ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 44/ मन्त्र 2
श्रि॒ये सु॒दृशी॒रुप॑रस्य॒ याः स्व॑र्वि॒रोच॑मानः क॒कुभा॑मचो॒दते॑। सु॒गो॒पा अ॑सि॒ न दभा॑य सुक्रतो प॒रो मा॒याभि॑र्ऋ॒त आ॑स॒ नाम॑ ते ॥२॥
स्वर सहित पद पाठश्रि॒ये । सु॒ऽदृशीः॑ । उप॑रस्य । याः । स्वः॑ । वि॒ऽरोच॑मानः । क॒कुभा॑म् । अ॒चो॒दते॑ । सु॒ऽगो॒पाः । अ॒सि॒ । न । दभा॑य । सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो । प॒रः । मा॒याभिः॑ । ऋ॒ते । आ॒स॒ । नाम॑ । ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रिये सुदृशीरुपरस्य याः स्वर्विरोचमानः ककुभामचोदते। सुगोपा असि न दभाय सुक्रतो परो मायाभिर्ऋत आस नाम ते ॥२॥
स्वर रहित पद पाठश्रिये। सुऽदृशीः। उपरस्य। याः। स्वः। विऽरोचमानः। ककुभाम्। अचोदते। सुऽगोपाः। असि। न। दभाय। सुक्रतो इति सुऽक्रतो। परः। मायाभिः। ऋते। आस। नाम। ते ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 44; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे सुक्रतो विद्वँस्त्वं यथा विरोचमानः स्वः ककुभामुपरस्य प्रकाशक आस तथा श्रिये याः सुदृशीः प्रेरितवान् परः सुगोपा अस्यचोदते दभाय मायाभिर्न वर्त्तसे यस्य त ऋते नामाऽऽस तस्य ताः प्रजाः सर्वतो वर्धन्ते ॥२॥
पदार्थः
(श्रिये) धनाय शोभायै वा (सुदृशीः) शोभनं दृग्दर्शनं यासां ताः (उपरस्य) मेघस्य (याः) (स्वः) आदित्यः (विरोचमानः) प्रकाशमानः (ककुभाम्) दिशाम् (अचोदते) अप्रेरकाय (सुगोपाः) सुष्ठु रक्षकः (असि) (न) निषेधे (दभाय) हिंसकाय (सुक्रतो) उत्तमकर्म्मप्रज्ञायुक्त (परः) प्रकृष्टः (मायाभिः) प्रज्ञाभिः (ऋते) सत्ये (आस) वर्त्तते (नाम) (ते) तव ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा सूर्यो दिशाप्रकाशकः सन् सर्वाः प्रजाः शोभनाय वृष्टिकरो भवति, तथैव सर्वाः प्रजा न्यायेन प्रकाश्य विद्यासु वर्धको राजा भवेत् ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सुक्रतो) उत्तम कर्म्म और बुद्धि से युक्त विद्वान् ! आप जैसे (विरोचमानः) प्रकाशमान (स्वः) सूर्य्य (ककुभाम्) दिशाओं और (उपरस्य) मेघ का प्रकाशमान =प्रकाशक (आस) वर्त्तमान है, वैसे (श्रिये) धन वा शोभा के लिये (याः) जिन (सुदृशीः) दर्शनवालियों को प्रेरणा करनेवाले और (परः) उत्तम से उत्तम (सुगोपाः) उत्तम प्रकार रक्षा करनेवाले (असि) हो और (अचोदते) नहीं प्रेरणा करने और (दभाय) हिंसा करनेवाले जन के लिये (मायाभिः) बुद्धियों के साथ (न) नहीं वर्त्तमान हो जिन (ते) आपके (ऋते) सत्य में (नाम) नाम वर्त्तमान है, उसकी वे प्रजायें सब प्रकार वृद्धि को प्राप्त होती हैं ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे सूर्य्य दिशाओं का प्रकाशक हुआ सब प्रजाओं को सुख देने के लिये वृष्टि करनेवाला होता है, वैसे ही सब प्रजाओं को न्याय से प्रकाशित करके विद्या और सुख का बढ़ानेवाला राजा होता है ॥२॥
विषय
राष्ट्र की रक्षा और समृद्धि का उपाय ।
भावार्थ
भा०- ( विरोचमानः स्वः ककुभाम् मध्ये यथा सुदृशीः उपरस्यश्रिये करोति तथा ) तेजस्वी सूर्य जिस प्रकार दिशाओं के बीच विशेष तेज से चमकता हुआ, उत्तम रीति से दिखाने वाली दीप्तियों को मेघ की शोभा उत्पन्न करने के लिये ही धारण करता है इसी प्रकार हे राजन् ! तू भी ( अचोदते ) प्रेरणा न करने वाले, स्वयं शासित होने वाले राष्ट्र की ( ये ) लक्ष्मी वृद्धि के लिये, तू ( स्वः) शत्रु संतापक होकर ( ककुभाम् ) दिशाओं के बीच ( विरोचमानः ) विविध प्रकारों से सबके चित्तों को अच्छा लगता हुआ ( याः ) जिन ( उपरस्य ) मेघवत् दानशील विदुषी एवं (सुदृशीः) उत्तम रीति से देखने और अन्यों को उत्तम ज्ञान दिखाने वाली आप्त प्रजाओं को ( श्रिये ) अपनी शोभा और आश्रय के लिये धारण करता है तू उन द्वारा ही ( सुगोपाः असि ) राष्ट्र का उत्तम पालक हो, हे ( सु-क्रतो ) उत्तम ज्ञान और कर्मकुशल राजन् ! तु (मा-याभिः ) अपनी प्रजाओं, बुद्धियों से ( परः ) सर्वोत्कृष्ट होकर भी (न दभाय) राष्ट्र के नाश करने के लिये न हो । प्रत्युत (ते नाम) तेरा नाम, यश और नमाने वाला बल (ऋते ) सत्य ज्ञान और न्याय के आश्रय पर ही ( आस ) स्थिर हो । इत्येकविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवत्सारः काश्यप अन्थे च सदापृणबाहुवृक्तादयो दृष्टलिंगा ऋषयः ॥ विश्वदेवा देवताः ॥ छन्दः–१, १३ विराड्जगती । २, ३, ४, ५, ६ निचृज्जगती । ८, ६, १२ जगती । ७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, ११ स्वराट् त्रिष्टुप् । १४ विराट् त्रिष्टुप् । १५ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
