ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 44/ मन्त्र 4
ऋषिः - अवत्सारः काश्यप अन्ये च दृष्टलिङ्गाः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
प्र व॑ ए॒ते सु॒युजो॒ याम॑न्नि॒ष्टये॒ नीची॑र॒मुष्मै॑ य॒म्य॑ ऋता॒वृधः॑। सु॒यन्तु॑भिः सर्वशा॒सैर॒भीशु॑भिः॒ क्रिवि॒र्नामा॑नि प्रव॒णे मु॑षायति ॥४॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वः॒ । ए॒ते । सु॒ऽयुजः॑ । याम॑न् । इ॒ष्टये॑ । नीचीः॑ । अ॒मुष्मै॑ । य॒म्यः॑ । ऋ॒त॒ऽवृधः॑ । सु॒यन्तु॑ऽभिः । स॒र्व॒ऽशा॒सैः । अ॒भीशु॑ऽभिः । क्रिविः॑ । नामा॑नि । प्र॒व॒णे । मु॒षा॒य॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र व एते सुयुजो यामन्निष्टये नीचीरमुष्मै यम्य ऋतावृधः। सुयन्तुभिः सर्वशासैरभीशुभिः क्रिविर्नामानि प्रवणे मुषायति ॥४॥
स्वर रहित पद पाठप्र। वः। एते। सुऽयुजः। यामन्। इष्टये। नीचीः। अमुष्मै। यम्यः। ऋतऽवृधः। सुयन्तुऽभिः। सर्वऽशासैः। अभीशुऽभिः। क्रिविः। नामानि। प्रवणे। मुषायति ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 44; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सूर्यसंयोगतो मेघदृष्टान्तेन राजगुणानाह ॥
अन्वयः
यथा क्रिविः सूर्योऽभीशुभिः प्रवणे नामानि प्र मुषायति तथैव हे मनुष्य ! ये सुयुज एते व इष्टये यामन्नमुष्मै सुयन्तुभिः सर्वशासैर्यम्य ऋतावृधो नीचीः प्रजाः सम्पादयन्तु ॥४॥
पदार्थः
(प्र) (वः) युष्माकम् (एते) राजादयो जनाः (सुयुजः) ये सुष्ठु धर्मेण युञ्जते (यामन्) यामनि मार्गे (इष्टये) इष्टसुखाय (नीचीः) निम्नगताः (अमुष्मै) परोक्षाय सुखाय (यम्यः) यमाय न्यायकारिणे हिताः (ऋतावृधः) या ऋतं सत्यं वर्धयन्ति ताः (सुयन्तुभिः) सुष्ठु यन्तवो नियन्तारो येषु तैः (सर्वशासैः) ये सर्वं राज्यं शासन्ति तैः (अभीशुभिः) रश्मिभिः। अभीशव इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (क्रिविः) प्रजापालनकर्त्ता (नामानि) जलानि (प्रवणे) निम्ने देशे (मुषायति) चोरयति ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सूर्य्यस्सर्वसुखाय जलमाकर्षति तथैव राजा न्यायमार्गेण सर्वाः प्रजा ग्मन् सुष्ठु विज्ञानयुक्तैर्भृत्यैः सहितः सार्वजनिकहितं सम्पादयति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सूर्य्यसंयोग से मेघदृष्टान्त से राजगुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जैसे (क्रिविः) प्रजा का पालन करनेवाला सूर्य्य (अभीशुभिः) किरणों से (प्रवणे) नीचे स्थल में (नामानि) जलों को (प्र, मुषायति) अत्यन्त चुराता है, वैसे ही हे मनुष्यो ! जो (सुयुजः) अच्छे धर्म से युक्त होते वे (एते) राजा आदि जन (वः) आप लोगों के (इष्टये) इष्ट सुख के लिये (यामन्) मार्ग में और (अमुष्मै) परोक्ष सुख के लिये (सुयन्तुभिः) उत्तम नियन्ता जिनमें उन (सर्वशासैः) सम्पूर्ण राज्य के शासन करनेवालों से (यम्यः) न्यायकारी के लिये हितकारक (ऋतावृधः) सत्य को बढ़ानेवाली (नीचीः) नीची हुई प्रजाओं को सम्पन्न करें ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य्य सब के सुख के लिये जल को खींचता है, वैसे ही राजा न्यायमार्ग से सम्पूर्ण प्रजाओं को चलाता हुआ उत्तम विज्ञान से युक्त भृत्यों के सहित सब मनुष्यों के हित का सम्पादन करता है ॥४॥
विषय
कर दान की विधि ।
भावार्थ
भा० - जिस प्रकार ( सु-युजः ) रथ में जुते उत्तम अश्व ( यम्यः ) नियन्ता सारथी के वश होकर ( यमन् ) मार्ग में चलते हुए (नीचीअमुष्यै ऋतावृधः) नीचे अर्थात् विनय से चलते हुए भी उसका सुख बढ़ाते हैं उसी प्रकार ( एते ) ये ( वः ) आप लोगों में से जो लोग ( सुयुजः ) उत्तम पदों पर नियुक्त होकर नायक का सहयोग करते हुए (ऋतावृधः ) राष्ट्र के धन, सत्य न्याय की वृद्धि करते हुए, ( इष्टये ) इष्ट सुख प्राप्त करने के लिये ( यस्य नीचीः ) जिस नायक के अधीन रहकर ( अमुष्यै ) उस अमुक नायक के हित के लिये होते हैं वह (क्रिविः ) सर्वकर्त्ता पुरुष ही सूर्य के समान ( अभीषुभिः ) किरणों के तुल्य अपने ( सुमन्तुभिः ) उत्तम और ( सर्वं-शासैः ) सब शासकों से ( प्रवणे नामानि ) नियन्ता नीचे भूमियों में स्थित जलवत् उत्तम ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र में विद्यमान रहकर नाना पदार्थों को कर रूप में ( मुषायति ) अदृश्य रूप से ग्रहण करे |
