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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 44/ मन्त्र 13
    ऋषिः - अवत्सारः काश्यप अन्ये च दृष्टलिङ्गाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सु॒तं॒भ॒रो यज॑मानस्य॒ सत्प॑ति॒र्विश्वा॑सा॒मूधः॒ स धि॒यामु॒दञ्च॑नः। भर॑द्धे॒नू रस॑विच्छिश्रिये॒ पयो॑ऽनुब्रुवा॒णो अध्ये॑ति॒ न स्व॒पन् ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒त॒म्ऽभ॒रः । यज॑मानस्य । सत्ऽप॑तिः । विश्वा॑साम् । ऊधः॑ । सः । धि॒याम् । उ॒त्ऽअञ्च॑नः । भर॑त् । धे॒नुः । रस॑ऽवत् । शि॒श्रि॒ये॒ । पयः॑ । अ॒नु॒ऽब्रु॒वा॒णः । अधि॑ । ए॒ति॒ । न । स्व॒पन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुतंभरो यजमानस्य सत्पतिर्विश्वासामूधः स धियामुदञ्चनः। भरद्धेनू रसविच्छिश्रिये पयोऽनुब्रुवाणो अध्येति न स्वपन् ॥१३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुतम्ऽभरः। यजमानस्य। सत्ऽपतिः। विश्वासाम्। ऊधः। सः। धियाम्। उत्ऽअञ्चनः। भरत्। धेनुः। रसऽवत्। शिश्रिये। पयः। अनुऽब्रुवाणः। अधि। एति। न। स्वपन् ॥१३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 44; मन्त्र » 13
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वान् किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यो विद्वान् यजमानस्य सुतम्भरो विश्वासां धियामुदञ्चन ऊधः सत्पती रसवत्पयो धेनुरिव विद्यां भरद्धर्म शिश्रिये न स्वपन्नन्यान् प्रत्यनुब्रुवाणः सत्यस्याध्येति स एव सत्कर्त्तव्योऽस्ति ॥१३॥

    पदार्थः

    (सुतम्भरः) य उत्पन्नं जगद् बिभर्ति (यजमानस्य) सत्कर्त्तुः (सत्पतिः) सत्पुरुषाणां पालकः (विश्वासाम्) सर्वासाम् (ऊधः) ऊर्ध्वं गमयिता (सः) (धियाम्) प्रज्ञानां कर्म्मणां वा (उदञ्चनः) उत्कृष्टतां प्रापकः (भरत्) धरति (धेनुः) (रसवत्) बहुरसयुक्तम् (शिश्रिये) श्रयति (पयः) दुग्धमिव (अनुब्रुवाणः) पठित्वाऽनूपदिशन् (अधि) (एति) स्मरति (न) निषेधे (स्वपन्) शयानः सन् ॥१३॥

    भावार्थः

    स एवोत्तमः पुरुषोऽस्ति यः कृतज्ञ आप्तसेवाप्रियः समग्रमनुष्येभ्यो बुद्धिप्रदो धेनुवत्सत्योपदेशवर्षकोऽविद्यादिक्लेशेभ्यः पृथग्वर्त्तमानोऽस्ति स एव सर्वैः सङ्गन्तव्यः ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो विद्वान् (यजमानस्य) सत्कार करनेवाला (सुतम्भरः) उत्पन्न जगत् को धारण करनेवाला (विश्वासाम्) सम्पूर्ण (धियाम्) प्रज्ञान और कर्म्मों का (उदञ्चनः) उत्कृष्टता को प्राप्त कराने और (ऊधः) ऊपर को पहुँचाने और (सत्पतिः) सत्पुरुषों का पालन करनेवाला (रसवत्) बहुत रस से युक्त (पयः) दुग्ध को जैसे (धेनुः) गौ वैसे विद्या को (भरत्) धारण करता और धर्म्म का (शिश्रिये) आश्रयण करता और (न)(स्वपन्) शयन करता हुआ अन्यों के प्रति (अनु, ब्रुवाणः) पढ़कर पीछे उपदेश देता हुआ सत्य का (अधि, एति) स्मरण करता है (सः) वही सत्कार करने योग्य है ॥१३॥

    भावार्थ

    वही उत्तम पुरुष है, जो कृतज्ञ और यथार्थवक्ता जनों की सेवा में प्रिय, सम्पूर्ण मनुष्यों के लिये बुद्धि देने और गो के सदृश सत्य उपदेश का वर्षानेवाला और अविद्या आदि क्लेशों से पृथक् वर्त्तमान है, वही सब से मेल करने योग्य है ॥१३॥

