ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 23/ मन्त्र 8
त्रा॒तारं॑ त्वा त॒नूनां॑ हवाम॒हेऽव॑स्पर्तरधिव॒क्तार॑मस्म॒युम्। बृह॑स्पते देव॒निदो॒ नि ब॑र्हय॒ मा दु॒रेवा॒ उत्त॑रं सु॒म्नमुन्न॑शन्॥
स्वर सहित पद पाठत्रा॒तार॑म् । त्वा॒ । त॒नूना॑म् । ह॒वा॒म॒हे॒ । अव॑ऽस्पर्तः । अ॒धि॒ऽव॒क्तार॑म् । अ॒स्म॒युम् । बृह॑स्पते । दे॒व॒ऽनिदः॑ । नि । ब॒र्ह॒य॒ । मा । दुः॒ऽएवाः॑ । उत्ऽत॑रम् । सु॒म्नम् । उत् । न॒श॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रातारं त्वा तनूनां हवामहेऽवस्पर्तरधिवक्तारमस्मयुम्। बृहस्पते देवनिदो नि बर्हय मा दुरेवा उत्तरं सुम्नमुन्नशन्॥
स्वर रहित पद पाठत्रातारम्। त्वा। तनूनाम्। हवामहे। अवऽस्पर्तः। अधिऽवक्तारम्। अस्मयुम्। बृहस्पते। देवऽनिदः। नि। बर्हय। मा। दुःऽएवाः। उत्ऽतरम्। सुम्नम्। उत्। नशन्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 23; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुन्स्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे अवस्पर्त्तर्बृहस्पते वयं यं तनूनां त्रातारमस्मयुमधिवक्तारं त्वा त्वां हवामहे स त्वं देवनिदो निबर्हय यतो दुरेवा उत्तरं सुम्नं मोन्नशन् ॥८॥
पदार्थः
(त्रातारम्) रक्षितारम् (त्वा) त्वां जगदीश्वरं सभेशं वा (तनूनाम्) विस्तृतसुखसाधकानां शरीरादीनां पदार्थानां वा (हवामहे) स्वीकुर्महे (अवस्पर्त्तः) अवसा रक्षणेन दुःखात्पारकर्त्तः (अधिवक्तारम्) सर्वेषामुपर्युपदेशकम् (अस्मयुम्) अस्मान् कामयमानम् (बृहस्पते) बृहतां रक्षकः (देवनिदः) ये देवान् विदुषो दिव्यगुणान् वा निन्दन्ति तान् (नि) (बर्हय) नितरामुत्पाटय (मा) (दुरेवाः) दुराचरणाः (उत्तरम्) अर्वाक्कालीनम् (सुम्नम्) सुखम् (उत्) (नशन्) नाशयेयुः ॥८॥
भावार्थः
ये स्वेषामुपदेष्टारं रक्षितारञ्च परमात्मानमाप्तं कुर्वन्ति ते सर्वतो वर्द्धन्ते। ये विद्वदीश्वरवेदनिन्दका भविष्यदानन्दविच्छेदका भवेयुस्तान् सर्वतो निवारयेयुः ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (अवस्पर्त्तः) रक्षा कर दुःख से पार करने और (बृहस्पते) बड़ों की रक्षा करनेवाले हम लोग जिस (तनूनाम्) विस्तृत सुखसाधक शरीरादिकों वा अन्य पदार्थों के (त्रातारम्) रक्षा करने वा (अस्मयुम्) हम लोगों की कामना करने वा (अधिवक्तारम्) सबके ऊपर उपदेश करनेवाले (त्वा) आप जगदीश्वर वा सभापति को (हवामहे) स्वीकार करते हैं सो आप (देवनिदः) जो विद्वान् वा दिव्य गुणों की निन्दा करते उनको (नि,बर्हय) निरन्तर छिन्न-भिन्न करो, जिससे (दुरेवाः) दुष्टाचरण करनेवाले (उत्तरम्) उसके उपरान्त (सुम्नम्) सुख को (मा,उत् नशन्) मत नष्ट करावें ॥८॥
भावार्थ
जो अपना उपदेश करने और रक्षा करनेवाला परमात्मा वा आप्त विद्वान् मानते हैं, वे सब ओर से बढ़ते हैं। जो विद्वान् ईश्वर और वेद की निन्दा भविष्यत् का आनन्द नष्ट करनेवाले हों, उनको सब ओर से निवृत्त करावें ॥८॥
विषय
दुराचरण से कल्याण असम्भव
पदार्थ
१. हे (अवस्पर्तः) = सब उपद्रवों से पार करनेवाले (बृहस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो! हमारे (तनूनाम्) = शरीरों के (त्रातारम्) = रक्षक (त्वाम्) = आपको (हवामहे) = हम पुकारते हैं। (अधिवक्तारम्) = आप हमें आधिक्येन उपदेश देनेवाले हैं अथवा अधिष्ठातृरूपेण उपदेश देनेवाले हैं। (अस्मयुम्) = हमारे हित की कामनावाले हैं। प्रभु पूर्ण निःस्वार्थ होने से कभी किसी के अहित की कामना कर ही नहीं सकते। २. हे बृहस्पते ! आप (देवनिदः) = देवों की निन्दा करनेवाले को- दिव्यगुणों का उपहास करनेवालों को निबर्हय नष्ट करिए । वस्तुतः जब वे दिव्यगुणों से दूर होते जाते हैं तो मृत्यु वा विनाश के समीप होते चलते हैं। (दुरेवा:) = दुष्टगतिवाले पुरुष कभी (उत्तरं सुम्नम्) = उत्कृष्ट सुख को (मा उन्नशन्) = मत प्राप्त हों ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमारे शरीरों के रक्षक हैं। दिव्यगुणों से दूर होनेवालों का वे विध्वंस करते हैं ।
विषय