सोमरक्षण व ज्योतिर्मय जीवन
पदार्थ
[१] (अचोदते) = [अप्रेरयते] शरीर में सोम को सुरक्षित रखनेवाले के लिये, सोम को विलासमय जीवन के द्वारा बाहिर न प्रेरित करनेवाले के लिये, हे प्रभो! आप (ककुभाम्) = शिखरों के (स्वः) = प्रकाश को (विरोचमानः) = दीप्त करनेवाले होते हैं। इन सोमी पुरुषों का जीवन इस प्रकार प्रकाशमय होता है जैसे कि बादलों से घिरे मध्यभाग से ऊपर पर्वत शिखर सूर्य की चमक से चमक रहा होता है। इन व्यक्तियों के जीवन में आप उन ज्योतियों को दीप्त करते हैं, (याः) = जो (उपरस्य) = [nearer] आपके उपासक की (सुदृशी:) = सुन्दर दर्शनवाली ज्योतियाँ (श्रिये) = शोभा के लिये होती हैं। जो ज्योतियाँ उपासक के जीवन को अलंकृत करती हैं, उन्हीं से इस सोमरक्षक पुरुष का जीवन शोभावाला होता है । [२] हे (सुक्रतो) = उत्तम 'प्रज्ञान, कर्म व शक्ति' वाले प्रभो ! आप (सुगोपाः असि) = हमारे उत्तम रक्षक हैं। (न दभाय) = आप इन सोमरक्षक पुरुषों को हिंसित नहीं होने देते। (मायाभिः) = सब मायाओं से आप (परः) = परे हैं। (ऋते) = ऋत में, सत्य में (ते) = आपका नाम (आस) = शत्रुओं को झुकानेवाला [नामकं बलम्] बल है । आप सत्यस्वरूप हैं, आप कभी शत्रुओं से पराजित नहीं होते। शत्रुओं की माया प्रभु को आक्रान्त नहीं कर पाती। प्रभु का उपासक भी इस माया का शिकार नहीं होता।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के होने पर उपासक के जीवन को प्रभु ज्योतिर्मय करते हैं। प्रभु से रक्षित हुआ हुआ यह संसार की मायाओं से आक्रान्त नहीं होता।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य दिशा प्रकाशक असून सुखकारक वृष्टी करणारा असतो. तसेच राजा सर्व प्रजेशी न्यायाने वागून विद्या व सुख वाढविणारा असतो. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ruler of the world, you are the self-refulgent light of heaven, illuminator of spaces and mover of the still clouds of vapours in the skies, the lord whose lights and graces are for the beauty and majesty of life. You are the protector, defender, preserver and promoter. You are not for deceit or violence. You are the cause and agent of holy action, sovereign with your powers and potential, and your name is identical with truth and law.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a king are further stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king endowed with good intellect and actions! you are the protector of all women of lovely appearance because of their beauty, like the radiant sun is the illuminator of all directions and the clouds. Even for a violent wicked person who does not prompt rightly, you do not deal with bad intellect. Your name is always in the truth (that is truthful) and, therefore, your subjects grow from all sides.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun being the illuminator of all directions, causes rains for the benefit of all, in the same manner, a ruler should promote knowledge and happiness of the people illuminating (treating) them with justice.
Foot Notes
(उपरस्य ) मेघस्य । उपर इति मेघनाम (NG 1, 10)। = Of the cloud. (स्व:) आदित्यः । स्वः आदित्यो भवति । सु अरणः सु ईरणः । स्वृतो रसान् स्वृतो भासं ज्योतिषाम् । स्पूतो भासेति वा (NKT 2, 4, 10)। = The sun. (ककुभाम् ) दिशाम् । ककुम् इति दिङ्नाम (NG 1, 6) । = Of the directions.
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