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    विषय

    पितावत् राजा ।

    भावार्थ

    भा० - जो पुरुष ( धेनुः ) गौ के समान ( रसवत् पयः ) रस से युक्त पुष्टिकारक दुग्धवत् अन्न को (शिश्रिये ) धारण करता है और जो ( न स्वपन् ) आलस्य, प्रमाद न करता हुआ, ( अनु-ब्रुवाणः ) प्रतिदिन प्रवचन और पाठ करता हुआ (अधि-एति ) अध्ययन और स्मरण करता है वही (सुतं भरः) प्रजा को पुत्र के समान भरण पोषण करने में समर्थ ( यजमानस्य ) दानशील प्रजा का ( सत्-पतिः) उत्तम पालक, और ( विश्वासाम् धियाम् ) समस्त ज्ञानों और कर्मों का ( ऊधः) उत्तम धारक, और ( उत्-अञ्चनः ) ज्ञानों का पात्रवत् उत्तम रीति से प्राप्त करने और उत्तम पद को प्राप्त करने हारा होता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अवत्सारः काश्यप अन्थे च सदापृणबाहुवृक्तादयो दृष्टलिंगा ऋषयः ॥ विश्वदेवा देवताः ॥ छन्दः–१, १३ विराड्जगती । २, ३, ४, ५, ६ निचृज्जगती । ८, ६, १२ जगती । ७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, ११ स्वराट् त्रिष्टुप् । १४ विराट् त्रिष्टुप् । १५ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सुतम्भरः-सत्पतिः

    पदार्थ

    [१] जो व्यक्ति (यजमानस्य) = सृष्टि यज्ञ के प्रवर्तक उस महान् प्रभु के (सुतम्भरः) = यज्ञों का भरण करता है और (सत्पतिः) = उत्तम कर्मों का रक्षक है, (सः) = वह (विश्वासाम्) = सब धियाम् बुद्धियों का (ऊधः) = उसी प्रकार आधार बनता है, जैसे कि गौ का (ऊधस्) = दुग्ध का आधार है। यह इन बुद्धियों का (उदञ्चन:) = [ऊर्ध्वं उद् गमयिता सा०] उद्गमन करनेवाला होता है । [२] (धेनुः) = ज्ञानदुग्धदात्री इस वेदवाणीरूप गौ का यह (भरत्) = भरण करता है। यह उस धेनु के (रसवत् पयः) = रसयुक्त दूध का (शिश्रिये) = सेवन करता है ज्ञानदुग्ध का पान करता है। (अनुब्रुवाण:) = सदा इसका उच्चारण करता हुआ (अध्येति) = इसका स्मरण करता है। (न स्वपन्) = इस अध्ययन कार्य में यह कभी सोता नहीं, अप्रमत्त होकर नियमपूर्वक इसका अध्ययन करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु भक्त यज्ञों को करता हुआ अपनी बुद्धियों को उत्कृष्ट करने का प्रयत्न करता है। वेदवाणी के अध्ययन में कभी प्रमाद नहीं करता।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो कृतज्ञ, आप्त विद्वानांच्या सेवेत तत्पर, संपूर्ण माणसांना बुद्धी देणारा, गाईच्या दुधाप्रमाणे सत्य उपदेशाचा वर्षाव करणारा, अविद्या इत्यादी क्लेशापासून दूर राहणारा असतो तोच सर्वांचा मेळ घालू शकतो व तोच उत्तम पुरुष असतो. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The baby’s parent, the yajaka’s protector and promoter, the teacher, ruler, guardian of humanity who preserves, sustains and advances whatever wealth and joy is achieved, the treasure hold of all history and tradition and intellectual and scientific progress on the march, bearing the milky food for body, mind and soul like the mother cow and forbearing earth, he goes onwards high proclaiming his knowledge and vision, the divine gift, without a wink of sleep: He is worthy of reverence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a highly learned person do is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! that learned person only is worthy of respect, who is the sutainer of the Yajamana (who shows respect to the enlightened men) and of the world in general, uplifter of all intellects and actions, promoter and protector of the good. Infect, that person fills men with knowledge like a cow gives tasteful milk, and who takes shelter in Dharma (righteousness), who does not sleep or show laziness while teaching to others, and always remembers truth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    He alone is a good person who is grateful, lover of the service rendered to absolutely truthful enlightened persons, giver of wisdom to all, the showerer of true teaching like the cow and who is free from ignorance and other causes of misery.

    Translator's Notes

    Here again Shri Sayanacharya, Prof. Wilson and Griffith and others have taken Sutambhara as the name of a particular Rishi. Shri Sayanacharya has given the derivative meaning of the word वाह निर्वास्कः meaning a performer of the Yajna, but others have ignored even that. The following footnote given by Griffith is noteworthy-Sutambhara is said to be the name of a Rishi. The word means the bearer of the distilled juice of libation. Prof. Ludwig says that the Hawk is intended (vide, The Hymns of the only Rigveda Vol.I.P. 512.) It shows to what assured length some of these translators of the Vedas have gone.

    Foot Notes

    (सुतम्भर:) य उत्पन्नं जगद्विभर्ति । = He who sustains the world which is created by God. (ऊध:) ऊर्ध्वं गमयिता । = Uplifter. (उदञ्चनः) उत्क्रिष्ततां प्रापकः। उत-अन्चगति पूजनयो: (भ्वा०) गतेस्त्रिश्वर्थेश्वत्र प्राप्त्यर्थग्रहणम् । षु प्रसर्वश्वयेयोः । भृ घास्त्योषणयो: । = Leading to sublimity or loftiness.

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