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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 23/ मन्त्र 12
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    अदे॑वेन॒ मन॑सा॒ यो रि॑ष॒ण्यति॑ शा॒सामु॒ग्रो मन्य॑मानो॒ जिघां॑सति। बृह॑स्पते॒ मा प्रण॒क्तस्य॑ नो व॒धो नि क॑र्म म॒न्युं दु॒रेव॑स्य॒ शर्ध॑तः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अदे॑वेव । मन॑सा । यः । रि॒ष॒ण्यति॑ । शा॒साम् । उ॒ग्रः । मय॑मानः । जिघां॑सति । बृह॑स्पते । मा । प्रण॑क् । तस्य॑ । नः॒ । व॒धः । नि । क॒र्म॒ । म॒न्युम् । दुः॒ऽएव॑स्य । शर्ध॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदेवेन मनसा यो रिषण्यति शासामुग्रो मन्यमानो जिघांसति। बृहस्पते मा प्रणक्तस्य नो वधो नि कर्म मन्युं दुरेवस्य शर्धतः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदेवेन। मनसा। यः। रिषण्यति। शासाम्। उग्रः। मन्यमानः। जिघांसति। बृहस्पते। मा। प्रणक्। तस्य। नः। वधः। नि। कर्म। मन्युम्। दुःऽएवस्य। शर्धतः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 23; मन्त्र » 12
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजविषयमाह।

    अन्वयः

    हे बृहस्पते यः शासामुग्रो मन्यमानो देवेन मनसा रिषण्यति जिघांसति तस्य मन्युं शर्द्धतो दुरेवस्य वधो मा प्रणक् नोऽस्माकं कर्म मा नि प्रणक् ॥१२॥

    पदार्थः

    (अदेवेन) अशुद्धेन (मनसा) (यः) (रिषण्यति) आत्मना हिंसितुमिच्छति (शासाम्) शासनकर्त्रीणाम् (उग्रः) भयंकरः (मन्यमानः) अभिमानी (जिघांसति) हिंसितुमिच्छति (बृहस्पते) बृहतो राज्यस्य पालक (मा) (प्रणक्) नष्टो भवेत् (तस्य) (नः) अस्माकम् (वधः) (नि) (कर्म) (मन्युम्) क्रोधम् (दुरेवस्य) दुःखेन प्राप्तुं योग्यस्य (शर्द्धतः) बलवतः॥१२॥

    भावार्थः

    ये राज्यं शासन्ति ते दुर्बुद्धीन् हिंसकान् वशं नयेयुः। यदि वशं न गच्छेयुस्तर्ह्येतान् प्रसह्य हन्युर्येन न्यायप्रणाशो न स्यात् ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में राज विषय को कहा है।

    पदार्थ

    हे (बृहस्पते) बड़े राज्य के पालनेवाले (यः) जो (शासाम्) शासना करनेवालियों का (उग्रः) भयङ्कर (मन्यमानः) अभिमानी (अदेवेन) अशुद्ध (मनसा) मनसे (रिषण्यति) हिंसा करने को अपने से चाहता है वा (जिघांसति) साधारण मारने की इच्छा करता है (तस्य) उसके (मन्युम्) क्रोध को (शर्द्धत) बलवत्ता से सहते हुए (दुरेवस्य) दुःख से प्राप्त होने योग्य का (वधः) नाश (मा,प्रणक्) मत नष्ट हो (नः) हमारा (कर्म) कर्म (नि) मत निरन्तर नष्ट हो ॥१२॥

    भावार्थ

    जो राज्यशासन करते हैं, वे निर्बुद्धि हिंसकों को वश करें, यदि वश में न आवें, तो इनको बलात्कारपूर्वक मारें, जिससे न्याय का नाश न हो ॥१२॥

