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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 44/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अवत्सारः काश्यप अन्ये च दृष्टलिङ्गाः देवता - विश्वेदेवा: ८॥ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    ज्यायां॑सम॒स्य य॒तुन॑स्य के॒तुन॑ ऋषिस्व॒रं च॑रति॒ यासु॒ नाम॑ ते। या॒दृश्मि॒न्धायि॒ तम॑प॒स्यया॑ विद॒द्य उ॑ स्व॒यं वह॑ते॒ सो अरं॑ करत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज्यायां॑सम् । अ॒स्य । य॒तुन॑स्य । के॒तुना॑ । ऋ॒षि॒ऽस्व॒रम् । च॒र॒ति॒ । यासु॑ । नाम॑ । ते॒ । या॒दृश्मि॑न् । धा॒यि॒ । तम् । अ॒प॒स्यया॑ । वि॒द॒त् । यः । ऊँ॒ इति॑ । स्व॒यम् । वह॑ते । सः । अर॑म् । क॒र॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ज्यायांसमस्य यतुनस्य केतुन ऋषिस्वरं चरति यासु नाम ते। यादृश्मिन्धायि तमपस्यया विदद्य उ स्वयं वहते सो अरं करत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ज्यायांसम्। अस्य। यतुनस्य। केतुना। ऋषिऽस्वरम्। चरति। यासु। नाम। ते। यादृश्मिन्। धायि। तम्। अपस्यया। विदत्। यः। ऊँ इति। स्वयम्। वहते। सः। अरम्। करत् ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 44; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    योऽस्य यतुनस्य विदुषः केतुना ज्यायांसमृषिस्वरं चरति यस्य ते यासु नामास्ति यादृश्मिन् योऽन्यैर्धायि तमपस्यया विददु स्वयं वहते सोऽस्मानरं करत् ॥८॥

    पदार्थः

    (ज्यायांसम्) श्रेष्ठम् (अस्य) (यतुनस्य) यत्नशीलस्य (केतुना) प्रज्ञानेन (ऋषिस्वरम्) ऋषीणामुपदेशम् (चरति) प्राप्नोति (यासु) प्रजासु (नाम) (ते) तव (यादृश्मिन्) यादृशो व्यवहारे (धायि) ध्रियते (तम्) (अपस्यया) आत्मनः कर्मेच्छया (विदत्) लभते (यः) (उ) (स्वयम्) (वहते) प्राप्नोति (सः) (अरम्) अलम् (करत्) कुर्य्यात् ॥८॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या आप्तस्य सकाशात् प्राप्तेन बोधेन स्वयमुत्तमा भूत्वाऽन्यान् सुभूषितान् कुर्य्युस्ते सुखं लभन्ते ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (यः) जो (अस्य) इस (यतुनस्य) यत्न करनेवाले विद्वान् के (केतुना) प्रज्ञान से (ज्यायांसम्) श्रेष्ठ (ऋषिस्वरम्) ऋषियों के उपदेश को (चरति) प्राप्त होता है और जिन (ते) आपका (यासु) जिन प्रजाओं में (नाम) नाम है और (यादृश्मिन्) जैसे व्यवहार में जो अन्य जनों से (धायि) धारण किया जाता है (तम्) उसको (अपस्यया) अपने कर्म्म की इच्छा से (विदत्) प्राप्त होता और (उ) भी (स्वयम्) स्वयम् (वहते) प्राप्त होता है (सः) वह हम लोगों को (अरम्) समर्थ (करत्) करे ॥८॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य यथार्थवक्ता जन के समीप से प्राप्त हुए बोध से स्वयं उत्तम होकर अन्यों को उत्तम प्रकार भूषित करें, वे सुख को प्राप्त होते हैं ॥८॥

