ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 44/ मन्त्र 12
ऋषिः - अवत्सारः काश्यप अन्ये च दृष्टलिङ्गाः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स॒दा॒पृ॒णो य॑ज॒तो वि द्विषो॑ वधीद्बाहुवृ॒क्तः श्रु॑त॒वित्तर्यो॑ वः॒ सचा॑। उ॒भा स वरा॒ प्रत्ये॑ति॒ भाति॑ च॒ यदीं॑ ग॒णं भज॑ते सुप्र॒याव॑भिः ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठस॒दा॒ऽपृ॒णः । य॒ज॒तः । वि । द्विषः॑ । व॒धी॒त् । बा॒हु॒ऽवृ॒क्तः । श्रु॒त॒ऽवित् । तर्यः॑ । वः॒ । सचा॑ । उ॒भा । सः । वरा॑ । प्रति॑ । ए॒ति॒ । भाति॑ । च॒ । यत् । ई॒म् । ग॒णम् । भज॑ते । सु॒प्र॒याव॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सदापृणो यजतो वि द्विषो वधीद्बाहुवृक्तः श्रुतवित्तर्यो वः सचा। उभा स वरा प्रत्येति भाति च यदीं गणं भजते सुप्रयावभिः ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठसदाऽपृणः। यजतः। वि। द्विषः। वधीत्। बाहुऽवृक्तः। श्रुतऽवित्। तर्यः। वः। सचा। उभा। सः। वरा। प्रति। एति। भाति। च। यत्। ईम्। गणम्। भजते। सुप्रयावऽभिः ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 44; मन्त्र » 12
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यद्यः श्रुतिवित्तर्य्यः सचा बाहुवृक्तो यजतः सदापृणस्सुप्रयावभिर्द्विषो वि वधीद्यश्च वः प्रत्येति सत्यं भाति गणं भजते स उभा वरें सत्कर्त्तुं शक्नोति ॥१२॥
पदार्थः
(सदापृणः) यः सदा पृणाति तर्पयति सः (यजतः) सत्कर्त्ता (वि) (द्विषः) धर्मद्वेष्टॄन् (वधीत्) हन्ति (बाहुवृक्तः) यो बाहुभ्यां दुष्टान् वृङ्क्ते छिनत्ति (श्रुतवित्) यः श्रुतं वेत्ति (तर्य्यः) यस्तीर्यते तरितुं योग्यः (वः) युष्मान् (सचा) सम्बन्धी (उभा) उभौ (सः) (वरा) श्रेष्ठौ श्रोताश्रावकौ (प्रति) (एति) प्राप्नोति विजानाति वा (भाति) प्रकाशते प्रकाशयति वा (च) (यत्) यः (ईम्) एव (गणम्) समूहम् (भजते) सेवते (सुप्रयावभिः) ये सुष्ठु प्रयान्ति तैः ॥१२॥
भावार्थः
ये बहुश्रुतो न्यायाचरणा दुष्टान् घ्नन्तः श्रेष्ठान् पालयन्ति ते सदा प्रसन्ना भवन्ति ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यत्) जो (श्रुतवित्) श्रुत को जाननेवाला (तर्य्यः) जो तैरा जाता वा तैरने के योग्य (सचा) सम्बन्धी (बाहुवृक्तः) बाहुओं से दुष्टों का नाश करनेवाला (यजतः) सत्कर्ता (सदापृणः) सदा तृप्ति करनेवाला (सुप्रयावभिः) उत्तम प्रकार चलनेवालों से (द्विषः) धर्म्म के द्वेष करनेवालों का (वि, वधीत्) विशेष करके नाश करता है (च) और जो (वः) आप लोगों को (प्रति, एति) प्राप्त होता वा विशेष करके जानता है, सत्य (भाति) प्रकाशित होता वा सत्य को प्रकाशित करता और (गणम्) समूह का (भजते) सेवन करता है (सः) वह (उभा) दोनों (वरा) श्रेष्ठ सुनने और सुनानेवालों का (ईम्) ही सत्कार कर सकता है ॥१२॥
भावार्थ
जो बहुत शास्त्रों को सुननेवाले, न्याय का आचरण करनेवाले जन दुष्टों का नाश करते हुए श्रेष्ठों का पालन करते हैं, वे सदा प्रसन्न होते हैं ॥१२॥
विषय
उदार राजा।
भावार्थ
भा०—वह राजा ( सदा-पृणः ) सदा प्रजा को तृप्त और पूर्ण करने वाला, ( यजतः ) दानशील और सत्संगति उत्पन्न करने योग्य, ( बाहुवृक्तः ) बाहुबल से शत्रुबल का छेदन भेदन करने में कुशल, ( श्रुतवित्) गुरु से उपदिष्ट ज्ञान को जानने वाला, वेदज्ञ होकर ( वः ) आप लोगों के बीच में (सचा ) सबके साथ मिलकर ( तर्य: ) सबको कष्टों, से पार उतारने में समर्थ एवं शत्रु नाशक है वही (द्विषः) अप्रीतिकारक पदार्थों और नाशक शत्रुजनों को ( वि वधीत् ) विविध प्रकार से दण्डित करे । ( स ) वह ( उभा वरा ) दोनों प्रकार के वरण करने योग्य ऐहिक और पारमार्थिक सुखों को ( प्रति एति ) प्राप्त हो और जाने । ( भाति च ) और स्वयं सूर्यवत् चमके । ( यद् ) और वह ही ( ईम् गणं ) इस प्रजा या सैन्यगण को (सु-प्र-यावभिः) उत्तम प्रयाणकारी वीर पुरुषों के साहाय्य से (भजते ) सेवन करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवत्सारः काश्यप अन्थे च सदापृणबाहुवृक्तादयो दृष्टलिंगा ऋषयः ॥ विश्वदेवा देवताः ॥ छन्दः–१, १३ विराड्जगती । २, ३, ४, ५, ६ निचृज्जगती । ८, ६, १२ जगती । ७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, ११ स्वराट् त्रिष्टुप् । १४ विराट् त्रिष्टुप् । १५ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
