यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 10
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - सूर्यो देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
4
सूर्य॑ऽएका॒की च॑रति च॒न्द्रमा॑ जायते॒ पुनः॑। अ॒ग्निर्हि॒मस्य॑ भेष॒जं भूमि॑रा॒वप॑नं म॒हत्॥१०॥
स्वर सहित पद पाठसूर्यः॑। ए॒का॒की। च॒र॒ति॒। च॒न्द्रमाः॑। जा॒य॒ते॒। पुन॒रिति॒ऽपुनः॑। अ॒ग्निः। हि॒मस्य॑। भे॒ष॒जम्। भूमिः॑। आ॒वप॑न॒मित्या॒वप॑नम्। म॒हत्॥१० ॥
स्वर रहित मन्त्र
सूर्यऽएकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुनः । अग्निर्धिमस्य भेषजम्भूमिरावपनम्महत् ॥
स्वर रहित पद पाठ
सूर्यः। एकाकी। चरति। चन्द्रमाः। जायते। पुनरितिऽपुनः। अग्निः। हिमस्य। भेषजम्। भूमिः। आवपनमित्यावपनम्। महत्॥१०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पूर्वोक्तप्रश्नानामुत्तराण्याह॥
अन्वयः
हे जिज्ञासवो मनुष्याः! सूर्य्य एकाकी चरति पुनश्चन्द्रमाः प्रकाशितो जायते। अग्निर्हिमस्य भेषजं भूमिर्महदावपनमस्तीति यूयं वित्त॥१०॥
पदार्थः
(सूर्य्यः) सविता (एकाकी) (चरति) (चन्द्रमाः) चन्द्रलोकः (जायते) (पुनः) (अग्निः) पावकः (हिमस्य) (भेषजम्) (भूमिः) (आवपनम्) (महत्)॥१०॥
भावार्थः
अस्मिन् संसारे सूर्य्यः स्वाकर्षणेन स्वस्यैव कक्षायां वर्त्तते, तस्यैव प्रकाशेन चन्द्रादयो लोकाः प्रकाशिता भवन्ति। अग्निना तुल्यं शीतनिवारकं वस्तु, पृथिव्या तुल्यं महत् क्षेत्रं किमपि नास्तीति मनुष्यैर्वेदितव्यम्॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पिछले मन्त्र में कहे प्रश्नों के उत्तर को कहते हैं॥
पदार्थ
हे जानने की इच्छा करने वाले मनुष्यो! (सूर्य्यः) सूर्य्य (एकाकी) बिना सहाय अपनी कक्षा में (चरति) चलता है, (पुनः) फिर इसी सूर्य के प्रकाश से (चन्द्रमाः) चन्द्रलोक (जायते) प्रकाशित होता है। (अग्निः) आग (हिमस्य) शीत का (भेषजम्) औषध है। (भूमिः) पृथिवी (महत्) बड़ा (आवपनम्) बोने का स्थान है, इसको तुम लोग जानो॥१०॥
भावार्थ
इस संसार में सूर्यलोक अपनी आकर्षण शक्ति से अपनी ही कक्षा में वर्त्तमान है और उसी के प्रकाश से चन्द्र आदि लोक प्रकाशित होते हैं। अग्नि के समान शीत के हटाने को कोई वस्तु और पृथिवी के तुल्य बड़ा पदार्थों के बोने का स्थान नहीं है, यह मनुष्यों को जानना चाहिये।१०॥
विषय
ब्रह्मोद्य | ब्रह्म औरः प्रभु राजा की शक्तिविषयक प्रश्नोत्तर । सूर्य, अग्नि, भूमि, द्यौ, अश्व, अवि और रात्रि विषयक प्रश्नोत्तर ।
भावार्थ
( सूर्यः ) सूर्य, सूर्यवत् सबका प्रेरक परमेश्वर और विद्वान परिवार और राजा ( एकाकी चरति ) अकेला, अद्वितीय, सर्वोपरि बिचरता है । ( चन्द्रमाः पुनः जायते ) चन्द्र बार २ पैदा होता है कला घटते नामशेष होकर पुनः बढ़ता है उसी प्रकार जीव बालक रूप से बढ़कर युवा होता, पुनः क्षीण होकर मृत्यु द्वारा अदृष्ट हो जाता है, अथवा योग द्वारा ब्रह्म को प्राप्त होकर पुनः संसार में आता है । इसी प्रकार प्रजा का आह्लादक राजा युद्धादि में क्षीण होकर पुनः समृद्ध हो जाता है । (अभिः) अग्नि, (हिमस्य ) शीत का (भेषजम् ) उपाय है । (हिमस्य ) हनन करने वाले शत्रु या दुष्ट के वश करने का उपाय भी (अग्निः ) अग्नि के समान प्रतापी राजा ही है । ( भूमि: ) यह भूमि ही ( महत् आवपनम् ) बड़ा भारी बीज बोने के योग्य खेत है । समस्त स्थूल विकारों को उत्पन्न करने वाली प्रकृति ही परमेश्वर के बीज वपन का स्थान है । वही 'क्षेत्र' है । परमात्मा 'क्षेत्री' है ।
विषय
चार प्रश्न व उत्तर
पदार्थ
