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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 23/ मन्त्र 18
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    तव॑ श्रि॒ये व्य॑जिहीत॒ पर्व॑तो॒ गवां॑ गो॒त्रमु॒दसृ॑जो॒ यद॑ङ्गिरः। इन्द्रे॑ण यु॒जा तम॑सा॒ परी॑वृतं॒ बृह॑स्पते॒ निर॒पामौ॑ब्जो अर्ण॒वम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तव॑ । श्रि॒ये । वि । अ॒जि॒ही॒त॒ । पर्व॑तः । गवा॑म् । गो॒त्रम् । उ॒त् । असृ॑जः । यत् । अ॒ङ्गि॒रः॒ । इन्द्रे॑ण । यु॒जा । तम॑सा । परि॑ऽवृतम् । बृह॑स्पते । निः । अ॒पाम् । औ॒ब्जः॒ । अ॒र्ण॒वम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव श्रिये व्यजिहीत पर्वतो गवां गोत्रमुदसृजो यदङ्गिरः। इन्द्रेण युजा तमसा परीवृतं बृहस्पते निरपामौब्जो अर्णवम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तव। श्रिये। वि। अजिहीत। पर्वतः। गवाम्। गोत्रम्। उत्। असृजः। यत्। अङ्गिरः। इन्द्रेण। युजा। तमसा। परिऽवृतम्। बृहस्पते। निः। अपाम्। औब्जः। अर्णवम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 23; मन्त्र » 18
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अङ्गिरो बृहस्पते तव श्रिये पर्वतो गवां यद्गोत्रं व्यजिहीतोदसृजः स त्वमिन्द्रेण युजा तमस्य परीवृतमपामौब्जोर्णवं निर्जनय ॥१८॥

    पदार्थः

    (तव) (श्रिये) (वि) (अजिहीत) प्राप्नोति (पर्वतः) मेघः (गवाम्) किरणानाम् (गोत्रम्) कुलम् (उदसृजः) उत्सृजति त्यजति (यत्) (अङ्गिरः) प्राणप्रिय (इन्द्रेण) सूर्येण (युजा) युक्तेन (तमसा) अन्धकारेण (परीवृतम्) सर्वत आवृतम् (बृहस्पते) (निः) (अपाम्) जलानाम् (औब्जः) आर्जवे भव (अर्णवम्) समुद्रम् ॥१८॥

    भावार्थः

    येन जगदीश्वरेण सूर्य्यादिकं जगन्निर्माय परस्परं सम्बन्धं कृतं तन्प्राणप्रियं विजानीत ॥१८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अङ्गिरः) प्राणप्रिय (बृहस्पते) बड़ों की पालना करनेवाले (तव) आपकी (श्रिये) लक्ष्मी के लिये (पर्वतः) मेघ (गवाम्) सूर्यमण्डल की किरणों के (यत्) जो (गोत्रम्) कुलको (वि,अजिहीत) विशेषता से प्राप्त होता वा (उदसृजः) किसी पदार्थ का त्याग करता सो आप (इन्द्रेण) सूर्य (युजा) युक्त (तमसा) अन्धकार से (परीवृतम्) सब प्रकार ढपा हुआ अग्नि जैसे हो वैसे (अपाम्) जलों के बीच (औब्जः) कोमलपन में प्रसिद्ध हूजिये तथा (अर्णवम्) समुद्र को (निः) निरन्तर प्रकट हूजिये ॥१८॥

    भावार्थ

    जिस ईश्वर ने सूर्यादिक जगत् का निर्माण कर परस्पर सम्बन्ध किया, उसको प्राणप्रिय जानो ॥१८॥

