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यजुर्वेद अध्याय - 23

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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 48
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - ब्रह्मादयो देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    2

    ब्रह्म॒ सूर्य॑समं॒ ज्योति॒र्द्यौः स॑मु॒द्रस॑म॒ꣳसरः॑।इन्द्रः॑ पृथि॒व्यै वर्षी॑या॒न् गोस्तु मात्रा॒ न वि॑द्यते॥४८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रह्म॑। सूर्य्य॑सम॒मिति॒ सूर्य्य॑ऽसमम्। ज्योतिः॑। द्यौः। स॒मु॒द्रस॑म॒मिति॑ समु॒द्रऽस॑मम्। सरः॑। इन्द्रः॑। पृ॒थि॒व्यै। वर्षी॑यान्। गोः। तु। मात्रा॑। न। वि॒द्य॒ते॒ ॥४८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्म सूर्यसमञ्ज्योतिर्द्याः समुद्रसमँ सरः । इन्द्रः पृथिव्यै वर्षीयान्गोस्तु मात्रा न विद्यते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्म। सूर्य्यसममिति सूर्य्यऽसमम्। ज्योतिः। द्यौः। समुद्रसममिति समुद्रऽसमम्। सरः। इन्द्रः। पृथिव्यै। वर्षीयान्। गोः। तु। मात्रा। न। विद्यते॥४८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 48
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथैतेषामुत्तराण्याह॥

    अन्वयः

    हे जिज्ञासो! त्वं सूर्य्यसमं ज्योतिर्ब्रह्म समुद्रसमं सरो द्यौ पृथिव्यै वर्षीयानिन्द्रो गोस्तु मात्रा न विद्यत इति विजानीहि॥४८॥

    पदार्थः

    (ब्रह्म) बृहत् सर्वेभ्यो महदनन्तम् (सूर्य्यसमम्) (ज्योतिः) प्रकाशकम् (द्यौः) अन्तरिक्षम् (समुद्रसमम्) समुद्रेण समानः (सरः) (इन्द्रः) सूर्य्यः (पृथिव्यै) पृथिव्याः (वर्षीयान्) अतिशयेन वृद्धो महान् (गोः) वाचः (तु) (मात्रा) (न) (विद्यते) भवति॥४८॥

    भावार्थः

    न किंचित् स्वप्रकाशेन ब्रह्मणा समं ज्योतिर्विद्यते सूर्य्यप्रकाशेन युक्तेन मेघेन तुल्यो जलाशयः सूर्य्येण तुल्यो लोकेशो वाचा तुल्यं व्यवहारसाधकं किंचिदपि वस्तु न भवतीति सर्वे निश्चिन्वन्तु॥४८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब उक्त प्रश्नों के उत्तरों को अगले मन्त्र में कहते हैं॥

    पदार्थ

    हे ज्ञान चाहने वाले जन! तू (सूर्य्यसमम्) सूर्य के समान (ज्योतिः) स्वप्रकाशस्वरूप (ब्रह्म) सब से बड़े अनन्त परमेश्वर (समुद्रसमम्) समुद्र के समान (सरः) ताल (द्यौः) अन्तरिक्ष (पृथिव्यै) पृथिवी से (वर्षीयान्) बड़ा (इन्द्रः) सूर्य और (गोः) वाणी का (तु) तो (मात्रा) मान परिमाण (न) नहीं (विद्यते) विद्यमान है, इसको जान॥४८॥

    भावार्थ

    कोई भी, आप प्रकाशमान जो ब्रह्म है उसके समान ज्योति विद्यमान नहीं वा सूर्य के प्रकाश से युक्त मेघ के समान जल के ठहरने का स्थान वा सूर्यमण्डल के तुल्य लोकेश वा वाणी के तुल्य व्यवहार का सिद्ध करनेहारा कोई भी पदार्थ नहीं होता, इसका निश्चय सब करें॥४८॥

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    विषय

    पुन: ब्रह्मोद्य । सूर्य चन्द्र अग्नि, भूमि, ब्रह्म, द्यौ, इन्द्र, वाणी के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर ।

    भावार्थ

    ( सूर्यसमं ज्योतिः) सूर्य के समान प्रकाश (ब्रह्म) ब्रह्म, वेद, वेदज्ञ और महान् परमेश्वर का है। (समुद्रसमम् ) समुद्र के समान (सरः) जलों को बहाने वाला महान् जलाशय (द्यौः) आकाश या सूर्य है । ( पृथिव्यै वर्षीयान् ) पृथिवी से भी अधिक चिरकाल पुराना (इन्द्रः ) परमैश्वर्यवान्, सूर्य है । अथवा पृथिवी पर ( वर्षीयान् ) प्रभूत जल वर्षाने वाला, इन्द्र, वायु या मेघ है और पृथिवी से भी अधिक ( वर्षीयान् ) वृद्धतर, पूज्य (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजा समस्त पृथिवी का पूज्य है। (गौ: तु) गौ, वाणी और सूर्य की किरणों की (मात्रा न विद्यते) मात्रा या परिणाम, मूल्य की अवधि कोई नहीं है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मादयो देवताः । अनुष्टुप् । गांधारः ॥

