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यजुर्वेद अध्याय - 23

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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 32
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - राजा देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    2

    द॒धि॒क्राव्णो॑ऽअकारिषं जि॒ष्णोरश्व॑स्य वा॒जिनः॑।सु॒र॒भि नो॒ मुखा॑ कर॒त्प्र ण॒ऽआयू॑षि तारिषत्॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द॒धि॒क्राव्ण॒ इति दधि॒ऽक्राव्णः॑। अ॒का॒रि॒ष॒म्। जि॒ष्णोः। अश्व॑स्य। वा॒जिनः॑। सु॒र॒भि। नः॒। मुखा॑। क॒र॒त्। प्र। नः॒। आयू॑ꣳषि। ता॒रि॒ष॒त्॥३२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दधिक्राव्णोऽअकारिषञ्जिष्णोरश्वस्य वाजिनः । सुरभि नो मुखा करत्प्र ण आयूँषि तारिषत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दधिक्राव्ण इति दधिऽक्राव्णः। अकारिषम्। जिष्णोः। अश्वस्य। वाजिनः। सुरभि। नः। मुखा। करत्। प्र। नः। आयूꣳषि। तारिषत्॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 32
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा कस्येव किं वर्द्धयेदित्याह॥

    अन्वयः

    हे राजन्! यथाऽहं दधिकाव्णो वाजिनो जिष्णोरश्वस्येव वीर्यमकारिषं तथा भवान् नः सुरभि मुखेव वीर्यं प्रकरन्न आयूंषि तारिषत्॥३२॥

    पदार्थः

    (दधिक्राव्णः) यो दधीन् पोषकान् धारकान् वा क्राम्यति तस्य (अकारिषम्) कुर्य्याम् (जिष्णोः) जयशीलस्य (अश्वस्य) आशुगामिनः (वाजिनः) बहुवेगवतः (सुरभि) प्रशस्तसुगन्धियुतानि (नः) अस्माकम् (मुखा) मुखानि (करत्) कुर्य्यात् (प्र) (नः) अस्माकम् (आयूंषि) (तारिषत्) सन्तारयेत्॥३२॥

    भावार्थः

    यथाऽश्वशिक्षका अश्वान् वीर्यरक्षणनियमेन बलिष्ठान् संग्रामे विजयनिमित्तान् कुर्वन्ति, तथैवाध्यापकोपदेशकाः कुमारान् कुमारींश्च पूर्णेन ब्रह्मचर्यसेवनेन विद्यायुक्तान् विदुषीश्च कृत्वा शरीरात्मबलाय प्रवर्त्तय्य दीर्घायुषो युद्धशलीनान् सम्पादयेयुः॥३२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा किस के समान क्या बढ़ावे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे राजन्! जैसे मैं (दधिक्राव्णः) जो धारण-पोषण करने वालों को प्राप्त होता (वाजिनः) बहुत वेगयुक्त (जिष्णोः) जीतने और (अश्वस्य) शीघ्र जाने वाला है, उस घोड़े के समान पराक्रम को (अकारिषम्) करूं, वैसे आप (नः) हम लोगों के (सुरभि) सुगन्धियुक्त (मुखा) मुखों के तुल्य पराक्रम को (प्र, करत्) भलीभांति करो और (नः) हमारे (आयूंषि) आयुओं को (तारिषत्) उनकी अवधि के पार पहुंचाओ॥३२॥

    भावार्थ

    जैसे घोड़ों के सिखाने वाले घोड़ों को पराक्रम की रक्षा के नियम से बलिष्ठ और संग्राम में जिताने वाले करते हैं, वैसे पढ़ाने और उपदेश करनेहारे कुमार और कुमारियों को पूरे ब्रह्मचर्य्य के सेवन से पण्डित, पण्डिता कर उनको शरीर और आत्मा के बल के लिए प्रवृत्त करा के बहुत आयु वाले और अति युद्ध करने में कुशल बनावें॥३२॥

