ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 23/ मन्त्र 6
त्वं नो॑ गो॒पाः प॑थि॒कृद्वि॑चक्ष॒णस्तव॑ व्र॒ताय॑ म॒तिभि॑र्जरामहे। बृह॑स्पते॒ यो नो॑ अ॒भि ह्वरो॑ द॒धे स्वा तं म॑र्मर्तु दु॒च्छुना॒ हर॑स्वती॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । नः॒ । गो॒ऽपाः । प॒थि॒ऽकृत् । वि॒ऽच॒क्ष॒णः । तव॑ । व्र॒ताय॑ । म॒तिऽभिः॑ । ज॒रा॒म॒हे॒ । बृह॑स्पते । यः । नः॒ । अ॒भि । ह्वरः॑ । द॒धे । स्वा । तम् । म॒र्म॒र्तु॒ । दु॒च्छुना॑ । हर॑स्वती ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नो गोपाः पथिकृद्विचक्षणस्तव व्रताय मतिभिर्जरामहे। बृहस्पते यो नो अभि ह्वरो दधे स्वा तं मर्मर्तु दुच्छुना हरस्वती॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। नः। गोऽपाः। पथिऽकृत्। विऽचक्षणः। तव। व्रताय। मतिऽभिः। जरामहे। बृहस्पते। यः। नः। अभि। ह्वरः। दधे। स्वा। तम्। मर्मर्तु। दुच्छुना। हरस्वती॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 23; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे बृहस्पते यो नोऽस्माकमुपरि ह्वरः क्रियते स दुच्छुनेव तं मर्मर्त्तु या स्वा हरस्वती तमभि दधे दधातु तया यो नो गोपाः पथिकृद्विचक्षणस्त्वमसि तदस्य तव व्रताय मतिभिः सह वयं जरामहे ॥६॥
पदार्थः
(त्वम्) (नः) अस्माकम् (गोपाः) रक्षकः (पथिकृत्) सकलसुकृतमार्गप्रचारकः (विचक्षणः) यो विविधान् सत्योपदेशाञ्चष्टे (तव) (व्रताय) शीलाय (मतिभिः) मेधाभिः सह (जरामहे) स्तूमहे (बृहस्पते) बृहत्सत्यप्रचारक (यः) (नः) अस्माकम् (अभि) (ह्वरः) क्रोधः। ह्वर इति क्रोधना० निघं० २। १३ (दधे) दधाति (स्वा) स्वकीया (तम्) (मर्मर्त्तु) भृशं प्राप्नोतु (दुच्छुना) दुष्टेन शुनेव (हरस्वती) बहुहरणशीला सेना ॥६॥
भावार्थः
येषां मार्गप्रकाशक उपदेशकः परमात्मा विद्वान् भवति ये सत्पुरुषसङ्गप्रिया वर्त्तन्ते तान् क्रोधाद्या दुर्गुणा नाप्नुवन्ति ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (बृहस्पते) बहुत सत्य का प्रचार करनेवाले (यः) जो (नः) हमलोगों के ऊपर (ह्वरः) क्रोध किया जाता वह (दुच्छुना) दुष्ट कुत्ते से जैसे-तैसे (तम्) उसको (मर्मर्त्तु) निरन्तर प्राप्त हो जो (स्वा) अपनी (हरस्वती) बहुतों को हरने का शील रखनेवाली सेना उस विषय को (अभि,दधे) सब ओर से धारण करे उस सेना से जो (नः) हम लोगों के (गोपाः) रक्षा करने (पथिकृत्) सकल सुकृत मार्ग का प्रचार करने वा (विचक्षणः) विविध सत्योपदेश करनेवाले (त्वम्) आप हैं उन (तव) आपके (व्रताय) शील के लिये (मतिभिः) मेधाओं के साथ हम लोग (जरामहे) स्तुति करते हैं ॥६॥
भावार्थ
जिनका मार्ग प्रकाश करने और उपदेश करनेवाला परमात्मा विद्वान् होता है, जो सत्पुरुषों के सङ्ग के प्रीति करनेवाले वर्त्तमान हैं, उनको क्रोध आदि दुर्गुण नहीं प्राप्त होते हैं ॥६॥
विषय
कटु विचारों का परिणाम
पदार्थ
१. हे (बृहस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (नः) = हमारे (गोपाः) = रक्षक हैं, (पथिकृत्) = हमारे लिए मार्ग बनानेवाले हैं, (विचक्षणः) = विशेषेण द्रष्टा हैं- हमारा ध्यान करनेवाले हैं [Look after] । (तव व्रताय) = आपके व्रत के लिए (मतिभिः जरामहे) = बुद्धिपूर्वक आपका स्तवन करते हैं। आपके गुणों का चिन्तन करते हुए उन गुणों को अपनाने के लिए यत्नशील होते हैं । उपासक प्रभु के व्रतों का चिन्तन करता है- उन व्रतों को अपनाने के लिए यत्नशील होता है और इस प्रकार प्रभु जैसा-प्रभु का ही छोटा रूप बनने का प्रयत्न करता है। २. हे प्रभो ! (यः) = जो भी (नः अभि) = हमारा लक्ष्य करके (ह्वरः दधे) = कुटिलता धारण करता है, (तम्) = उसको (स्वा दुच्छुना) = अपना ही दुरित [शुन गतौ]-अपना ही दुष्टाचरण (हरस्वती) = प्रबल वेगवाला होता हुआ (मर्मर्तु) = प्राणत्याग करानेवाला हो। अपनी कुटिलता का वह स्वयं शिकार हो जाय ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे रक्षक हों-हम कुटिलता से दूर रहें। जो हमारे साथ कुटिलता करता है-यह कुटिलता उसी का नाश करनेवाली हो ।