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    विषय

    ब्रह्म-द्यौः-इन्द्र-गौः

    पदार्थ

    १. (स्वित्) = भला (सूर्यसमम्) = सूर्य के समान (ज्योतिः) = प्रकाश (किम्) = क्या है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि [क] ब्रह्म परमात्मा ही (सूर्यसमं ज्योति:) = सूर्य के समान प्रकाश हैं। वेद में प्रभु को 'आदित्यवर्णम्' शब्द से स्मरण किया गया है। गीता में ('दिवि सूर्यसहस्त्रस्य भवेद् युगपदुत्थिता। यदि भाः सदृशी सा स्याद् भासस्तस्य महात्मनः') = इन शब्दों में प्रभु की ज्योति को हजारों सूर्यो की समुदित ज्योति से प्रतितुलित करने का प्रयत्न किया गया है। ('योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्') = इन वेद के शब्दों में प्रभु को सूर्य की तेजस्विता का कारण कहा है। जैसे सूर्य स्वयं प्रकाश है और चन्द्रमा उसकी एक किरण से प्रकाशित होता है, उसी प्रकार प्रभु स्वयं प्रकाश हैं। जीव उस प्रभु से प्रकाश प्राप्त करता है। [ख] यही ब्रह्म अध्यात्म में ज्ञान है। ज्ञान ही सूर्यसम ज्योति है। हमें अपने ज्ञान को सूर्य के समान दीप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। २. दूसरा प्रश्न, (समुद्रसमं सरः किम्) = समुद्र के समान तालाब कौन-सा है ? उत्तर देते हुए कहते हैं कि [क] (द्यौ:) = द्युलोक ही (समुद्रसमं सरः) = समुद्र के समान तालाब है। वस्तुतः द्युलोकस्थ सूर्य इस पृथिवी के तालाबरूप समुद्र के पानी को वाष्पीभूत करके ऊपर ले जाता है और वे वाष्प ऊपर जाकर कुछ घनीभूत होकर मेघरूप में परिणित होकर अन्तरिक्षस्थ समुद्र का निर्माण करते हैं और इस प्रकार द्युलोक इस समुद्र के समान एक महान् 'सर' बन जाता है। [ख] शरीर में ये जल रेतस् रूप में रहते हैं। मूलाधारचक्र के समीप इनका स्थान है। प्राणायाम आदि की उष्णता से इनकी ऊर्ध्वगति होकर ये मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञानाग्नि का उसी प्रकार ईंधन बनते हैं जिस प्रकार अन्तरिक्ष में मेघजल विद्युत् का। ३. तीसरा प्रश्न है (पृथिव्यै) = [पृथिव्या:] पृथिवी से (वर्षीय:) = अधिक बड़ा, अधिक पुराना (किं स्वित्) = क्या है? अथवा पृथिवी के लिए सर्वाधिक वृष्टि करनेवाला कौन है ? उत्तर देते हुए कहते हैं कि [क] (इन्द्रः) = सूर्य (पृथिव्यै) = पृथिवी से (वर्षीयान्) = बड़ा व पुराना है। उसी का एक अंशभूत यह पृथिवी है। किसी समय यह पृथिवी उस देदीप्यमान विराट् पिण्ड का ही भाग थी। सूर्य इस पृथिवी से १३ लाख गुणा बड़ा है। वह सूर्य ही इस पृथिवी पर वर्षा का भी कारण बनता है। [ख] अध्यात्म में जीव जब 'इन्द्र' बनता है। सब असुरों का संहार करनेवाला बनता है तब इस पृथिवीरूप शरीर के लिए अधिक-से-अधिक सुखों की वर्षा करनेवाला होता है। ४. चौथा प्रश्न है (कस्य मात्रा न विद्यते) = किसकी मात्रा नहीं है? कौन सीमित नहीं है? उत्तर देते हुए कहते हैं कि [क] (गो:) = ज्ञान की वाणी की (तु) = तो (मात्रा) = माप न विद्यते नहीं है। ज्ञान अनन्त है 'अनन्तपारं किल शब्दशास्त्रम्' = Art is long । ज्ञान का कहीं अन्त है? [ख] एक ही वस्तु का मनुष्य के लिए माप नहीं है और वह है 'ज्ञान की प्राप्ति'। जितना भी हम अधिक ज्ञान प्राप्त करें, वह थोड़ा है। ज्ञान की मात्रा नहीं है। जितना ज्ञान प्राप्त करेंगे उतना ही कल्याण होगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु सूर्य के समान ज्योतिर्मय हैं। हमें भी ज्योतिर्मय बनकर प्रभु जैसा बनना है। मेघों से अन्तरिक्षीय समुद्र बना है। हमें भी वीर्यरूप जलों की ऊर्ध्वगति कर द्युलोकरूप मस्तिष्क में ज्ञानजल को भरना है। ऋतम्भरा प्रज्ञा का विकास करना है। हम असुरों के संहार करनेवाले इन्द्र बनकर इस शरीर में सुखों की वर्षा कर सकते हैं। जितना भी अधिक हो सके हम ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ब्रह्मासारखी तेजस्वी ज्योती कोणतीच नाही. मेघासारखा जलाचा आधार कोणीही नाही. भूमीहून मोठा सूर्य होय व वाणीला कोणतेही परिमाण नाही. कारण त्यामुळेच सर्व व्यवहार सिद्ध होतो, हे निश्चयाने जाणा.