१. प्रस्तुत मन्त्रों में साहित्य में प्रश्नोत्तर के प्रकार से प्रतिपादन की शैली का सुन्दरतम उदाहरण मिलता है। वनपर्व की समाप्ति पर यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में यही शैली प्रयुक्त हुई है । २. प्रथम प्रश्न यह है कि (स्वित्) = भला (कः) = कौन, (एकाकी) = अकेला (चरति) = विचरता है ? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि (सूर्य:) = सूर्य (एकाकी) = अकेला (चरति) = चलता है। [क] सब ब्रह्माण्ड को गति देनेवाला परमात्मा सूर्य है। वह अपने कार्यों में दूसरे की सहायता पर निर्भर न करता हुआ अकेला विचरता है। [ख] समाज में संन्यासी भी सूर्य है। वह भी अकेला विचरता है। 'अरुचिर्जनसंसदि' = उसे जनसंघ रुचिकर नहीं होता। [ग] शरीर में सूर्य 'चक्षु' है। यह चक्षु भी प्रमाणान्तर की अपेक्षा न करती हुई स्वयं प्रमाण होती है और इस प्रकार अकेली विचरती है। यही भावना 'प्रत्यक्षे किं प्रमाणाम्' इन शब्दों से कही गई है। [घ] मनुष्य को सामान्यतः यही प्रयत्न करना चाहिए कि वह अपने कार्यों के लिए दूसरों पर निर्भर न रहकर स्वयं कर सके तभी वह सूर्य के समान चमकेगा। सूर्य के आश्रित अन्य पिण्ड हैं, सूर्य उनका आश्रित नहीं, इसीलिए सूर्य 'सूर्य' है। ३. अब दूसरा प्रश्न यह है कि (स्वित्) = भला (कः) = कौन निश्चय से (पुनः) = फिर (जायते) = प्रादुर्भूत व विकसित होता है। उत्तर देते हुए कहते हैं कि (चन्द्रमा:) = चाँद (पुनः) = फिर (जायते) = विकसित होता है। [क] आधिदैविक जगत् में चन्द्रमा कृष्णपक्ष में क्षीण होकर शुक्लपक्ष में फिर प्रादुर्भूत होता दिखता है। [ख] शरीर में यह मन के रूप से है 'चन्द्रमा मनो भूत्वा' चन्द्रमा ही तो मन [moon] बनकर हृदय में प्रविष्ट होता है। किसी भी मनुष्य का विकास इस मन के विकास के अनुपात में ही होता है। मन की आह्लादमयता ही मनुष्य के स्वास्थ्य के विकास का भी कारण बनती है। [ग] एक गृहस्थ में नव उत्पन्न सन्तान 'चन्द्र' तुल्य है। यह दिन-ब-दिन विकास को प्राप्त होती चलती है। ४. तीसरा प्रश्न है (स्वित्) = भला (हिमस्य) = शीत का (किं भेषजम्) = क्या औषध है ? उत्तर देते हुए कहते हैं कि (अग्निः) = आग (हिमस्य) = शीत का (भेषजम्) = औषध है। [क] आधिदैविक जगत् का अग्निदेव तो शीत से त्राण करता ही है। [ख] आधिभौतिक जगत् में जब आन्दोलन ठण्डा पड़ जाता है और लोगों का उत्साह मन्द हो जाता है तब एक नेता अग्नि की प्रतिनिधिभूत वाणी से [अग्निर्वाग् भूत्वा] लोगों में फिर से उत्साह का सञ्चार कर देता है, आन्दोलन में फिर से गर्मी आ जाती है। [ग] शरीर में जब तक यह अग्नितत्त्व विद्यमान रहता है तब तक मनुष्य ठण्डा नहीं पड़ता, मरता नहीं । ५. चौथा प्रश्न है (किम् उ) = और कौन-सा (महत् आवपनम्) = महनीय, महत्त्वपूर्ण बोने का स्थान है ? उत्तर देते हुए कहते हैं कि (भूमिः) = यह पृथिवी ही (महत् आवपनम्) = महत्त्वपूर्ण बोने का स्थान है। [क] वस्तुतः सभी बीज इसी भूमि में बोये जाते हैं। यह भूमि ही सब साधनों का क्षेत्र है। [ख] अध्यात्म में 'पृथिवी शरीरम्' यह शरीर पृथिवी है। इसे 'क्षेत्र' कहते हैं। इसी में दिव्य गुणों व विकास के बीज बोये जाते हैं। इसी में बीज - सोम-वीर्य का आवपन करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । सोम को इस शरीर में सुरक्षित रखने पर ही सब प्रकार की उत्पत्ति [विकास] निर्भर है।
भावार्थ
भावार्थ- हमें सूर्य की भाँति अपराश्रित रूप में विचरना है, अपने कार्य स्वयं करने हैं। मन के विकास से अपने विकास को सिद्ध करना है। अपनी वाणी को अग्नि के समान ओजस्वी बनाकर सर्वत्र उत्साह का सञ्चार करना है और इस शरीररूप पृथिवी में सोम का वपन करते हुए इसे महत्त्वपूर्ण आवपन बनाना है।
मराठी (2)
भावार्थ
या जगात सूर्य आपल्या आकर्षणशक्तीने एकटा आपल्या कक्षेत फिरतो. त्याच्या प्रकाशानेच चंद्र इत्यादी प्रकाशित होतात. सर्दी कमी करण्यासाठी अग्नीसारखा दुसरा पदार्थ नाही व बी पेरण्यासाठी पृथ्वीहून मोठी वस्तू नाही, हे माणसांनी जाणावे.
विषय
मरगील मंत्रातील अनेक प्रश्नांची उत्तरे सांगताहेत.-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे प्रश्नांची उत्तरें जाणून घेण्याची इच्छा करणार्या मनुष्यांनो, ऐका (सूर्य्यः) सूर्य (एकाकी) कोणाच्या साहाय्याशिवाय आपल्या निवत कक्षेत एकावी (चरति) फिरत आहे. (पुनः) नंतर या सूर्याच्या प्रकाशाने (चन्द्रमाः) चंद्रलोक (जायते) प्रकाशित होतो आहे. (अग्निः) आग (हिमस्य) शीतत्व गुणावर (भेषजम्) औषध व उपचार असून (भूमिः) पृथ्वी (महत्) महान विशाल ते स्थान आहे की जे (आवपनम्) बी पेरण्याचे ठिकाण वा क्षेत्र आहे. हे सर्व तुम्ही नीट लक्षात ठेवा ॥10॥
भावार्थ
भावार्थ - या सृष्टीत सूर्यलोक आपल्या स्वतःच्या आकर्षण शक्तीद्वारा आपल्या कक्षेत परिभ्रमण करीत आहे. आणि त्याच्याच प्रकाशाने चंद्रलोकादी लोक प्रकाशित होत आहेत. थंडीच्या निवारणासाठी अग्नीसारखा दुसरा कोणताही पदार्थ नाही आणि विविध (धान्य, वनस्पती आदी) पदार्थ बी पेरण्या व उगवण्यासाठी या पृथ्वी सारखे विशाल असे कोणतेही स्थान नाही. हे तथ्य सर्व मनुष्यांनी जाणून घ्यावे. ॥10॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The Sun moves singly and alone. The Moon is brought to life again. Fire is the remedy of cold. The Earth is the vast field for production.
Meaning
The sun moves alone (self-lighted, on its own axis). The moon is born again (in the light of the sun). Fire is the antidote of cold. The earth is the great field for the sowing of seeds (and the great store-house of things, with its gravity).
Translation
It is the sun that wanders alone; it is the moon that is born again; the fire is the remedy for freezing cold; and the earth is the extensive field. (1)
बंगाली (1)
विषय
অথ পূর্বোক্তপ্রশ্নানামুত্তরাণ্যাহ ॥
এখন পশ্চাতের মন্ত্রে কথিত প্রশ্নসমূহের উত্তর বলিতেছি ।
पदार्थ
পদার্থঃ- হে জিজ্ঞাসু মনুষ্যগণ ! (সূর্য়্যঃ) সূর্য্য (একাকী) সাহায্য ব্যতিরেকে স্বীয় কক্ষে (চরতি) চলে, (পুনঃ) পুনঃ এই সূর্য্যের আলোকে (চন্দ্রমাঃ) চন্দ্রলোক (জায়তে) প্রকাশিত হয় (অগ্নিঃ) অগ্নি (হিমস্য) শীতের (ভেষজম্) ঔষধ (ভূমিঃ) পৃথিবী (মহৎ) বিরাট্ (আবপনম্) বপনের স্থান ইহাকে তোমরা জানো ॥ ১০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই সংসারে সূর্য্যলোক নিজ আকর্ষণ শক্তি দ্বারা নিজেরই কক্ষে বর্ত্তমান এবং তাহারই প্রকাশে চন্দ্রাদি লোক প্রকাশিত হয় । অগ্নির সমান শীত নিবারক বস্তু এবং পৃথিবী তুল্য বৃহৎ ক্ষেত্র নেই । ইহা মনুষ্যদিগের জানা উচিত ॥ ১০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
সূর্য়॑ऽএকা॒কী চ॑রতি চ॒ন্দ্রমা॑ জায়তে॒ পুনঃ॑ ।
অ॒গ্নির্হি॒মস্য॑ ভেষ॒জং ভূমি॑রা॒বপ॑নং ম॒হৎ ॥ ১০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সূর্য়্য ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । সূর্য়ো দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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