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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 23/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    अ॒ना॒नु॒दो वृ॑ष॒भो जग्मि॑राह॒वं निष्ट॑प्ता॒ शत्रुं॒ पृत॑नासु सास॒हिः। असि॑ स॒त्य ऋ॑ण॒या ब्र॑ह्मणस्पत उ॒ग्रस्य॑ चिद्दमि॒ता वी॑ळुह॒र्षिणः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न॒नु॒ऽदः । वृ॒ष॒भः । जग्मिः॑ । आ॒ऽह॒वम् । निःऽत॑प्ता । शत्रु॑म् । पृत॑नासु । स॒स॒हिः । असि॑ । स॒त्यः । ऋ॒ण॒ऽयाः । ब्र॒ह्म॒णः॒ । प॒ते॒ । उ॒ग्रस्य॑ । चि॒त् । द॒मि॒ता । वी॒ळु॒ऽह॒र्षिणः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनानुदो वृषभो जग्मिराहवं निष्टप्ता शत्रुं पृतनासु सासहिः। असि सत्य ऋणया ब्रह्मणस्पत उग्रस्य चिद्दमिता वीळुहर्षिणः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनानुऽदः। वृषभः। जग्मिः। आऽहवम्। निःऽतप्ता। शत्रुम्। पृतनासु। ससहिः। असि। सत्यः। ऋणऽयाः। ब्रह्मणः। पते। उग्रस्य। चित्। दमिता। वीळुऽहर्षिणः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 23; मन्त्र » 11
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे ब्रह्मणस्पते त्वं यतोऽनानुदो वृषभ आहवं जग्मिः पृतनासु शत्रुं निष्टप्ता सासहिरृणयाः सत्यो वीळुहर्षिण उग्रस्य चिद्दमितासि तस्मात्प्रशस्यो भवसि ॥११॥

    पदार्थः

    (अनानुदः) येऽनुददति तेऽनुदा न विद्यन्तेऽनुदा यस्य सः (वृषभः) श्रेष्ठः (जग्मिः) गन्ता (आहवम्) सङ्ग्रामम् (निष्टप्ता) नितरां सन्तापप्रदः (शत्रुम्) शातयितारम् (पृतनासु) वीराणां सेनासु (सासहिः) भृशं सोढा (असि) (सत्यः) सत्सु साधुः (णयाः) य णं याति प्राप्नोति सः (ब्रह्मणः) वेदस्य (पते) पालयितः (उग्रस्य) तीव्रस्य (चित्) अपि (दमिता) दमनकर्त्ता (वीळुहर्षिणः) बलेन बहु हर्षो विद्यते यस्य तस्य ॥११॥

    भावार्थः

    ये दातव्यं तत्क्षणं ददति गन्तव्यं गच्छन्ति प्राप्तव्यं प्राप्तुवन्ति दण्डनीयं दण्डयन्ति ते सत्यं ग्रहीतुं शक्नुवन्ति ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (ब्रह्मणस्पते) वेद के पालनेवाले आप जिससे (अनानुदः) अनानुद अर्थात् जो पीछे देते हैं वे जिस के नहीं विद्यमान वह (वृषभः) श्रेष्ठजन (आहवम्) सङ्ग्रामको (जग्मिः) जानेवाले (पृतनासु) वीरों की सेनाओं में (शत्रुम्) काटने दुःख देनेवाले वैरी को (निष्टप्ता) निरन्तर सन्ताप देने (सासहिः) निरन्तर सहने (णयाः) और ण को प्राप्त होनेवाले (सत्यः) सज्जनों में साधु (वीळुहर्षिणः) जिसको बल से बहुत हर्ष विद्यमान (उग्रस्य) तीव्र को (चित्) ही (दमिता) दमन करनेवाले (असि) हैं उससे प्रशंसनीय होते हैं ॥११॥

    भावार्थ

    जो देने योग्य पदार्थ को शीघ्र देते, जाने योग्य स्थान को जाते, पाने योग्य पदार्थ को पाते और दण्ड देने योग्य को दण्ड देते हैं, वे सत्य ग्रहण कर सकते हैं ॥११॥

