यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 25
ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः
देवता - गृहपतिर्देवता
छन्दः - भूरिक् आर्षी पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
2
स॒मु॒द्रे ते॒ हृद॑यम॒प्स्वन्तः सं त्वा॑ विश॒न्त्वोष॑धीरु॒तापः॑। य॒ज्ञस्य॑ त्वा यज्ञपते सू॒क्तोक्तौ॑ नमोवा॒के वि॑धेम॒ यत् स्वाहा॑॥२५॥
स्वर सहित पद पाठस॒मु॒द्रे। ते॒। हृद॑यम्। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। अ॒न्तरित्य॒न्तः। सम्। त्वा॒। वि॒श॒न्तु॒। ओष॑धीः। उ॒त। आपः॑। य॒ज्ञस्य॑। त्वा॒। य॒ज्ञ॒प॒त॒ इति॑ यज्ञऽपते। सू॒क्तोक्ता॒विति॑ सू॒क्तऽउ॑क्तौ। न॒मो॒वा॒क इति॑ नमःऽवा॒के। वि॒धे॒म॒। यत्। स्वाहा॑ ॥२५॥
स्वर रहित मन्त्र
समुद्रे ते हृदयमप्स्वन्तः सन्त्वा विशन्त्वोषधीरुतापः । यज्ञस्य त्वा यज्ञपते सूक्तोक्तौ नमोवाके विधेम यत्स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
समुद्रे। ते। हृदयम्। अप्स्वित्यप्ऽसु। अन्तरित्यन्तः। सम्। त्वा। विशन्तु। ओषधीः। उत। आपः। यज्ञस्य। त्वा। यज्ञपत इति यज्ञऽपते। सूक्तोक्ताविति सूक्तऽउक्तौ। नमोवाक इति नमःऽवाके। विधेम। यत्। स्वाहा॥२५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनर्गृहस्थोपदेशमाह॥
अन्वयः
हे यज्ञपते! यथा वयं स्वाहा यज्ञस्य सूक्तोक्तौ नमोवाके समुद्रेऽप्सु च ते तव हृदयमप्स्वन्तोऽन्तःकरणं विधेम, तथा तेन विदिता ओषधीस्त्वा समाविशन्तु। उताप्यापस्तव सुखकारिकाः सन्तु॥२५॥
पदार्थः
(समुद्रे) सम्यग् द्रवीभूते व्यवहारे (ते) तव (हृदयम्) (अप्सु) प्राणेषु (अन्तः) अन्तःकरणम् (सम्) (त्वा) (विशन्तु) (ओषधीः) यवाद्याः (उत) अपि (आपः) जलानि (यज्ञस्य) गृहाश्रमानुकूलस्य व्यवहारस्य (त्वा) त्वाम् (यज्ञपते) गृहाश्रमस्य रक्षक! (सूक्तोक्तौ) सूक्तानां वेदस्थानां प्रामाण्यस्योक्तिर्यस्मिन् गृहाश्रमे (नमोवाके) वेदस्थस्य नम इत्यन्नस्य सत्कारस्य च वाका वचनानि यस्मिन् (विधेम) निष्पादयेम (यत्) यतः (स्वाहा) प्रेमोत्पादयित्र्या वाचा। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ४। ५। १३-२०) व्याख्यातः॥२५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। अध्यापकोपदेशका गृहस्थान् सत्यां विद्यां ग्राहयित्वा प्रयत्नसाध्ये गृहकृत्यानुष्ठाने सर्वान् युञ्जीयुः। यतश्चैते शरीरात्मबलं वर्द्धयेरन्॥२५॥
विषयः
पुनर्गृहस्थोपदेशमाह ॥
सपदार्थान्वयः
हे यज्ञपते ! गृहाश्रमस्य रक्षक ! यथा वयं स्वाहा प्रेमोत्पादयित्र्या वाचा यज्ञस्य गृहाश्रमानुकूलस्य व्यवहारस्य सूक्तोक्तौ सूक्तानां=वेदस्थानां प्रामाण्यस्योक्तिर्यस्मिन् गृहाश्रमे नमोवाके वेदस्थस्य नम इत्यन्नस्य सत्कारस्य च वाका वचनानि यस्मिन्समुद्रे सम्यग्द्रवीभूते व्यवहारे अप्सु प्राणेषुच ते=तव हृदयमप्सु प्राणेषुअन्तः=अन्तःकरणं विधेम निष्पादयेम तथा तेन विदिता ओषधी: यवाद्याः त्वा समाविशन्तु, उत=अपि आपः जलानि तव सुखकारिकाः सन्तु ॥ ८ । २५ ॥ [हे यज्ञपते ! यथा वयं.....ते=तव हृदयमप्स्वन्तःकरणं विधेम तथा तेन विदिता औषधीस्त्वा समाविशन्तु, उताप्यापस्ते सुखकारिकाः सन्तु]
पदार्थः
