ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 44/ मन्त्र 10
ऋषिः - अवत्सारः काश्यप अन्ये च दृष्टलिङ्गाः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
सहि क्ष॒त्रस्य॑ मन॒सस्य॒ चित्ति॑भिरेवाव॒दस्य॑ यज॒तस्य॒ सध्रेः॑। अ॒व॒त्सा॒रस्य॑ स्पृणवाम॒ रण्व॑भिः॒ शवि॑ष्ठं॒ वाजं॑ वि॒दुषा॑ चि॒दर्ध्य॑म् ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठसः । हि । क्ष॒त्रस्य॑ । म॒न॒सस्य॑ । चित्ति॑ऽभिः । ए॒व॒ऽव॒दस्य॑ । य॒ज॒तस्य॑ । सध्रेः॑ । अ॒व॒ऽत्सा॒रस्य॑ । स्पृ॒ण॒वा॒म॒ । रण्व॑ऽभिः । शवि॑ष्ठम् । वाज॑म् । वि॒दुषा॑ । चि॒त् । अर्ध्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सहि क्षत्रस्य मनसस्य चित्तिभिरेवावदस्य यजतस्य सध्रेः। अवत्सारस्य स्पृणवाम रण्वभिः शविष्ठं वाजं विदुषा चिदर्ध्यम् ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठसः। हि। क्षत्रस्य। मनसस्य। चित्तिऽभिः। एवऽवदस्य। यजतस्य। सध्रेः। अवऽत्सारस्य। स्पृणवाम। रण्वऽभिः। शविष्ठम्। वाजम्। विदुषा। चित्। अर्ध्यम् ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 44; मन्त्र » 10
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्याश्चित्तिभिर्यस्यैवावदस्य यजतस्याऽवत्सारस्य मनसस्य सध्रेः क्षत्रस्य सम्बन्धं स्पृणवाम विदुषा चिदर्ध्यं रण्वभिः शविष्ठं वाजं स्पृणवाम स ह्यस्मान् स्पृहेत् ॥१०॥
पदार्थः
(सः) (हि) (क्षत्रस्य) राजकुलस्य राष्ट्रस्य वा (मनसस्य) यन्मन्यते तस्य (चित्तिभिः) चयनक्रियाभिः (एवावदस्य) एवान् प्राप्तान् गुणान् वदन्ति येन तस्य (यजतस्य) यजन्ति सङ्गच्छन्ते येन तस्य (सध्रेः) सहस्थानस्य (अवत्सारस्य) योऽवतो रक्षकान् सरति प्राप्नोति तस्य (स्पृणवाम) अभीच्छेम (रण्वभिः) रमणीयैः (शविष्ठम्) अतिशयेन बलिष्ठम् (वाजम्) विज्ञानवन्तम् (विदुषा) (चित्) (अर्ध्यम्) अर्द्धे भवम् ॥१०॥
भावार्थः
ये मनुष्या अहर्निशं राज्योन्नतिं चिकीर्षन्ति ते महाराजा जायन्ते ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (चित्तिभिः) इकट्ठे करनेरूप क्रियाओं से जिस (एवावदस्य) एवावद अर्थात् प्राप्त गुणों को कहते हैं जिससे वा (यजतस्य) मिलते हैं जिससे वा जो (अवत्सारस्य) रक्षकों को प्राप्त होते और (मनसस्य) माना जाता और उस (सध्रेः) तुल्य स्थानवाले (क्षत्रस्य) राजकुल वा राज्य के सम्बन्ध की (स्पृणवाम) इच्छा करें तथा (विदुषा) विद्वान् से (चित्) भी (अर्ध्यम्) अर्द्ध में उत्पन्न की तथा (रण्वभिः) रमणीयों से (शविष्ठम्) अत्यन्त बलिष्ठ (वाजम्) विज्ञानवान् की हम इच्छा करें (स, हि) वही हम लोगों की इच्छा करे ॥१०॥
भावार्थ
जो मनुष्य दिन-रात्रि राज्य की उन्नति करने की इच्छा करते हैं, वे महाराज होते हैं ॥१०॥
विषय
नायक होने योग्य पुरुष ।
भावार्थ
भा०- (सः हि) वह ही नायक होने योग्य है । जो (क्षत्रस्य) वीर्यवान्, प्रजा को नाश होने से बचाने वाले, ( मनसस्य ) उत्तम चित्तवान् एवं मननशील, ( एव-वदस्य ) आगे जाने योग्य मार्ग का उपदेश करने वाले ( यजतस्य ) दानशील, सत्संगी, पूज्य ( सध्रेः) सदा साथ देने वाले, ( अवत्सारस्य ) राष्ट्र की रक्षा करने वालों के बीच में स्वयं सारवान्, बलशाली वा उन पालक पुरुषों के बने उत्तम सैन्य बल के स्वयं भी नायक के ( शविष्टं ) अति बलशाली ( विदुषा चित् अर्ध्यम् ) विद्वान् पुरुषों से भी समृद्ध, ( वाजं ) बल, ज्ञान और ऐश्वर्य को ( चित्तिभिः ) उत्तम सञ्चित समृद्धियों, ज्ञानों और ( रण्वभिः ) रमणीय विचारों और उत्तम धनों, भवनों और कर्मों से ( स्पृणवाम ) और भी समृद्ध करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवत्सारः काश्यप अन्थे च सदापृणबाहुवृक्तादयो दृष्टलिंगा ऋषयः ॥ विश्वदेवा देवताः ॥ छन्दः–१, १३ विराड्जगती । २, ३, ४, ५, ६ निचृज्जगती । ८, ६, १२ जगती । ७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, ११ स्वराट् त्रिष्टुप् । १४ विराट् त्रिष्टुप् । १५ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'क्षत्र-मनस-एवावद - यजत-सध्रि-अवत्सार'