उभा स वरा प्रत्येति
पदार्थ
[१] (सदापृणः) = हमेशा दान की वृत्तिवाला, (यजतः) = यज्ञशील पुरुष (द्विषः) = द्वेष की भावनाओं को (विवधीत्) = सुदूर विनष्ट करता है। (बाहुवृक्त:) = [बाह प्रयत्ने] भुजाओं से कर्मों में व्याप्त हुआ-हुआ वासनाओं को छिन्न करनेवाला होता है। (श्रुतवित्) = ज्ञान का वेत्ता, अतएव (तर्यः) = वासनाओं को तैर जानेवाला, (वः सचा) = तुम सबके साथ मिलकर चलनेवाला होता है। [२] (सः) = वह (उभा वरा) = दोनों 'अभ्युदय व निःश्रेयस' रूप श्रेष्ठ वस्तुओं की ओर प्रत्येति आता है (च) = और (भाति) = दीप्त होता है। 'इहलोक व परलोक' दोनों का समन्वय उसके जीवन को दीप्त बना देता है। (यद्) = जब कि यह (ईम्) = निश्चय से (सुप्रयावभिः) = उत्तम कर्मों के द्वारा (गणम्) = इन्द्रियादि के गणों का (भजते) = सेवन करता है। उत्तम कर्मों से अपनी सब इन्द्रियों को ठीक बनाते हुए ये लोग इहलोक के अभ्युदय व परलोक के निःश्रेयस को सिद्ध करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम दानशील, यज्ञशील, पुरुषार्थी व ज्ञानी बनकर इन्द्रियों को प्रशस्त बनाते हुए 'अभ्युदय व निः श्रेयस' को सिद्ध करें।
मराठी (1)
भावार्थ
जे बहुश्रुत, न्यायकर्ते, दुष्टांचे नाशकर्ते, श्रेष्ठांचे पालनकर्ते असतात ते सदैव प्रसन्न असतात. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
He is an unfailing giver of fulfilment, holy and cooperative in joint action for development, destroyer of hate and enmity, strong of arms, scholar of the Vedas, accessible saviour and helper and friendly for all of you. He receives both friend and foe appropriately and realises both material and spiritual good, shines and illuminates, the leader who serves this social order and this people with effective and acceptable means and policies.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of good persons are narrated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! the man who is satisfied of all, knower of the Vedas, who knows how to go across the ocean of misery, who is respecter of the enlightened persons, unifier, destroyer of the foes with his arms and annihilator of the haters of righteousness with the help of his associates, who comes to you for help and instruction, illuminates truth and serves the group of good men, can honor good audience and preachers both.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The men of just conduct who have studied well the Vedas etc., who destroy the wicked and protect righteous persons, remain ever happy.
Translator's Notes
Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others have taken Sadaprinah, Yajatah, Vriktabahu, Shrutarit and Taryah as Proper Nouns or the names of the seers, But it is against the fundamental principles of the Vedic terminology according to which all words are derivatives. However, Shri Sayanacharya has, it may be pointed out, given derivative meanings also saying. सदापूणः सर्वदानशीलः, यजतः-यष्टा, बाहुवृक्तः बाहुभ्यां वृक्तदभः श्रुतावत् श्रुतस्य वेता। But Prof. Wilson and Griffith have simply taken them as Proper Nouns Maharishi Dayanahda Sarasvati's interpretation is the best and reasonable.
Foot Notes
(बाहुवृक्तः) यो बाहुभ्यां दुष्टान् वृङ्क्ते छिनत्ति । वृक-आदाने (भ्वा० ) वृजी- वर्जने (अदा० ) । = He Who thrashes asunder the wicked. (द्विष:) धर्मद्वेष्ट्रीन् | = Haters of righteousness. ( ईम् ) एव । = Only, certainly. (सदापूणः) य: सदा पूनाति तर्प्यति स:। षु-प्रीतौ (भ्वा०) प्रीञ् तर्पणे कान्तौ च (भ्वा०)। = He who ever satisfies or pleases.
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