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    विषय

    मागील मंत्रातील प्रश्‍नांची उत्तरें या मंत्रात दिली आहेत -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे ज्ञानार्थी पुरूषा, (तुझ्या प्रश्‍नांचे उत्तर ऐक) (सूर्य्यसमम्) सूर्याप्रमाणे (ज्योतिः) स्वप्रकाशस्वरूप, स्वतः प्रकाशमान (ब्रह्म) तो सर्वांहून महान अनंत असा परमेश्‍वर आहे. (समुद्रसमम्) समुद्रासम आहे (सरः) तलाव वा मोठा सरोवर आहे (द्योः) अर्थात अंतरिक्ष (पृथिव्यै) (वर्षीयान्) पृथ्वीहून विशाल व मोठा आहे (इन्द्रः) सूर्य आणि (गोः) वाणीचा (तु) तर (मात्रा) माप, तोल वा परिणाम (न) (विद्यते) नाही. (सूर्याच्या शक्ती व ऊर्जा किती, याला कोणी मोजू शकत नाही. तसेच वाणीमधे जो अपरिमित प्रभाव आहे, त्याला कोणत्या मापदंडाने मोजता येईल?) अर्थीत ते अशक्य आहे, हे तुम्ही ज्ञानार्थी जन नीट समजून घ्या ॥48॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ब्रह्म जो स्वतः प्रकाशमान आहे, त्यासम जगात कोणतीही ज्योती नाही. तसेच सूर्याच्या प्रकाशाने मेघ मंडळात जाऊन स्थिर होणारे विशालतम जलाशय दुसरा कोणता असेल अथवा सूर्यमंडलासारखा लोकेश कोण असेल आणि वाणीप्रमाणे आपली कार्ये सुरळीतपणे सिद्ध करणारे साधन दुसरे कोणतेही नाही, हे सर्व जणांनी जाणून घ्यावे ॥48॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    God is lustre like the sun. Heaven is a flood to match the sea. Sun is vaster than the Earth. Beyond all measure is speech.

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    Meaning

    Brahma is the light like the sun. The sky is the great vessel-hold of waters like the sea. The sun is greater than the earth. Word, divine speech, has no limits.

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    Translation

    The Divine Supreme is the light comparable with the sun. The sky is the lake comparable with the ocean. The cloud is more spacious than the earth. It is speech, that cannot be measured. (1)

    Notes

    Goḥ, धेनो: पृथिव्या: वाच: वा , of cow; of the earth; of the speech. Mātrā na vidyate, there is no measure of; cannot be mea sured.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথৈতেষামুত্তরাণ্যাহ ॥
    এখন উক্ত প্রশ্নগুলির উত্তরকে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে জ্ঞান কামনাকারী ব্যক্তি! তুমি (সূর্য়্যসমম্) সূর্য্যের সমান (জ্যোতিঃ) স্বপ্রকাশস্বরূপ (ব্রহ্ম) সর্বাপেক্ষা বৃহৎ অনন্ত পরমেশ্বর (সমুদ্রসমম্) সমুদ্র সমান (সরঃ) জলাশয় (দৌঃ) অন্তরিক্ষ (পৃথিব্যৈ) পৃথিবী হইতে (বর্ষীয়ান্) বৃহৎ (ইন্দ্রঃ) সূর্য্য এবং (গো) বাণীর (তু) নিশ্চয়ই (মাত্রা) মান-পরিমাণ (ন) নেই (বিদ্যতে) বিদ্যমান, ইহা জানো ॥ ৪৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–কেহই, স্বয়ং প্রকাশমান যে ব্রহ্ম, তাহার সমান জ্যোতি বিদ্যমান নয় অথবা সূর্য্যের প্রকাশ দ্বারা যুক্ত মেঘের সমান জল স্থিত হওয়ার স্থান অথবা সূর্য্যমন্ডল তুল্য লোকেশ বা বাণী তুল্য ব্যবহারকে প্রতিপন্নকারী কোন পদার্থ হয় না, ইহার নিশ্চয় সকলে করুক ॥ ৪৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ব্রহ্ম॒ সূর্য়॑সমং॒ জ্যোতি॒র্দ্যৌঃ স॑মু॒দ্রস॑ম॒ꣳসরঃ॑ ।
    ইন্দ্রঃ॑ পৃথি॒ব্যৈ বর্ষী॑য়া॒ন্ গোস্তু মাত্রা॒ ন বি॑দ্যতে ॥ ৪৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ব্রহ্মেত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । ব্রহ্মাদয়ো দেবতাঃ । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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