्य्यवद्विद्याप्रकाशेनाऽविद्याऽन्धकारं निवर्त्य कारणमारभ्य कार्य्यं जगत् यथावज्जानन्ति ते विद्वांसो भवन्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (बृहस्पते) बड़ों की रक्षा करनेवाले विद्वान् जैसे सूर्य्य (परिरापः) सब ओर से पाप भरे हुए कर्म (तमांसि च) और रात्रियों को (विबाध्य) निकाल के प्रवृत्त होता वैसे (तस्य) सत्य कारण के बीच वर्त्तमान (भीमम्) भयंकर (अमित्रदम्भनम्) शत्रुहिंसन और (रक्षोहणम्) दुष्टों के मारने (गोत्रभिदम्) और मेघ के छिन्न-भिन्न करनेवाले (स्वर्विदम्) जिससे उदक को प्राप्त होते (ज्योतिष्मन्तम्) जो बहुत प्रकाशमान (रथम्) रमणीय स्वरूप उसको (आ,तिष्ठसि) अच्छे प्रकार स्थित होते हो, सो आप सुख को प्राप्त होते हो ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य्य के समान विद्याप्रकाश से अविद्यान्धकार को निकाल कर कारण को लेकर कार्य्य जगत् को यथावत् जानते हैं, वे विद्वान् होते हैं ॥३॥

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    विषय

    परिवाद व अज्ञान से दूर

    पदार्थ

    १. हे (बृहस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो ! (परिरापः) = [रप्=लप्] इधर-उधर निन्दा की बातों को– परिवादों को (च) = और (तमांसि) = अज्ञानान्धकारों को- तामसी वृत्तियों को (आ विबाध्य) = पूर्णतया बाधित करके- इनको हमारे से दूर करके आप (ज्योतिष्मन्तम्) = ज्ञान ज्योति से दीप्त (ऋतस्य रथम्) = ऋत के रथ पर (तिष्ठसि) = स्थित होते हैं। आप ही हमारे जीवनों को सुन्दर बनाते हैं- और हमारे इन निर्मलीभूत शरीररथों में स्थित होते हैं । २. यह शरीररथ (भीमम्) = शत्रुओं के लिए भयंकर होता है, (अमित्रदम्भनम्) = अमित्रों का हिंसन करनेवाला (रक्षोहणम्) = राक्षसीवृत्तियों का हनन करनेवाला बनता है। (गोत्रभिदम्) = अविद्यारूप पर्वत का विदारण करनेवाला और (स्वर्विदम्) = प्रकाश का प्राप्त करानेवाला होता है। यह सब होता तभी है जब यह उस 'बृहस्पति' ज्ञान के स्वामी प्रभु से अधिष्ठित होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - जब हमारा यह शरीररथ प्रभु से अधिष्ठित होता है तो हमारे में परिवादरुचिता समाप्त हो जाती है - हम स्वाध्यायशील होकर ज्योतिर्मय जीवनवाले होते हैं ।

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    विषय

    राज्यपालक राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( बृहस्पते ) महान् ब्रह्माण्ड के स्वामिन् ! विद्वन् ! आप सूर्य के समान् ( परि रपः ) पापों से पूर्ण कर्म को और ( तमांसि ) अज्ञानमय अन्धकारों को ( विबाध्य ) विविध उपायों से नाश करके ( ज्योतिष्मन्तं ) ज्योतिर्मय, प्रकाशवान्, ( भीमम् ) दुष्ट पुरुषों को भय देनेवाले, ( अमित्रदम्भनम् ) शत्रुओं के नाश करने वाले, (रक्षोहणं) दुष्ट, राक्षस स्वभाव विघ्नकारी पुरुषों के नाशक ( गोत्रमिदं ) मेघों को विद्युत् या सूर्य के समान, पर्वत के समान दुर्गम बाधाओं को भी नाश करने वाले, ( स्वर्विदम् ) जलों को मेघ के समान ( स्वः ) सुख के देने वाले, ( रथम् ) रथ में महारथी के समान रमणीय स्वरूप में ( ऋतस्य ) सत्य ज्ञान के कारण ( तिष्ठसि ) विराजते हैं । ( २ ) राजा पापों, अज्ञानों को दूर करे। तेजस्वी भयंकर शत्रुनाशक, दुष्टनाशक, शत्रुदेश के उच्छेदक, प्रजा सुखकारक, सत्यन्याय और धन के उत्पादक ( रथम् ) रथ पर विराजे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ देवताः– १, ५,९,११, १७, १९ ब्रह्मणस्पतिः । २–४, ६–८, १०, १२–१६, १८ बृहस्पतिश्च ॥ छन्दः– १, ४, ५, १०, ११, १२ जगती । २, ७, ८, ९, १३, १४ विराट् जगती । ३, ६, १६, १८ निचृज्जगती । १५, १७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सूर्याप्रमाणे विद्याप्रकाशाने अविद्यांधकार नाहीसा करून कारणासह कार्यजगताला यथायोग्य रीतीने जाणतात ते विद्वान असतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Brhaspati, lord of the grand universe and light of the world, having chained all sin and darkness by the rule of light and law, you ride the chariot of the dynamics of nature and rectitude, blazing with light and fire, awful to the lawless, shatterer of the enemies, destroyer of the wicked, breaker of the clouds and bringer of the showers of rain and bliss.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of learned person is mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The way sun dispels the darkness in the night, similarly the learned persons protect the great ones and punish the sinners. Such people are in the thick of truthfulness, killers of wicked enemies and smashers of clouds of distress. (As the smashed clouds bring down the rainwaters, similarly the scholars remove the distress.) That God is the seat (chariot) of the brilliance. Let us all have His pleasures.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    One who dispels the ignorance of others like the sun dispels the darkness and does the work in a balanced way, he is the scholar in real terms.

    Foot Notes

    (विबाध्य ) निःसार्य्य = The | = After taking out. ( परिरापः) सर्वतः पापात्मकं कर्म्म । = evil deeds. (ज्योतिष्मन्तम् ) बहुप्रकाशम् । =Full of divine light. (रथम्) रमणीयस्वरूपम् । = Seat of the beauty. (बृहस्ते ) महतां पालक | = Protector of great men. (अमित्नदम्भनम् ) शत्रुहिंसनम् । = Killers of wickeds. (स्वर्विंदम्) स्वरुदकं विन्दन्ति येन तम् = The source of water.

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