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    विषय

    गौवों का उत्सर्ग

    पदार्थ

    १. हे (अङ्गिरः) = गतिशील पुरुष [अगि गतौ] (तव श्रिये) = तेरी शोभा के लिए (पर्वतः) = यह अविद्या का पर्वत व्यजिहीत हिल जाता है। जब मनुष्य क्रियाशील जीवन बिताता है तो वह अज्ञानान्धकार से भी ऊपर उठता है । (यद्) = जब हे अङ्गिरः ! तू (गवां गोत्रम्) = गौओं के-इन्द्रियों के-समूह को (उद् असृजः) = विषयों के बन्धन से मुक्त करता है। अविद्या के कारण ही इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय में रागद्वेषवाली थीं। अविद्या गई और रागद्वेष गया। यही इन्द्रियों का विषय बन्धन से मुक्त होना है। २. (इन्द्रेण युजा) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभुरूप मित्र के साथ (तमसा परीवृतम्) = तमोगुण से आवृत्त हुए हुए (अपाम् अर्णवम्) = ज्ञानजलों के समुद्र को हे (बृहस्पते) = श्रेष्ठ ज्ञानिन् ! (निर् औब्जः) = सरल प्रवाहवाला बनाता है [To make straight] प्रभु की मित्रता में हम वृत्रविनाश करके ज्ञानसूर्य को दीप्त करनेवाले बनते हैं। ज्ञानसूर्य की दीप्ति हमारी शोभा बढ़ाती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- अविद्या विनष्ट करके हमें चाहिये कि इन्द्रियों को बन्धनमुक्त करें।

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    विषय

    राज्यपालक राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( बृहस्पते ) बड़े राष्ट्र के पालक ! हे (अंगिरः) तेजस्विन् ! जिस प्रकार ( पर्वतः गवां गोत्रम् विजिहीते उत्सृजति च ) मेघ किरणों के समूह को प्रथम रोक लेता है और फिर छिन्न भिन्न होकर जल त्याग देता है तो यह सब सूर्य की शोभा के लिये ही होता है इसी प्रकार ( पर्वतः ) पालन सामर्थ्य से युक्त शासक ( यत् ) जो ( गवां गोत्रम् ) भूमियों के समूहों या क्षेत्रों को (वि अजिहीत ) विशेष रूप से प्राप्त करता और फिर तेरे लिये ( उत् असृजः ) कर रूप से अन्न प्रदान करता है तो वह (तव श्रिये) तेरी ही लक्ष्मी के वृद्धि के लिये हो । और ( इन्द्रेण युजा ) विद्युत् के योग से ( तमसा ) अन्धकार या श्यामपन से ( परीवृतम् ) घिरे हुए ( अपाम् अर्णवम् ) जल के सागर अर्थात् प्रचुर जल को जो बृहस्पति प्राणों का पालक वायु पुनः नीचे गिरा देता है उसी प्रकार ( इन्द्रेण युजा ) वीर सेना पति के साथ मिलकर ( तमसा ) शत्रु के समूह दुःख शोकादि से घिरे हुए ( अपाम् अर्णवम् ) सैनिकों के महासागर के समान अपार सैन्य बल को ( निर् औब्जः ) नीचे गिरा देता, मारकर भूमि में गिरा देता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ देवताः– १, ५,९,११, १७, १९ ब्रह्मणस्पतिः । २–४, ६–८, १०, १२–१६, १८ बृहस्पतिश्च ॥ छन्दः– १, ४, ५, १०, ११, १२ जगती । २, ७, ८, ९, १३, १४ विराट् जगती । ३, ६, १६, १८ निचृज्जगती । १५, १७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या ईश्वराने सूर्य वगैरे जगाची निर्मिती करून परस्पर संबंध निर्माण केला आहे त्याला प्राणप्रिय समजा. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    For your grace and glory, O lord and sustainer of the great world, does the cloud collect the flood of sun-rays which you, dear as breath of life, release. In association with Indra, the sun, O lord of the wide realm, open and release the oceanic flood of the waters of life suppressed and enveloped in darkness and let it flow freely.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The functions and nature of God are further worshipped.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Dearest Lord! you are the protector of great men. In order to seek wealth from You and to harness the power of sun-rays and clouds, we seek virtues in abundance and not the adverse. As the sun dispels the deep darkness, same way You give us the softness of water in our nature and open the floodgates (oceans) of the knowledge to us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God has created the whole universe including the sun etc. We should know the existent relation between the Creator and Creation. He is the Dearest to us.

    Foot Notes

    (अजिहीत ) प्राप्नोति = Gets. (उदसृज:) उत्सृजति त्यजति = Abundance. ( परीवृतम् ) सर्वतः आवृतम्। = All-pervading or deep. (औन्ज :) आर्जबे भव: । = Softness.

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