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यजुर्वेद अध्याय - 23

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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 15
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    3

    स्व॒यं वा॑जिँस्त॒न्वं कल्पयस्व स्व॒यं य॑जस्व स्व॒यं जु॑षस्व। म॒हि॒मा ते॒ऽन्येन॒ न स॒न्नशे॑॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्व॒यम्। वा॒जि॒न्। त॒न्व᳖म्। क॒ल्प॒य॒स्व॒। स्व॒यम्। य॒ज॒स्व॒। स्व॒यम्। जु॒ष॒स्व॒। म॒हि॒मा। ते॒। अ॒न्येन॑। न। स॒न्नश॒ इति॑ स॒म्ऽनशे॑ ॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वयँवाजिँस्तन्वङ्कल्पयस्व स्वयँयजस्व स्वयञ्जुषस्व । महिमा ते न्येन न सन्नशे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वयम्। वाजिन्। तन्वम्। कल्पयस्व। स्वयम्। यजस्व। स्वयम्। जुषस्व। महिमा। ते। अन्येन। न। सन्नश इति सम्ऽनशे॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 15
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ जिज्ञासवः कीदृशा भवेयुरित्याह॥

    अन्वयः

    हे वाजिंस्त्वं तन्वं कल्पयस्व स्वयं विदुषो यजस्व स्वयं जुषस्व च। यतस्ते महिमाऽन्येन सह न संनशे॥१५॥

    पदार्थः

    (स्वयम्) (वाजिन्) जिज्ञासो (तन्वम्) शरीरम् (कल्पयस्व) समर्थयस्व (स्वयम्) (यजस्व) संगच्छस्व (स्वयम्) (जुषस्व) सेवस्व (महिमा) प्रतापः (ते) तव (अन्येन) (न) (सन्नशे) सम्यक् नश्येत्॥॥१५॥

    भावार्थः

    यथाग्निः स्वयं प्रकाशः स्वयं सङ्गतः स्वयं सेवमानोऽस्ति, तथा ये जिज्ञासवः स्वयं पुरुषार्थयुक्ता भवन्ति, तेषां महिमा कदाचिन्न नश्यति॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पढ़ने वा उत्तम विद्या-बोध चाहने वाले कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (वाजिन्) बोध चाहने वाले जन! तू (स्वयम्) आप (तन्वम्) अपने शरीर को (कल्पयस्व) समर्थ कर (स्वयम्) आप अच्छे विद्वानों को (यजस्व) मिल और (स्वयम्) आप उनकी (जुषस्व) सेवा कर, जिससे (ते) तेरी (महिमा) बड़ाई तेरा प्रताप (अन्येन) और के साथ (न) मत (सन्नशे) नष्ट हो॥१५॥

    भावार्थ

    जैसे अग्नि आप से आप प्रकाशित होता, आप मिलता तथा आप सेवा को प्राप्त है, वैसे जो बोध चाहने वाले जन आप पुरुषार्थयुक्त होते हैं, उनका प्रताप, बड़ाई कभी नहीं नष्ट होती॥१५॥

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    विषय

    ऐश्वर्यवान् स्वामी और अध्यात्म में आत्मा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( वाजिन् ) ऐश्वर्यवन् ! बलवन ! तृ ( तन्वम् ) अपने शरीर या विस्तृत राष्ट्र को ( स्वयम् ) स्वयं, अपनी इच्छानुसार (कल्पयस्व) समर्थ, बलवान् बना । (स्वयं यजस्व) स्वयं यथेच्छ दान कर, स्वयं संगति लाभ कर । (स्वयं जुषस्व ) स्वयं राष्ट्र का सेवन कर । (अन्येन) तेरे से भिन्न कोई, तेरा शत्रु (ते) तेरे (महिमा) महान् सामर्थ्य को ( न सं वशे) प्राप्त न कर सके वा तेरी महिमा को कोई नष्ट नहीं करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विद्वान् । विराडनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    विषय

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    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के 'सोमपुरोगव' से कहते हैं कि हे (वाजिन्) = क्रियाशील व शक्तिशालिन् ! तू (स्वयम्) = अपने आप (तन्वम्) = शरीर को (कल्पयस्व) = शक्तिशाली बना। तू औरों का ध्यान न करके 'और करते हैं या नहीं, इसका विचार न करके, स्वयं अपने को शक्तिशाली बनाने का प्रयत्न कर। २. शक्तिशाली बनकर (स्वयं यजस्व) = औरों की ओर न देखता हुआ स्वयं यज्ञशील बन। ३. यज्ञशील बनकर (स्वयं जुषस्व) = तू स्वयं प्रभु की प्रीतिपूर्वक उपासना करनेवाला बन। ४. इस प्रकार जीवन बिताने पर (अन्येन) = दूसरे से (ते महिमा) = तेरी महिमा न सन्नशे= नष्ट नहीं की जा सकती, अर्थात् तेरा कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम औरों की ओर न देखते हुए तथा औरों पर आश्रित न होते हुए अपने शरीर को शक्तिशाली बनाएँ, यज्ञशील बनें, प्रभु के उपासक हों। हम यह विश्वास रक्खें कि हमारे महत्त्व को कोई दूसरा नष्ट नहीं कर सकता। स्वयं हम ही गलती से नष्ट कर लें तो और बात है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा अग्नी स्वयंप्रकाशित असतो व सर्वांच्या सेवेत उपलब्ध असतो. तसे जे जिज्ञासू लोक विद्वानांकडून बोध करून घेऊ इच्छितात ते स्वतः पुरुषार्थी असतात. त्यांचा पराक्रम आणि मोठेपणा कधी नष्ट होत नाही.