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवत्सारः काश्यप अन्थे च सदापृणबाहुवृक्तादयो दृष्टलिंगा ऋषयः ॥ विश्वदेवा देवताः ॥ छन्दः–१, १३ विराड्जगती । २, ३, ४, ५, ६ निचृज्जगती । ८, ६, १२ जगती । ७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, ११ स्वराट् त्रिष्टुप् । १४ विराट् त्रिष्टुप् । १५ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'क्रिविः नामानि प्रवणे मुषायति'
पदार्थ
[१] (वः एते =) गतमन्त्र वर्णित तुम्हारे में से ये सोमरक्षक पुरुष (सुयुजः) = अच्छी प्रकार इन्द्रियाश्वों को शरीर रथ में जोतनेवाले होते हैं। (यामन्) = ये जीवनमार्ग में (इष्टये) = यज्ञों के लिये होते हैं । (अमुष्मै) = उस सोमरक्षक के लिये (नीची:) = नम्रता से युक्त (यम्यः) = संयमवाली चित्तवृत्तियाँ (ऋतावृधः) = ऋत व सत्य का वर्धन करनेवाली होती हैं। [२] (सुयन्तुभिः) = उत्तम नियमनवाली, (सर्वशासै:) = सबका शासन करनेवाली (अभीशुभिः) = लगाम रूप चित्तवृत्तियों से (क्रिविः) = सदा उत्तम कर्मों में तत्पर यह सोमी पुरुष (प्रवणे) = [modestly, humble] नम्र हृदय में (नामानि) = प्रभु के नामों को (मुषायति) = चुपके-चुपके ग्रहण करता है, बिलकुल मौनरूप से वह इन नामों का जप करता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षक पुरुष इन्द्रियों व चित्तवृत्तियों को वशीभूत करके कार्यों में लगता है। वह कार्यों में प्रवृत्त हुआ हुआ चुपके-चुपके ही प्रभु के नामों का स्मरण करता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसा सूर्य सर्वांच्या सुखासाठी जल ओढून घेतो तसा राजा न्यायमार्गाने संपूर्ण प्रजेला घेऊन जातो व उत्तम विज्ञानाने युक्त सेवकांसह सर्व माणसांचे हित करतो. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O children of the earth, for your good and comfort, immediate as well as distant, are these united, cooperative, well controlled radiations of the sun all round, fostering the truth of nature’s law in their own way: For that Master Spirit, the sun sucks up the vapours of water from the ocean and other lower places by well directed, all dominating waves of light, and then makes the cloud release the waters in rain showers to flow down in streams and rivers into the ocean.$(In the same way the administrative forces of the ruler, working together in cooperation within the law, collect the taxes from the various communities of the people and the ruler uses the collection for rain showers of the people’s protection, promotion and prosperity without hoarding anything for himself.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a ruler are told by the illustration of the sun and the cloud.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As the sun which is sustainer of the people steals (so to speak) the waters that flow in low places with its rays, in the same manner, O men ! these righteous persons who unite themselves with Dharma (righteousness) for desirable happiness and invisible joy should make even the wicked and fallen subjects the deposers of truth who help the dispenser of justice (judge or magistrate. Ed.) with the help of those who are good controllers and administrators.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! the sun draws water for the happiness of all, in the same manner, a ruler leading his subjects towards the path of justice, with the help of the high learned judges, thus accomplishes the good of the public.
Foot Notes
(अमुष्मै ) परोक्षाय सुखाय । = For invisible happiness. (क्रिवि ) प्रजापालनकर्ता । = The sustainer of the people. (नामानि ) जलानि । नाम इत्युदकनाम (NG 1, 12)। = Waters. (यम्य:) यमाय न्यायकारिणे हितः । = Beneficent to the dispensers of truth. (अभीशुभिः) रश्मिभिः । अभीशव इति रश्मिनाम (NG 1, 5)। = By the rays.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal