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यजुर्वेद अध्याय - 23

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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 56
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - समाधाता देवता छन्दः - स्वराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
    2

    अ॒जारे॑ पिशङ्गि॒ला श्वा॒वित्कु॑रुपिशङ्गि॒ला।श॒शऽआ॒स्कन्द॑मर्ष॒त्यहिः॒ पन्थां॒ वि स॑र्पति॥५६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒जा। अ॒रे॒। पि॒श॒ङ्गि॒ला। श्वा॒वित्। श्व॒विदिति॑ श्व॒ऽवित्। कु॒रु॒पिश॒ङ्गि॒लेति॑ कुरुऽपिशङ्गि॒ला। श॒शः। आ॒स्कन्द॒मित्या॒ऽस्कन्द॑म्। अ॒र्ष॒ति॒। अहिः॑। पन्था॑म्। वि। स॒र्प॒ति॒ ॥५६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजारे पिशङ्गिला श्वावित्कुरुपिशङ्गिला । शशऽआस्कन्दमर्षत्यहिः पन्थाँविसर्पति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अजा। अरे। पिशङ्गिला। श्वावित्। श्वविदिति श्वऽवित्। कुरुपिशङ्गिलेति कुरुऽपिशङ्गिला। शशः। आस्कन्दमित्याऽस्कन्दम्। अर्षति। अहिः। पन्थाम्। वि। सर्पति॥५६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 56
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पूर्वप्रश्नानामुत्तराण्याह॥

    अन्वयः

    अरे मनुष्याः! अजा पिशङ्गिला श्वावित् कुरुपिशङ्गिलाऽस्ति, शश आस्कन्दमर्षत्यहिः पन्थां विसर्पतीति विजानीत॥५६॥

    पदार्थः

    (अजा) जन्मरहिता प्रकृतिः (अरे) सम्बोधने (पिशङ्गिला) (श्वावित्) पशुविशेष इव (कुरुपिशङ्गिला) कुरोः कृतस्य कृष्यादेः पिशान्यङ्गानि गिलति सा (शशः) पशुविशेष इव वायुः (आस्कन्दम्) समन्तादुत्प्लुत्य गमनम् (अर्षति) प्राप्नोति (अहिः) मेघः (पन्थाम्) पन्थानम् (वि, सर्पति) विविधतया गच्छति॥५६॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! याऽजा प्रकृतिः सर्वकार्यप्रलयाधिकारिणी कार्यकारणाख्या स्वकार्य्यं स्वस्मिन् प्रलापयति। या सेधा कृष्यादिकं विनाशयति, यो वायु शश इव गच्छन् सर्वं शोषयति, यो मेघः सर्प इव गच्छति, तान् विजानीत॥५६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    पूर्व मन्त्र में कहे प्रश्नों के उत्तर अगले मन्त्र में कहते हैं॥

    पदार्थ

    (अरे) हे मनुष्यो! (अजा) जन्मरहित प्रकृति (पिशङ्गिला) विश्व के रूप को प्रलय समय में निगलनेवाली (श्वावित्) सेही (कुरुपिशङ्गिला) किये हुए खेती आदि के अवयवों का नाश करती है, (शशः) खरहा के तुल्य वेगयुक्त कृषि आदि में खरखराने वाला वायु (आस्कन्दम्) अच्छे प्रकार कूद के चलने अर्थात् एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ को शीघ्र (अर्षति) प्राप्त होता और (अहिः) मेघ (पन्थाम्) मार्ग में (वि, सर्पति) विविध प्रकार से जाता है, इस को तुम जानो॥५६॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! जो प्रकृति सब कार्यरूप जगत् का प्रलय करने हारी, कार्य्यकारणरूप अपने कार्य को अपने में लय करने हारी है, जो सेही खेती आदि का विनाश करती है, जो वायु खरहा के समान चलता हुआ सब को सुखाता है और जो मेघ सांप के समान पृथिवी पर जाता है, उन सब को जानो॥५६॥

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    भावार्थ

    (अरे) हे प्रश्नकर्त्तः ! सुन, (पिशङ्गिला) समस्त रूपों को अपने भीतर निगल जाने वाली (अजा) 'अजा', प्रकृति है । वह स्वत:कारण समस्त कार्य पदार्थों को विलीन कर लेती है ।( श्वावित् ) सेही धान्यादि अन्न को खा जाती है उसी प्रकार 'श्वा' कुत्ते के समान विषय रस भोग्य पदार्थों को प्राप्त करने वाला जीव, (कुरुपिशङ्गिला) अपने कर्मों से उत्पादित रूपों को धारण करता है इसलिये वह 'कुरुपिशंगिला' है । (शशः) शासक के तुल्य कूद-कूद कर चलने वाला, सबको क्षीण करने वाला काल 'शश' है वह ( आस्कदम् ) सब पदार्थों पर आक्रमण करता हुआ (अर्षति) जाता है । (अहिः) सर्प जैसे सरकता जाता है उसी प्रकार मेघ ( पन्थाम् ) आकाश मार्ग में (विसर्पति) जाता है । अथवा (अहिः) अविनाशी जीवात्मा (पन्थाम् विसर्पति) अपने मार्ग में जाता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    समाधाता देवता । प्रतिवचनानि । स्वराड् उष्णिक् । ऋषभः ॥