(समुद्रे) सम्यग् द्रवीभूते व्यवहारे (ते) तव (हृदयम्)(अप्सु) प्राणेषु (अन्तः) अन्तःकरणम् (सम्)(त्वा)(विशन्तु)(ओषधीः) यवाद्याः (उत) अपि (आपः) जलानि (यज्ञस्य) गृहाश्रमानुकूलस्य व्यवहारस्य (त्वा) त्वाम् (यज्ञपते) गृहाश्रमस्य रक्षक! (सूक्तोक्तौ) सूक्तानां=वेदस्थानां प्रामाण्यस्योक्तिर्यस्मिन् गृहाश्रमे (नमोवाके) वेदस्थस्य नम इत्यन्नस्य सत्कारस्य च वाका=वचनानि यस्मिन्(विधेम) निष्पादयेम (यत्) यतः (स्वाहा) प्रेमोत्पादयित्र्या वाचा ॥ अयं मन्त्र: शत० ४।४।५। १३-२० व्याख्यातः ॥ २५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः॥ अध्यापकोपदेशका गृहस्थान् सत्यां विद्या ग्राहयित्वा प्रयत्नसाध्ये गृहकृत्यानुष्ठाने सर्वान् युञ्जीयुः । यतश्चैते शरीरात्मबलं वर्द्धयेरन् ॥८ । २५॥
विशेषः
अत्रिः। गृहपति:=स्पष्टम् । भुरिगार्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर गृहस्थों के लिये उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (यज्ञपते) जैसे गृहाश्रम धर्म्म के पालनेहारे! हम लोग (स्वाहा) प्रेमास्पदवाणी से (यज्ञस्य) गृहाश्रमानुकूल व्यवहार के (सूक्तोक्तौ) उस प्रबन्ध कि जिस में वेद के वचनों के प्रमाण से अच्छी-अच्छी बातें हैं और (नमोवाके) वेद प्रमाणसिद्ध अन्न और सत्कारादि पदार्थों के वादानुवाद रूप (समुद्रे) आर्द्र व्यवहार और (अप्सु) सब प्रमाणों में (ते) तेरे (यत्) जिस (हृदयम्) हृदय को सन्तुष्टि में (विधेम) नियत करें, वैसे उससे जानी हुई (ओषधीः) यव, गेहूं, चना, सोमलतादि सुख देने वाले पदार्थ (आ) (विशन्तु) प्राप्त हों, (उत) और न केवल ये ही किन्तु (आपः) अच्छे जल भी तुझ को सुख करने वाले हों॥२५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पढ़ाने और उपदेश करने वाले सज्जन पुरुष गृहस्थों को सत्यविद्या को ग्रहण कराकर अच्छे यत्नों से सिद्ध होने योग्य घर के कामों में सब को युक्त करें, जिससे गृहाश्रम चाहने और करने वाले पुरुष शरीर और अपने आत्मा का बल बढ़ावें॥२५॥
विषय
समुद्र में हृदय का धारण
पदार्थ
१. ( ते ) = तेरा हृदय ( समुद्रे ) = [ स-मुद्रे ] सदा आनन्द के साथ निवास करनेवाले आनन्दमय प्रभु में है, अर्थात् तू अपने हृदय में सदा प्रभु का स्मरण करता है ( अप्सु अन्तः ) = तेरा हृदय इन रेतःकणों में है [ आपः रेतो भूत्वा ], अर्थात् इनकी रक्षा का तुझे सदा ध्यान रहता है। वस्तुतः इन रेतःकणों की रक्षा से ही तो प्रभु का भी दर्शन होना है।
२. अथवा ( ते हृदयम् ) = तेरा हृदय ( समुद्रे ) = इस समुद्र के समान व्यवहार के गाम्भीर्यवाले गृहस्थ में है तथा ( अप्सु अन्तः ) = [ आपः = प्रजाः ] तेरा ध्यान प्रजाओं में है [ यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्। तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ।।—मनु ]।
३. ‘तेरा ध्यान प्रभु में लग सके, तू रेतःकणों की रक्षा कर सके तथा तू गृहस्थ का सुन्दर सञ्चालन करते हुए सुन्दर प्रजाओं का निर्माण कर सके’ इस सबके लिए ( त्वा ) = तुझमें ( ओषधीः उत आपः ) = ओषधियाँ व जल ( संविशन्तु ) = सम्यक्तया प्रविष्ट हों। इन सब कार्यों के लिए मनुष्य का भोजन सात्त्विक हो, मद्य-मांस के प्रयोग से वह दूर हो।
४. सात्त्विक आहारवाले हे ( यज्ञपते ) = यज्ञों के रक्षक! ( त्वा ) = तुझे ( यज्ञस्य ) = यज्ञों के ( सूक्तोक्तौ ) = सूक्तों के उच्चारण में तथा ( नमोवाके ) = नमस् के उच्चारण, प्रभु के आराधन में ( विधेम ) = स्थापित करते हैं ( यत् ) = यदि ( स्वाहा ) = तू तनिक स्वार्थ का त्याग करता है। स्वार्थत्यागी ही यज्ञों व प्रभु-ध्यान में प्रवृत्त हो पाता है।