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    विषय

    दुष्टों का शमन

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (अदेवेन मनसा) = अदेव अर्थात् आसुरवृत्तिवाले मन से रिषण्यति हमारी हिंसा करना चाहता है और यदि कोई (शासाम् उग्रः) = शासकों में उग्र पुरुष भी (मन्यमानः) = अभिमान की वृत्तिवाला होकर (जिघांसति) = हमें मारने की कामना करता है, हे (बृहस्पते) = ज्ञानी प्रभो ! (नः) = हमें (तस्य वधः) = उसका हिंसक (आयुध या प्रणक्) = मत प्राप्त हो । प्रभु की व्यवस्था से कोई अत्याचारी हमारे पर अत्याचार न कर सके। २. (दुरेवस्य) = दुष्ट आचरणवाले (शर्धतः) = बल के अभिमान में औरों को अपमानित करते हुए पुरुष के (मन्युम्) = क्रोध को (नि कर्म) = हम निश्चय से निराकृत करनेवाले हों। उसके अभिमान को तोड़कर उसे ठीक मार्ग पर ला सकें ।

    भावार्थ

    भावार्थ– आसुरभाववाले व्यक्ति हमें नुकसान न पहुँचा सकें। दुराचरणवाले पुरुषों के घमण्ड को हम तोड़नेवाले हों।

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    विषय

    राज्यपालक राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो जीव (अदेवेन) देव, अर्थात् उत्तम भाव से रहित, अशुद्ध चित्त से (रिषण्यति) दूसरे की हिंसा करता है, और ( शासाम् ) अन्य शासन करने वालों में या शस्त्रों हथियारों के कारण (उग्रः) अतिभयंकर प्रजा का उद्वेजक ( मन्यमानः ) गर्वी होकर ( जिघांसति ) हनन करना चाहता है । हे ( बृहस्पते ) बड़े राज्य के पालक ! हे ( बृहस्पते ) बृहती वेदवाणी के पालक न्यायकारिन् ! ( तस्य वधः ) उसका हथियार ( नः मा प्रणक् ) हमें स्पर्श न करे, अथवा ( नः ) हमारे हित के लिये ( तस्य वधः ) उसका न्यायोचित वध आदि दण्ड ( मा प्रणक् ) कभी नष्ट न हो । वह दण्ड उसको अवश्य प्राप्त हो । उस ( दुरेवस्य ) दुःखदायक चेष्टा वाले ( शर्धतः ) बलवान् पुरुष के भी ( मन्युं ) क्रोध और अभिमान को हम ( नि कर्म ) तिरस्कार करें, तुच्छ समझें, और नहीं सा करदें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ देवताः– १, ५,९,११, १७, १९ ब्रह्मणस्पतिः । २–४, ६–८, १०, १२–१६, १८ बृहस्पतिश्च ॥ छन्दः– १, ४, ५, १०, ११, १२ जगती । २, ७, ८, ९, १३, १४ विराट् जगती । ३, ६, १६, १८ निचृज्जगती । १५, १७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे राज्यशासन करतात, त्यांनी निर्बुद्ध हिंसकांना अंकित करावे. जर अंकित न झाल्यास त्यांचे जबरदस्तीने हनन करावे, कारण न्याय नष्ट होता कामा नये. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Whoever with a sinful mind injures or sabotages or wants to destroy the rulers, commanders, administrators, teachers and the devotees of Divinity and admirers of the human nation, fierce and proud though he be, O Brhaspati, lord of the realm, we pray and hereby determine, his weapon of attack must not reach us, nor shall the mean action of the evil minded ever bully and weaken our morale.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of kingdom is described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O ruler ! you administer a big kingdom, therefore those who violate the orders of administrators and are arrogant, of evil thinking and are inclined towards committing violence or attempt to kill someone, you should face their anger and devil acts. Let there be no loss on our side because of hard working and active persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who rule a kingdom, they should put a check on senseless marauders. And in case they do not toe in line then they should be forcibly finished, so that the rule of justice prevails.

    Foot Notes

    (प्रदेवेन मनसा) अशुद्धेन चिन्तनेन । = By evil thinking. (रिषण्यति) आत्मना हिसितुमिच्छति । = One who takes up the recourse to violence. (शासाम् ) शासनकर्त्रीणाम् । = Of the administrator. (मन्यमानः ) अभिमानी। = Arrogant. (प्रणक् ) नष्टो भवेत् । = Let it perish. ( दुरेवस्य) दुःखेन प्राप्तुं योग्यस्य = Of the one who is an exceptional person. (शर्द्धंत:) बलवतः = Of the powerful.

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