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    विषय

    उपासक के 'ऋणया:' तथा कामुक के 'दमिता' प्रभु

    पदार्थ

    १. हे (ब्रह्मणस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो! आप (अनानुदः) = अनुपम दाता हैं- आपके समान दूसरा देनेवाला नहीं है। (वृषभ:) = आप सुखों का वर्षण करनेवाले हैं। (आहवं जग्मिः) = हे प्रभो ! आप हमारे अध्यात्मयुद्ध में कामादि शत्रुओं के प्रति आक्रमण करनेवाले हैं। (शत्रुं निष्टप्ता) = इन कामादि शत्रुओं को पूर्णरूप से संतप्त करनेवाले हैं। (पृतनासु) = संग्रामों में (सासहि:) = इन शत्रुओं को कुचल देनेवाले हैं । २. हे प्रभो! आप (सत्यः असि) = सत्यस्वरूप हैं । (ऋणया:) = हमारे ऋणों की अदायगी के लिए हमें समर्थ करनेवाले हैं- वस्तुतः आप ही हमें ऋणों से मुक्त करते हैं। आप से शक्ति पाकर हम इन ऋणों को चुका पाते हैं। आप (उग्रस्य चित्) = अत्यन्त प्रबल भी (वीढुहर्षिणः) = दृढ़ हर्षवाले [Erection] कामुक पुरुष के (दमिता असि) = दमन करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - उपासक को प्रभु सब ऋणों को चुकाने का सामर्थ्य देते हैं और कामुक पुरुष का दमन करते हैं।

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    विषय

    राज्यपालक राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( ब्रह्मणस्पते ) महान् राज्य और वेद ज्ञान के पालक राजन् ! तू ( अनानुदः ) अनुपम दानशील है। तेरे दान के पश्चात् भी उतना दान कोई देने में समर्थ नहीं होता । तू (वृषभः) बलवान्, ( आहवं जग्मिः ) युद्ध में जाने वाला, ( शत्रु निस्तप्ता ) शत्रु को खूब पीड़ित करने वाला, ( पृतनासु ) सेनाओं और संग्रामों में ( सासहिः ) शत्रु को पराजित करने हारा, ( सत्यः ) न्यायशील, ( ऋणयाः ) ऋण चुकाने चाला, और ( उग्रस्य ) तीव्र, स्वभाव के ( वीळुहर्षिणः ) वीर्य के मद से अति प्रसन्न, गर्वीले वीरों और शत्रुओं का भी ( दमिता ) दमन करने हारा ( असि ) हो । ( २ ) परमेश्वर सब से बड़ा दानी, मेघ के समान सुखों का वर्षक, ( आहवं जग्मिः ) उपासना को प्राप्त, ( शत्रु निस्तप्ता ) अन्यों के पीड़क को सन्ताप देनेवाला, (पृतनासु) मनुष्यों, जीवों के बीच में भी ( सासहिः ) सब से बड़ा सहनशील, सत्यस्वरूप ( ऋणयाः ) सब के अन्त में भी प्राप्त होने वाला, सब का दमनकारी है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ देवताः– १, ५,९,११, १७, १९ ब्रह्मणस्पतिः । २–४, ६–८, १०, १२–१६, १८ बृहस्पतिश्च ॥ छन्दः– १, ४, ५, १०, ११, १२ जगती । २, ७, ८, ९, १३, १४ विराट् जगती । ३, ६, १६, १८ निचृज्जगती । १५, १७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे देण्यायोग्य पदार्थांना शीघ्र देतात, जाण्यायोग्य स्थानी जातात, प्राप्त करण्यायोग्य पदार्थांना प्राप्त करतात, दंड देण्यायोग्य लोकांना दंड देतात, ते सत्य ग्रहण करू शकतात. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Brahmanaspati, lord of universal knowledge and ruler of the grand social order, uncompromising, mighty generous, responsive to the call for action, subduer of the enemy, unyielding and victorious in battles, ever true, insistent on obligation and fulfilment, you are controller of the fierce and restrainer of the passionate carouser.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    In the praise of pious learned person.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! you carry out the Vedic teachings. You always take the noble person to victory then and there, though the enemy may appear to be more brave and harassing. You are always good to tolerant and those who repay their loans in the truthful way. Even, your mighty and fast moving foes, are also full of your appreciation or praise.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who never delay in giving away to the deserving, reach their distant destinations fast, secure their desirable and punish the wrong persons. Such persons would grasp the truth (and victory).

    Foot Notes

    (अनानुदः) येऽनुददति तेऽनुदा न विद्यन्तेऽनुदा यस्य सः । = Those who do not give away instantly. (निष्टप्ता) नितरां सन्तापप्रदः। = Extremely tormenting. (शत्रुम् ) शातयितारम् = The enemy who gives trouble. (ऋणया:) य ऋणं याति प्राप्नोति सः = One whose credibility to repay loan is established. (वीठुहर्षिण:) बलेन बहुहर्षो विद्यते यस्य तस्य | = One who is extremely happy because of being mighty.

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