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    विषय

    अज- श्वावित्, शश- अहि:

    पदार्थ

    १. प्रस्तुत मन्त्रों में पिछले मन्त्रों के अन्तिम प्रश्न को फिर से दुहराया गया है। दुहराने का कारण यह है कि 'प्रलयकाल के समय शरीर प्रकृति में विलीन हो जाते हैं' तो आत्मा कहाँ रहती है? इसका स्पष्टीकरण अभीष्ट है, अतः प्रश्न को भी दो भागों में बाँटकर दो प्रश्नों के रूप में करते हुए पूछते हैं कि (अरे) = अयि क्रियाशील विद्वन्! [ऋ गतौ ] (ईम्) = निश्चय से (पिशङ्गिला का) = सब रूपों को निगीर्ण कर जानेवाली कौन वस्तु है और (ईम्) = निश्चय से (का) = कौन (कुरुपिशङ्गिला) = [कर्मकर्तुः जीवस्य पिशङ्गिलति ] इस कर्म करनेवाले जीव के रूप को निगलनेवाली है। २. तीसरा प्रश्न है कि (ईम्) = निश्चय से (कः) = कौन (आस्कन्दम्) = समन्तात् शत्रुशोषण को (अर्षति) = प्राप्त होता है, अर्थात् कौन शत्रुओं का शोषण करता है? तथा चौथे प्रश्न में पूछते हैं कि (ईम्) = निश्चय से (कः) = कौन (पन्थाम्) = मार्ग पर (विसर्पति) = विशिष्ट रूप से गति करता है? ३. इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहते हैं कि (अरे) = अयि प्रश्नकर्त: ! तू यह समझ कि (अजा) = प्रकृति (पिशङ्गिला) = सब रूपों को अपने में निगीर्ण कर लेती है। जैसे घड़ा टूटता है, पिसते पिसते मिटी बन जाता है। घड़े के रूप को मिट्टी अपने में निगीर्ण कर लेती है। इसी प्रकार वे सब सूर्य, चन्द्र, तारों के आकार प्रलय के समय प्रकृति में छिप जाएँगे। मनु के शब्दों में यह सारा संसार प्रकृति में जा सोएगा [प्रसुप्तमिव सर्वतः । ] ४. दूसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि जब जीव का यह भौतिक शरीर प्रकृति में चला जाएगा उस समय इस जीव को प्रभु अपने में स्थापित कर लेंगे। वे (श्वावित्) = [मातरिश्वा श्वा, जैसे सत्यभामा-भामा] जीव को सदा प्राप्त [विद् = लाभ] होनेवाले, जीव के सतत सखा प्रभु [ सयुजा सखाया] (कुरुपिशङ्गिला) = इस क्रियाशील चेतन जीव के रूप को अपने में धारण कर लेंगे, जैसे रात्रि के समय बच्चा माता की गोद में आराम से सोया हुआ होता है, उसी प्रकार प्रलयकाल में प्रभु हम जीवों को अपनी गोद में सुलानेवाले होंगे। कुछ देर के लिए हमारे सारे कष्ट समाप्त हो जाएँगे। हम सुषुप्ति में होंगे और ब्रह्मरूप से होंगे। ('समाधिसुषुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपता') = [सांख्य] । ५. तृतीय प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है कि (शश) = प्लुतगतिवाला पुरुष, आलस्यशून्य कर्म करनेवाला पुरुष ही (आस्कन्दम्) = चारों ओर से आक्रमण करनेवाले काम-क्रोध- आदि शत्रुओं के शोषण को (अर्षति) = प्राप्त करता है। क्रियाशीलता में ही काम-क्रोधादि शत्रुओं का विनाश है। ६. चौथे प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि (अहि:) = [ न हन्ति अथवा अह्नोति अह व्याप्तौ ] न हिंसा करनेवाला व्यक्ति तथा सदा लोकहित के व्यापक कर्मों में लगे रहनेवाला व्यक्ति ही (पन्थां विसर्पति) = उत्कृष्ट मार्ग पर चलता है, अर्थात् संसार में मार्गभ्रष्ट वही व्यक्ति है जो [क] हिंसारत है, [ख] व्यापक मनोवृत्ति बनाकर कर्मों में नहीं लगा हुआ, [ग] स्वार्थी है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रलयकाल के समय ये सब कार्यपदार्थ कारणप्रकृति में चले जाएँगे, जीव प्रभु की गोद में सो जाएँगे। 'फिर जन्म न हो' इसके लिए चाहिए कि क्रियाशीलता से कामादि शत्रुओं का हम शोषण कर दें और अहिंसक बनकर सदा व्यापक कर्मों में लगे रहें, स्वार्थ से सदा ऊपर उठे रहें ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! प्रकृती ही सर्व कार्यरूपी जगाचा प्रलय करणारी (गिळून टाकणारी) असून कार्यकारणरूपी कार्याचा आपल्यातच लय करणारी आहे. शेतीचा नाश जंतू करतात. वायू हा सशाप्रमाणे शीघ्र चालतो, सर्वांना सुकवितो. मेघ सापाप्रमाणे जलमार्गाचा विस्तार करून पृथ्वीवर येतो त्या सर्वांना तुम्ही जाणा.