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    विषय

    विजयशील राजा की स्थापना ।

    भावार्थ

    ( दधिक्राव्णः ) धारक पोषक पुरुषों को प्राप्त होने वाले, (जिष्णोः) विजयशील, ( वाजिनः ) ऐश्वर्यवान्, (अश्वस्य) राष्ट्र के भोक्ता पुरुष को ( अकारिषम् ) मैं नियत करता हूँ। वह (नः) हमारे (मुखा ) मुख्य पदों को ( सुरभि ) उत्तम, बलवान्, यशस्वी ( करत्) बनावे ! (न: आयूंषि) हमारे जीवनों को ( प्र तारिषत्) चिरकाल तक स्थिर करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दधिक्रावा । ऋषिः जिष्णुर्वाजी, राजा देवता । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    विषय

    'दधिक्रावा' का स्तवन

    पदार्थ

    १. 'हमारे जीवन विलासमय न हो जाएँ' इसके लिए आवश्यक है कि हम सदा प्रभु का उपासन करें, इसीलिए प्रस्तुत मन्त्र में प्रभु के उपासन का वर्णन करते हुए कहते हैं- मैं उस प्रभु का (अकारिषम्) = स्तवन करता हूँ [विष्णोः करोमि - विष्णु का स्तवन करता हूँ] जो [क] (दधिक्राव्णः) = [दधत् क्रामति] धारणात्मक कर्म करते हुए गति करता है। उस प्रभु का प्रजाकर्म धारणात्मक है। [ख] (जिष्णोः) = जो प्रभु विजयशील हैं। वस्तुतः हम जो भी विजय प्राप्त करते हैं उस विजय को वे प्रभु ही हमें प्राप्त करा रहे होते हैं। प्रभु कभी पराजित नहीं होते। [ग] (अश्वस्य) = [अश्व व्याप्तौ] वे प्रभु व्यापक हैं। हमें भी उस प्रभु का अनुकरण करते हुए व्यापक व उदार बनना है। [घ] (वाजिनः) = उस प्रभु का जो [वज् गतौ] क्रियाशील व शक्तिशाली हैं [वाज - शक्ति] । २. इस प्रकार प्रभु का स्तवन करते हुए हमें भी 'दधिक्राव्ण-जिष्णु-अश्व व वाजी' बनने का प्रयत्न करना चाहिए। ३. इस प्रकार बननेवाला पुरुष प्रभु से प्रार्थना करता है कि वे प्रभु (नः मुखा) = हमारे मुखों को (सुरभि करत्) = सुगान्धित करे। हमारे मुख से कोई कड़वा शब्द न निकले तथा (नः आयूँषि) = हमारे जीवनों को (प्रतारिषत्) = दीर्घ कर दे। जब हमारे मुखों से कोई अशुभ शब्द नहीं निकलता तब हमें अवश्य दीर्घजीवन प्राप्त होता है। कड़वे शब्द हमारे आयुष्य को भी काटनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- दधिक्राव्ण-जिष्णु-अश्व व वाजी' पुरुष के मुख से कोई अपशब्द उच्चारित नहीं होता और इसे दीर्घजीवन प्राप्त होता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसे अश्वशिक्षक घोड्यांना पराक्रमी, रक्षक, वेगवान, बलिष्ठ व युद्धात जिंकणारे बनवितात तसे अध्यापन व उपदेश करणाऱ्यांनी कुमार व कुमारींना पूर्ण ब्रह्मचर्याने पंडित व पंडिता बनवून शरीर व आत्म्याचे बल वाढविण्यास प्रवृत्त करावे व दीर्घायुषी बनवावे, तसेच युद्धकुशलही बनवावे.