राज्यपालक राजा का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( बृहस्पते ) बड़े लोकों और राष्ट्रों के रक्षक परमेश्वर ! और राजन् ! हम ( त्वा ) मुझ को (तनूनां) अपने शरीरों और विस्तृत सुखदायक पदार्थों का ( त्रातारं हवामहे ) पालक मानते हैं । तुझे ही त्राता जानकर तेरी पुकार करते हैं । हे ( अवस्पर्तः ) अपने रक्षक, शत्रुनाशक बल से संकटों से पार उतारने वाले हम ! तुझे ( अधिवक्तारं ) सब पर अध्यक्ष रूप से आज्ञा देनेवाला और ( अस्मयुम् ) हमें चाहने वाला हमारा प्रिय स्वामी स्वीकार करते हैं । तू ( देवनिदः ) दिव्य गुणों और उत्तम विद्वानों और परमेश्वर की निन्दा करने वालों का ( नि बर्हय ) विनाश कर जिससे ( दुरेवाः ) दुष्ट आचरण वाले, दुर्बुद्धि लोग हमारे ( उत्तरं ) भविष्य में प्राप्त होने वाले या उत्कृष्ट ( सुम्नम् ) सुख को ( मा उत् नशन् ) न प्राप्त करें, न विनष्ट करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ देवताः– १, ५,९,११, १७, १९ ब्रह्मणस्पतिः । २–४, ६–८, १०, १२–१६, १८ बृहस्पतिश्च ॥ छन्दः– १, ४, ५, १०, ११, १२ जगती । २, ७, ८, ९, १३, १४ विराट् जगती । ३, ६, १६, १८ निचृज्जगती । १५, १७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
उपदेश करणाऱ्या व रक्षण करणाऱ्या परमात्म्याला, आप्त विद्वानांना जे मानतात त्यांची सगळीकडून वृद्धी होते. जे लोक विद्वान, ईश्वर, वेदाची निंदा करून भविष्याचा आनंद नष्ट करतात, त्यांचे सगळीकडून निवारण करावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Brhaspati, lord of the universe, master of supreme knowledge, ruler and defender of the world, we invoke you, protector and preserver of our bodies, senses and minds, saviour and protector from sin and evil acts, our pilot across suffering, lord supreme of our own, teacher and supreme commander. Brhaspati, uproot the revilers of divinity, nobility, brilliance and generosity of people. Let not the evil doers destroy the future peace and well-being of humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The benefits of the company of God and learned people are explained.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God and learned person ! both of you take us across the distress and protect the great. We seek your blessings in order to draw the physical happiness and guard our property. We accept the supremacy of God or of the Head of the Assembly because they love us and always take us on the right lines. We pray to you to punish and smash those persons who denounce the learned and disown the divine virtues. Let not such evil persons disturb our happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who accept the greatness of God and learned persons because of their fine teachings and protective powers, they grow in all spheres. Those who denounce God and Vedas, even though they may be learned, but because they spoil our future, we would remain aloof from them.
Foot Notes
(त्वा ) त्वं जगदीश्वरं सभेशं वा = God or head of the Assembly. (तनूनाम् ) विस्तृतसुखसाधकानां शरीरादीनां पदार्थानां वा = Those who provide physical happiness and guard our property. (अवस्पर्तः) अवसा रक्षणेन दुःखात्पारकर्त्त: ।= One who takes across the distress under his protective power. (अस्मयुम्) अस्मान् कामयमानम् = Desirous of ours. (देवनिदः) ये देवान् विदुषो दिव्यगुणान् वा निन्दन्ति तान् = Those who denounce the learned persons or divine qualities. (वर्हय) नितरामुत्पाटय । = Smash completely. (दुरेवाः) दुराचरणा: = Of evil deeds.
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