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    विषय

    मागील मंत्रातील प्रश्‍नांची उत्तरे या मंत्रात -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ – (अरे) हे मनुष्यांनो, (अजा) जन्मरहित प्रकृती (पिशङ्गिला) विश्‍वाच्या रूपाला (सर्व साकार पदार्थांना आणि रूपधारी सृष्टीला प्रलयकाळात गिळून टाकणारी आहे. (श्‍वावित्) सायाळ प्राणी (कुरूपिशङ्गिला) उगवलेल्या पिकाचा व शेतीचा नाश करणारा प्राणी आहे. (शशः) सशाप्रमाणे कृषी (शेती, पीक वा वनात) हरहरत वाहणारा वायु (आस्कन्दम्) उड्या मारत अथवा या पदार्थावरून त्या पदार्थापर्यंत वाहत जात शीघ्र कुठपर्यंत (अर्षति) जातो. आणि (अहिः) मेघ (पंथाम्) मार्गावर (आकाश माार्गवर (वि, सर्पति) विविध प्रकारे मुक्तपणे संचार करतो ॥56॥

    भावार्थ

    भावार्थ -हे मनुष्यांनो, तुम्ही हे जाणून घ्या की प्रकृती सर्व कार्यरूप मूर्त जगाचा प्रलय करणारी असून तीच आपल्या कार्यरूप या सृष्टीला स्वतःमधेच लय करून घेते. तसेच सायाळ प्राणी शेतीचा नाश वा विध्वंस करतो. वायू सशाप्रमाणे उड्या मारत मंद मंद वाहत सर्वांना सुखी करतो आणि मेघ वृष्टीच्या रूपाने पृथ्वीवर सापासारखा प्रसार पावतो. ॥56॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O questioner know, that eternal matter resolves the world in itself at the time of dissolution, Porcupine destroys the corn-fields. Like hare the air moves with leaps and bounds. Cloud creeps winding on the path.

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    Meaning

    Prakriti is the cover of forms. Porcupine is the destroyer of the beauty of crops in the field. Energy moves in currents. And the clouds sail upon their path.

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    Translation

    Well, it is the she-goat, that devours all. It is the porcupine, that destroys the crops. It is the hare, that runs in quick jumps; and it is the snake, that glides along the path. (1)

    Notes

    Ajā, she-goat. Also, जन्मरहिता प्रकृति: eternal Naturethat is never born. (Dayā. ). नित्या माया eternal or the eternal night. Śvavit, सेधा, a porcupine.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পূর্বপ্রশ্নানামুত্তরাণ্যাহ ॥
    পূর্ব মন্ত্রে কথিত প্রশ্নগুলির উত্তর পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(অরে) হে মনুষ্যগণ! (অজা) জন্মরহিত প্রকৃতি (পিশঙ্গিলা) বিশ্বের রূপকে প্রলয় সময়ে নিগীরণকারী (শ্বাবিৎ) সজারু (কুরুপিশঙ্গিলা) কৃত জমি আদির অবয়বের নাশ করে (শশঃ) খরগোশ তুল্য বেগযুক্ত কৃষি আদিতে শুকিয়ে দেওয়া বায়ু (আস্কন্দম্) উত্তম প্রকার লম্ফ দিয়া চলে অর্থাৎ এক পদার্থ হইতে অন্য পদার্থকে শীঘ্র (অর্ষতি) প্রাপ্ত হয় এবং (অহিঃ) মেঘ (পন্থাম্) মার্গে (বি, সর্পতি) বিবিধ প্রকারে যায়, ইহা তুমি জান ॥ ৫৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যে প্রকৃতি সব কার্য্যরূপ জগতের প্রলয়কারিণী কার্য্যকারণ রূপ স্বীয় কার্য্যকে নিজের মধ্যে লয়কারিণী, যে সজারু খেতাদির বিনাশ করে, যে বায়ু খরগোশের সমান চলিয়া সকলকে শুষ্ক করে এবং যে মেঘ সর্প সমান পৃথিবীর উপর দিয়া গমন করে, সেই সকলকে জান ॥ ৫৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒জারে॑ পিশঙ্গি॒লা শ্বা॒বিৎকু॑রুপিশঙ্গি॒লা ।
    শ॒শऽআ॒স্কন্দ॑মর্ষ॒ত্যহিঃ॒ পন্থাং॒ বি স॑র্পতি ॥ ৫৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অজার ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । সমাধাতা দেবতা । স্বরাডুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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