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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 23/ मन्त्र 15
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    बृह॑स्पते॒ अति॒ यद॒र्यो अर्हा॑द्द्यु॒मद्वि॒भाति॒ क्रतु॑म॒ज्जने॑षु। यद्दी॒दय॒च्छव॑स ऋतप्रजात॒ तद॒स्मासु॒ द्रवि॑णं धेहि चि॒त्रम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॑स्पते । अति॑ । यत् । अ॒र्यः । अर्हा॑त् । द्यु॒ऽमत् । वि॒ऽभाति॑ । क्रतु॑ऽमत् । जने॑षु । यत् । दी॒दय॑त् । शव॑सा । ऋ॒त॒ऽप्र॒जा॒त॒ । तत् । अ॒स्मासु॑ । द्रवि॑णम् । धे॒हि॒ । चि॒त्रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाद्द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु। यद्दीदयच्छवस ऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पते। अति। यत्। अर्यः। अर्हात्। द्युऽमत्। विऽभाति। क्रतुऽमत्। जनेषु। यत्। दीदयत्। शवसा। ऋतऽप्रजात। तत्। अस्मासु। द्रविणम्। धेहि। चित्रम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 23; मन्त्र » 15
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्विषयमाह।

    अन्वयः

    हे तप्रजात बृहस्पते विद्वन् यदर्य ईश्वरो जनेष्वर्हाद् द्युमत्क्रतुमच्छवसा यद्दीदयदतिविभाति तच्चित्रं द्रविणमस्मासु धेहि ॥१५॥

    पदार्थः

    (बृहस्पते) बृहतां पते (अति) (यत्) (अर्य्यः) ईश्वरः (अर्हात्) योग्यात् (द्युमत्) प्रकाशवत् (विभाति) प्रकाशते (क्रतुमत्) प्रशंसितप्रज्ञायुक्तम् (जनेषु) (यत्) (दीदयत्) प्रकाशकम् (शवसा) बलेन (तप्रजात) ते सत्याचरणे प्रकट (तत्) (अस्मासु) (द्रविणम्) धनम् (धेहि) (चित्रम्) अद्भुतम् ॥१५॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यद्यदीश्वरेण वेदद्वारा सत्यं प्रकाश्यते तत्तत्सर्वं प्रकाशनीयं यद्यत्स्वार्थमेषितव्यं तत्तदन्येभ्योऽप्येष्टव्यम् ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वान् विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (तप्रजात) सत्याचरण में प्रकट (बृहस्पते) बड़ों के पालनेवाले विद्वान् (यत्) जो (अर्यः) ईश्वर (जनेषु) मनुष्यों में (अर्हात्) योग्य व्यवहार से (द्युमत्) प्रकाशवान् (क्रतुमत्) प्रशंसित प्रज्ञायुक्त वा (शवसा) बल से (यत्) जो (दीदयत्) प्रकाशकर्त्ता (अति,विभाति) अतीव प्रकाशित होता है (तत्) उस (चित्रम्) अद्भुत (द्रविणम्) धन को (अस्मासु) हम लोगों में (धेहि) स्थापन कीजिये ॥१५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जो-जो ईश्वर ने वेदद्वारा सत्य का प्रकाश किया, वह-वह सब प्रकाश करें और जो-जो स्वार्थ चाहें, वह-वह सबके लिये चाहें ॥१५॥

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    विषय

    द्युमत्+क्रतुमत् [दीप्ति + शक्ति]