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    विषय

    राजाने कोणत्या विषयाची (वस्तू वा गुणांची) वृद्धी करावी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे राजा, मी (एक सैनिक वा राजपुरूष) (दधिक्राव्णः) (प्रजेचे) धारण-पोषण करणार्‍या (वैश्‍वादी दानी) जनांपर्यंत (वाजिनः) अत्यंत वेगवान आणि (जिष्णोः) विजयी ठरणार्‍या (अश्‍वस्य) शीघ्रगामी घोड्याप्रमाणे (अकारिषम्) त्वरित जातो व पराक्रम करून दाखवितो. आपणही (नः) आम्ही (सैनिकांनी वा राजपुरूषांनी) (सुरभि) सुगंधित (मुखा) मुखाप्रमाणे सुंदर व प्रिय पराक्रम करून दाखविल्यानंतर (प्र,करत्) आपणही तसा पराक्रम करा आणि (नः) आमच्या (आयूंषि) आयुष्याला (तारिषत्) आयुष्याच्या सीमेपर्यंत पोहचला (आम्हांला दीर्घजीवी करा) ॥32॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्याप्रमाणे घोड्यांना प्रशिक्षण देणारे प्रशिक्षक युद्धात पराक्रम करून दाखविण्याच्या दृष्टीने घोड्यांना बलवान नियमबद्ध आणि युद्दात विजयी ठरणारे करतात, त्याप्रमाणे अध्यापक व उपदेशकगणांनी अध्ययनकारी कुमार-कुमारींना ब्रह्मचर्याचे पालन करवावे आणि त्याना पंडित वा पंडिता करावे. त्यांना शारिरीक व आत्मिक शक्ती प्राप्त करण्यासाठी प्रेरणाद्यावी, तसेच ते कशाप्रकारे दीर्घजीवी व युद्धनिपुण होतील, ते पहावे. ॥32॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    I sing the praise of God, obtainable by him who deeply meditates upon Him, the Remover of miseries, and full of splendour. May He strengthen our vital breaths, and prolong the days we have to live.

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    Meaning

    The hero is on guard, holding and protecting the land and people. Like a knight of horse panting for victory, fast advancing in the battle, I place him at the head of the nation. May he do us proud, holding our head high gracefully, and may he carry us across the field of life.

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    Translation

    I glorify the spacecraft, which is rapid like a victorious steed. May he give to our faces the fragrance of fame and longevity to our lives. (1)

    Notes

    Dadhikrāvṇaḥ, दधाति धारयति नरं इति दधि: , one that supports or cardes a man is dadhih; दधिः सन् क्रामति यः सः दधिक्रावा तस्य , of him who runs carrying a man, i. e. , a horse. Surabhi no mukhā karat, may our mouths be filled with fragrance. The commentators suggest that the mouths of the priests and others were defiled with obcene talk, therefore the prayer to purify them. Tārişat, may extend; प्रवर्धयति ।

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ স রাজা কস্যেব কিং বর্দ্ধয়েদিত্যাহ ॥
    পুনঃ সে রাজা কাহার সমান কী বৃদ্ধি করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে রাজন্ ! যেমন আমি (দধিক্রাব্ণঃ) যাহা ধারকপোষকদের প্রাপ্ত হয় (বাজিনঃ) বহু বেগযুক্ত (জিষ্ণোঃ) জয়শীল এবং (অশ্বস্য) শীঘ্রগামী, সেই অশ্বের সমান পরাক্রমকে (অকারিষম্) করিব সেইরূপ আপনি (নঃ) আমাদিগের (সুরভি) সুগন্ধিযুক্ত (মুখা) মুখের তুল্য পরাক্রমকে (প্র, করৎ) ভালমত করুন এবং (নঃ) আমাদের (আয়ূংষি) আয়ুসকলকে (তারিষৎ) তাহাদেরকে অবধি পার করিয়া দিন ॥ ৩২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যেমন অশ্বশিক্ষক অশ্বদিগকে পরাক্রমের রক্ষার নিয়মে বলিষ্ঠ ও সংগ্রামে বিজয়নিমিত্ত করে সেইরূপ অধ্যাপকও উপদেশক কুমার ও কুমারীদেরকে পূর্ণ ব্রহ্মচর্য্যের সেবন দ্বারা বিদ্বান্ – বিদুষী করিয়া তাহাদেরকে শরীর ও আত্মা বল হেতু প্রবৃত্ত করাইয়া বহু আয়ু যুক্ত এবং অতিযুদ্ধ করিতে কুশল করুক ॥ ৩২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দ॒ধি॒ক্রাব্ণো॑ऽঅকারিষং জি॒ষ্ণোরশ্ব॑স্য বা॒জিনঃ॑ ।
    সু॒র॒ভি নো॒ মুখা॑ কর॒ৎপ্র ণ॒ऽআয়ূ॑ᳬंষি তারিষৎ ॥ ৩২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দধিক্রাব্ণ ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । রাজা দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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