पदार्थ
[१] (सः) = वह प्रभु (हि) = ही (विदुषा चित्) = ज्ञानी पुरुषों से भी (अर्ध्यम्) = अपने अन्दर समृद्ध करने योग्य (शविष्ठं वाजम्) = खूब क्रियाशील [शवतिर्गतिकर्मा] शक्ति को उपासक में [स्पृणोति=grant, bestow] भरता है। प्रभु उपासक को ज्ञानी व शक्ति सम्पन्न बनाता है। [२] हम सब इस प्रकार प्रभु उपासना के द्वारा (क्षत्रस्य) = क्षतों से त्राण करनेवाले रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त होनेवाले, (मनसस्य) = विचारशील, (एवावदस्य) = सदा सत्य बोलनेवाले, जैसी चीज है वैसा ही कहनेवाले, (यजतस्य) = यज्ञशील, (सधे:) = सब के साथ मिलकर चलनेवाले, (अवत्सारस्य) = सारभूत सोम शक्ति का रक्षण करनेवाले पुरुष के (रण्वभिः) = रमणीय (चित्तिभिः) = विचारों के साथ उस बल को [शविष्ठं वाजम्] (स्पृणवाम) = अपने में पूरित करें [पूरयाम सा०] । हम रमणीय विचारोंवाले व बलशाली बनकर 'क्षत्र, मनस, एवावद, यजत, सध्रि व अवत्सार' बनें। ऐसा बनना ही हमारे जीवन का लक्ष्य हो । यदि हम प्रभु स्तवन करते हुए ऐसा नहीं बनते, तो अवश्य हमारे स्तवन में कहीं न कहीं त्रुटि है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु स्तवन से शक्ति व ज्ञान को प्राप्त करके [क] सबका रक्षण करनेवाले हों, [ख] विचारशील हों, [ग] सत्य बोलें, [घ] यज्ञशील हों, [ङ] सब के साथ मिलकर चलें, [च] शक्ति का रक्षण करनेवाले बनें ।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे रात्रंदिवस राज्याच्या उन्नतीची इच्छा करतात ती महाराज (महत) असतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
With our collective thoughts and intentions and with all our love and delight, we desire to have that ruler for the social order whose high strength and dynamism is respected by the wise and enlightened scholars, who is a strong disciplinarian and organiser, who commands intelligence and eloquence, who is a holy and cooperative man of yajna, sociable as a friend and who can preserve, protect, defend, promote and enlighten the people and the system. Only such a person deserves to be the ruler.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of enlightened are highlighted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! let that royal family or State like us, whose relation we love and value intensely with the acts of collecting virtues (following on his footsteps. Ed.). Indeed he is endowed with virtues, is unifier, protector, thoughtful and living together among his subjects with love. Let us also love that man, because he is full of sublime knowledge and is very mighty, and ever to be supported with charming dealings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons become great rulers who day and night desire the progress or advancement of the State.
Foot Notes
( क्षत्रस्य) राजकुलस्य राष्ट्रस्य वा । क्षत्रं हि राष्ट्रम् (ऐतरेय ब्राह्मणे 7,22)। = Of the royal family or State. (एवावदस्य ) एवान् प्राप्तान् गुणान् वदन्ति येन तस्य । = By which virtues are expressed. ( स्पृणवाम) अभीच्छेम् । स्पृ-प्रीतिसेवनयोः (भ्वा० ) अत्र प्रीत्यर्थकः | = Intensely desire.
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