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    विषय

    अध्ययन करणारे विद्यार्थी अथवा उत्तम विद्या-बोधाची इच्छा करणार्‍या लोकांनी कसे असावे, या वषियी.-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (वाजिन्) ज्ञानार्थी मनुष्या, तू (स्वयम्) स्वतः (तन्वम्) आपल्या शरीराला (कल्पयस्व) समर्थ व सशक्त कर. (स्वयम्) स्वतः चांगल्या विद्वानांची (यजस्व) भेट घेत जा आणि (सवयं) स्वतः त्यांची (जुषस्व) सेवा करीत जा, ज्यामुळे (ते) तुझी (महिमा) महिमा वा कीर्ती, तुजा प्रताप (अन्येन) अन्य (इतर आळशी) लोकांप्रमाणे (न) (संनशे) नष्ट होणारे नाही. ॥15॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्याप्रमाणे अग्नी स्वतः प्रकाशमान आहे. स्वतःच लोकांची सेवा करतो अथवा लोकांतर्फे मान्य आहे त्याप्रमाणे ज्ञानाची इच्छा करणारे लोक स्वतः पुरूषार्थी व परिश्रमी असतात, त्यामुळे त्यांचा प्रताप वा त्यांचे मोठेपण कधीही क्षीण वा नष्ट होत नाही. ॥15॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O seeker after knowledge, thyself strengthen the body, thyself walk in the company of the learned, and thyself serve them. Let not thy greatness be marred by any one.

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    Meaning

    Man of knowledge, seeker of advancement, develop your self by yourself. Do the yajna of joint work by your own choice. Serve the scholars and society by yourself. Your eminence and value must not be destroyed by others.

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    Translation

    O seeker of strength, may you yourself adorn your body. May you yourself perform the sacrifice and may you yourself enjoy. Your grandeur cannot be achieved by any one other than you. (1)

    Notes

    Vajin, वाज: बलं अस्ति यस्य सः, वाज् इच्छति वा, one who has got strength; or who seeks strength. you wish. Also, adorn it. Kalpayasva, स्वयं रूपं कुरुष्व यादृशमिच्छनि, develop it as Na Samnase, cannot be achieved. नश् means to disappear, to be lost, but in the Veda it may mean to pervade or achieve also. If you want to strengthen your physique or mind, it is you who has to make effort; none else is going to do it for you.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ জিজ্ঞাসবঃ কীদৃশা ভবেয়ুরিত্যাহ ॥
    এখন অধ্যয়নকারী বা উত্তম বিদ্যা-বোধ কামনাকারী কেমন হইবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (বাজিন্) বোধ কামনাকারী তুমি (স্বয়ম্) স্বয়ং (তন্বম্) নিজের শরীরকে (কল্পয়স্ব) সমর্থ কর (স্বয়ং) উত্তম বিদ্বান্দিগের সঙ্গে (য়জস্ব) সঙ্গ দাও এবং (স্বয়ম্) স্বয়ং তাহাদেরকে (জুষস্ব) সেবা কর যাহাতে (তে) তোমার (মহিমা) মহিমা, তোমার প্রতাপ (অন্যেন) অন্যদের সহ (ন) না (সংনশ) নষ্ট হয় ॥ ১৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- অগ্নি স্বয়ং প্রকাশিত হয়, স্বয়ং সঙ্গ দেয় তথা স্বয়ং সেবা প্রাপ্ত হয় । যাহারা বোধ কামনাকারী স্বয়ং পুরুষার্থ যুক্ত হইয়া থাকে, তাহাদের প্রতাপ, মহিমা কখনও নষ্ট হয় না ॥ ১৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    স্ব॒য়ং বা॑জিঁস্ত॒ন্বং᳖ কল্পয়স্ব স্ব॒য়ং য়॑জস্ব স্ব॒য়ং জু॑ষস্ব ।
    ম॒হি॒মা তে॒ऽন্যেন॒ ন স॒ন্নশে॑ ॥ ১৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    স্বয়মিত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । বিদ্বান্ দেবতা । বিরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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