विषय
राज्यपालक राजा का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( बृहस्पते ) महान् विश्व के पालक ! प्रभो ! सत्य वेद के पालक विद्वन् ! ( त्वं) तू (नः) हमारा (गोपाः) रक्षक (पथिकृत्) उत्तम मार्ग बनाने वाला, ( विचक्षणः ) विविध सत्योपदेशों का उपदेष्टा, सब का विशेष रूप से सर्वोपरि द्रष्टा है । ( तव व्रताय ) तेरे महान् कार्य के लिये हम ( मतिभिः ) उत्तम मनन करने वाली बुद्धियों और मन्त्रों सहित ( तब ) तेरी ( जरामहे ) स्तुति करते हैं । ( नः ) हमपर (यः) जो भी कोई ( ह्वरः ) कुटिलता या क्रोध आदि ( दधे ) करे ( तं ) उसको (स्वा) अपनी (दुच्छुना) दुःखदायिनी प्रकृति ( हरस्वती ) वेगवती सेना या तलवार होकर ( ममर्तु ) नाश करे । मनुष्य को अपनी कुटिलता ही उसका नाशकारी हो । राष्ट्रपक्ष में दुष्ट शत्रु को ( स्वा ) हमारी अपनी सेना जाकर मारे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ देवताः– १, ५,९,११, १७, १९ ब्रह्मणस्पतिः । २–४, ६–८, १०, १२–१६, १८ बृहस्पतिश्च ॥ छन्दः– १, ४, ५, १०, ११, १२ जगती । २, ७, ८, ९, १३, १४ विराट् जगती । ३, ६, १६, १८ निचृज्जगती । १५, १७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्यांचा मार्गदर्शक, उपदेशक परमात्मा व विद्वान असतो तसेच जे सत्पुरुषांशी प्रीतीने वागतात त्यांच्याजवळ क्रोध इत्यादी गुण नसतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
You are our protector and saviour. You are our guide along the paths of right. You are the wise visionary, judge and teacher. We worship you with all our mind and intelligence so that we may abide by your divine rule of conduct. O lord of the great universe, whoever entertains and bears hate and enmity, anger and jealousy toward us may face the self-defeating forces of his own corrosive mind from within himself.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More about God and the pious persons.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God and pious persons ! like a watchdog, you always become angry on sinful acts. Let your mighty and disciplined army be available to us for our full protection. You are a noble path-finder and preach truthfulness. We seek your company with all our intents in order to get your virtues.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who seek guidance and teachings from God and pious learned persons and at the same time live in company of gentle persons, they are verily free from anger and other vices.
Foot Notes
(पथिकृत्) सकलसुकृतमार्गप्रचारकः । = A noble path-finder. (विचक्षण:) यो विविधान् सत्योपदेशान् चष्टे = One who preaches the truthfulness. (मतिभिः) मेधभिः सह | = With wisdom. (ह्वरः ) क्रोध: । ह्वर इंति क्रोधनाम (N. G. 2/13 ) = Anger. (मर्मत्तुं ) भृशं प्रप्नोतु = Come to us quickly. (हरस्वती) बहुहरणशीला सेना = The heavily defeated army. (जरामहे ) स्तूमहे |= We praise or worship you.
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