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    विषय

    उत्तम राजा प्रजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०- ( यासु ते नाम ) जिन सेनाओं में तेरा यश वा दमनकारी शासन प्रतिष्ठित हो और ( यादृश्मिन् धायि ) जिस प्रकार के राजा के अधीन वह तेरा (नाम) शत्रुको नमाने वाला बल ( धायि ) परिपुष्ट होता और स्थिर रहता है, (तम् ) उस राजा का ( अपस्यया ) उत्तम कर्म या सेवा के द्वारा वह प्रजा जन ( विदत् ) प्राप्त करे, क्योंकि ( यः उ ) जो प्रजावर्ग भी ( स्वयं वहते ) स्वयं समस्त कार्य भार को धारण करता है ( स अरं करत् ) वह ही बहुत ऐश्वर्य वा सुख उत्पन्न करता है । वह प्रजावर्ग ऐसे पुरुष के अधीन रहकर ही ( अस्य ) इस ( यतुनस्य ) यत्नशील पुरुष के ( केतुना ) ज्ञान के द्वारा ( ज्यांयांसं ) अति श्रेष्ठ (ऋषिस्वरं चरति ) द्रष्टा विद्वान् पुरुषों के उपदिष्ट ज्ञान को भी प्राप्त कराता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अवत्सारः काश्यप अन्थे च सदापृणबाहुवृक्तादयो दृष्टलिंगा ऋषयः ॥ विश्वदेवा देवताः ॥ छन्दः–१, १३ विराड्जगती । २, ३, ४, ५, ६ निचृज्जगती । ८, ६, १२ जगती । ७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, ११ स्वराट् त्रिष्टुप् । १४ विराट् त्रिष्टुप् । १५ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    क्रियाशील ज्ञानी पुरुष द्वारा प्रभु

    पदार्थ

    [१] (अस्य) = इस (यतुनस्य) = यत्नशील पुरुष के केतुना ज्ञान से, अर्थात् यत्नशील व ज्ञानी बनकर यह (ज्यायांसम्) = अतिप्रशस्त [प्रशस्य को ज्य आदेश है] (ऋषिस्वरम्) = ऋषियों-सी की जानेवाली स्तुति को (चरति) = करता है। उन ऋषि स्तुतियों को यह करता है (यासु) = जिन में (ते नाम) = तेरे प्रति नमन होता है। नम्रता की भावना से युक्त स्तुतियों में यह प्रवृत्त होता है। [२] इस स्तोता का मन (यादृश्मिन् धायि) = जैसी कामना में स्थापित होता है, (तम्) = जो (अपस्यया) = कर्मों में लगने की वृत्ति से (विदत्) = प्राप्त करता है। यह स्तोता उस उस कामना को क्रियाशील बनकर पूर्ण कर पाता है। इस प्रकार (यः) = जो (उ) = निश्चय से स्वयं (वहते) = अपने कर्त्तव्य कर्मों का अपने आप धारण करता है, (सः) = वही (अरं करत्) = अपने को अलंकृत करनेवाला होता है। अर्थात् क्रियाशीलता ही जीवन को सद्गुणों से सुभूषित करती है।

    भावार्थ

    भावार्थ– यत्नशील व ज्ञानी बनकर हम नम्रता से प्रभु का स्तवन करें। पुरुषार्थ से सब कामनाओं को सिद्ध करनेवाले हों। क्रियाशील बनकर जीवन को सद्गुणों से अलंकृत करें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे आप्त लोकांकडून प्राप्त झालेल्या बोधामुळे स्वतः उत्तम बनून इतरांना उत्तम प्रकारे भूषित करतात ती सुख प्राप्त करतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The ruler and scholar who receives and serves the superior, the holy and advancing voice of the seers and sages by virtue of the knowledge and efforts of this industrious scholar, and you whose name and fame resounds among the people, whichever way the name and fame and knowledge is received, and the man who attains the knowledge of that all by his own effort and karmic discipline and carries the tradition on by himself, self-possessed and self-established, may all these do us good on our way of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The enlightened persons attributes are defined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Let that man adorn us (make us exalted) who gets the sublime teaching of the seers by the knowledge received from an industrious enlightened person who is well known among the people. He receives that by the desire of doing good deeds and which dealing is upheld by others and he bears it.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those man enjoy happiness who, becoming good by the knowledge received from the absolutely truthful trustworthy and enlightened persons, make others also adorned or exalted.

    Foot Notes

    (ऋषिस्वरम्) ऋषीणामुपदेशम् । स्वृ शब्दोपतापयोः (भ्वा०) अत्र शब्दार्थः। =The teaching or sermon of the seers. (केतुना) प्रज्ञानेन । कित ज्ञाने (अदा० ) । = Sublime knowledge. (अपस्यया) आत्मन: कर्मेच्छवा। आप इति कर्मनाम (NG 2, 1)। = By the desire of doing Good deeds oneself.

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