    पदार्थ

    १. हे (ऋतप्रजात) = ऋत द्वारा प्रादुर्भूत होनेवाले ! जब मनुष्य जीवन में 'ऋत' धारण करता है, सब क्रियाओं को बड़े नियम से करनेवाला होता है तभी उसे हृदयस्थ प्रभु का दर्शन होता है। (बृहस्पते) = हे ज्ञान के स्वामिन् प्रभो! (यद्) = जिस ब्रह्मवर्चस् को (अर्यः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (अति अर्हात्) = सब वस्तुओं से अधिक पूजित करता है, वह ब्रह्मवर्चस् (जनेषु) = लोगों में (द्युमत्) = ज्योतिर्मय होकर और (क्रतुमत्) = शक्तिवाला होकर (विभाति) = चमकता है अर्थात् उस ब्रह्मवर्चस् के कारण मस्तिष्क दीप्त होता है तो शरीर शक्तिसम्पन्न । २. (यत्) = जो ब्रह्मवर्चस् (शवस:) = बल के रूप में (दीदयत्) = चमकता है (तत्) = उस (चित्रं द्रविणम्) = अद्भुत ब्रह्मवर्चस् रूप धन को (अस्मासु) = हमारे में धेहि स्थापित करिए।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुकृपा से हमारे में ब्रह्मवर्चस् की स्थापना हो, जो ब्रह्मवर्चस् हमें मस्तिष्क में दीप्त व शरीर में शक्तिसम्पन्न करे।

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    विषय

    राज्यपालक राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( बृहस्पते ) बड़ों के भी पालक ! ( यत् ) जिस तेज और ऐश्वर्य को (अर्यः) सर्व श्रेष्ठ स्वामी और उत्तम व्यवसायी (अर्हात्) पाने योग्य है, वही प्राप्त कर सके, जो ( द्युमत् ) प्रकाश युक्त, ( जनेषु ) मनुष्यों के बीच ( क्रतुमत् ) कर्म और ज्ञान उत्पन्न करनेहारा होकर (विभाति) विशेष रूप से प्रकाशित होता है, ( यत् ) जो अन्य को भी ( दीदयत् ) चमकाता है, हे (ऋतप्रजात) वेद ज्ञान, सत्य, न्याय और धर्म से प्रसिद्ध पुरुष ! तू (अस्मासु) हम में ( तत् ) वही सर्वोत्तम ( चित्रं ) अति अद्भुत, अलौकिक (द्रविणं) ऐश्वर्य, ब्रह्मतेज, (घेहि) स्थापना करदे ।

    टिप्पणी

    बृहस्पते ! अति यदर्यो अर्हात् इत्येतया ऋचा परिदध्यात्तेजस्कामो ब्रह्मवर्चसकामः अतीववा अन्यान् ब्रह्मवर्चसमर्हति । द्युमदिति द्युमदिव वै ब्रह्मवर्चसं विभाति । यद् दीदयत् शवस ऋत प्रजातेति, दीदायेव वै ब्रह्मवर्चसं । तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम् इति । चित्रमिव वै ब्रह्मवर्चसं । ब्रह्मवर्चसी ब्रह्मयशसी भवतीति । ऐतरेय ब्राह्मणे ४।११ ॥ इत्येकत्रिंशो वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ देवताः– १, ५,९,११, १७, १९ ब्रह्मणस्पतिः । २–४, ६–८, १०, १२–१६, १८ बृहस्पतिश्च ॥ छन्दः– १, ४, ५, १०, ११, १२ जगती । २, ७, ८, ९, १३, १४ विराट् जगती । ३, ६, १६, १८ निचृज्जगती । १५, १७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वराने वेदाद्वारे जे सत्य ज्ञान प्रकट केले आहे ते ज्ञान आपण इतरांना द्यावे. जे स्वतःसाठी इछिले असेल तशीच इच्छा इतरांसाठी बाळगावी. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Brhaspati, lord of the great realm of life and nature, ruler and sustainer of the great, omnipotent master, lord of light by your own innate virtue, who shine among people while you do your acts of holiness and make others shine with your power and grandeur, lord manifested and manifesting in truth, rectitude and law, bless us too with that wondrous wealth of divinity by which you enlighten others.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of learned person is mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person you always side with those who observe truthfulness, are capable, and admired. They shine among the man-kind because of their noble behavior and power. Such brilliant persons achieve high reputation. Let us also bear the same strange wealth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The way God has created true light of the Vedas, same way a learned person should also accomplish the desires of all.

    Foot Notes

    (ऋतुमत् ) प्रशंसितप्रज्ञायुक्तम् = Equipped with nice and admired wisdom. (ऋतप्रजात) ऋते सत्याचरणे प्रकट = Symbol of truthfulness. (चित्रम्) अद्भुतम् । =Strange.

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