भावार्थ
भावार्थ — तू प्रभु में व सोमरक्षा में अपने हृदय को स्थापित कर। वानस्पतिक भोजन व जल का सेवन करनेवाला बन। तेरा जीवन यज्ञमय हो। तू निरन्तर प्रभु-उपासन करनेवाला हो।
विषय
गृहपति, यज्ञपति राष्ट्रपति का स्वागत।
भावार्थ
हे राजन् ! (ते) तेरा ( हृदयम् ) हृदय ( अप्सु अन्तः ) प्रजाओं के भीतर ( समुद्रे ) नाना प्रकार के उन्नतिकारक व्यवहार में लगे । और (त्वाम्) तुझ में ( ओषधीः) दुष्टों को दण्ड द्वारा पीड़ित करनेवाले जन, अधिकारी ( उत् ) और ( आप: ) आप्त प्रजाजन सब ( आविशन्तु ) आश्रय पावें वे तेरे अधीन रहें। हे ( यज्ञपते ) राष्ट्रयज्ञ के पालक ! ( यज्ञत्व ) यज्ञ के ( सूक्रोत्कौ ) जिसमें वेद के सूक्त प्रमाणरूप से कहे जायं ऐसे उत्तम कार्य में और ( नमोवाके ) आदर योग्य वचनों के कार्य में ( यत् ) जो भी ( स्वाहा ) उत्तम त्याग योग्य और ग्रहण योग्य पदार्थ हैं वह (त्वा) तुझे ( विधेम ) प्रदान करें | शत० ४ । ४ । ५ ।२० ॥
गृहस्थ पक्ष में- वेदादि के अध्ययन कार्य और आदर योग्य वचनों से युक्त ( समुद्रे ) उत्तम धर्म कार्य में हे गृहपते ! तेरा हृदय प्राणों के भीतर रहे । ओषधियां और शुद्ध जल तुझे प्राप्त हों। उसी उत्तम कार्य में तुझे हम नियुक्त करें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोमो देवता । भुरिगार्षी पंक्ति: । पन्चमः ॥
विषय
गृहस्थों के लिये फिर उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
हे (यज्ञपते) गृहस्थ आश्रम के रक्षक ! जैसे--हम लोग (स्वाहा) प्रेम-उत्पादक वाणी से (यज्ञस्य) गृहाश्रम के अनुकूल व्यवहार के साधक (सूक्तोक्ततौ) वेदों के सूक्तों का प्रामाण्य बतलाने वाले (नमोवाके) वेदोक्त अन्न और स्तुतिवचनों वाले गृहाश्रम में एवं (समुद्र) उत्तम गतिशील व्यवहार में और (अप्सु) प्राणों में (ते) तेरे (हृदयम्) हृदयों को और (अप्सु) प्राणों में (अन्तः) अन्तःकरण को (विधेम) स्थापित करते हैं, वैसे--उस हृदय और अन्तःकरण से जानी हुई (औषधी:) जौ आदि औषधियाँ (त्वा) तुझे (समाविशन्तु) प्राप्त हों, (उत) और (आपः) जल तेरे लिये सुखकारक हों ।। ८ । २५ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है।। अध्यापक और उपदेशक लोग गृहस्थों को सत्य-विद्या ग्रहण कराकर प्रयत्न से सिद्ध होने वाले गृह-कार्यों के अनुष्ठान में सबको लगावें, जिससे ये गृहस्थ लोग शरीर और आत्मा के बल को बढ़ा सकें ।। ८ । २५ ।।
प्रमाणार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४। ४। ५। १३–२०) में की गई।। ८ । २५ ।।
भाष्यसार
गृहस्थ के लिये उपदेश--अध्यापक और उपदेशक लोगों का कर्त्तव्य है कि वे गृहाश्रम रूप यज्ञ के रक्षक गृहस्थ पुरुष के हृदय को प्रेमोत्पादक वाणी से गृहाश्रम में स्थापित करें। कैसा है वह गृहाश्रम कि जिसमें वेद के प्रमाण वचनों की सिद्धि होती है अन्न आदि से विद्वान् अध्यापक और उपदेशक लोगों का सत्कार करना चाहिये इत्यादि वेदोक्त वचनों की सार्थकता होती है। यह कोमल व्यवहारों से युक्त है। सबके प्राणों का रक्षक है। इस गृहाश्रम के व्यवहार से गृहस्थ यव (जौ) आदि औषधियों को प्राप्त करे, सुखकारक जलों को भी करे, शरीर और आत्मा के बल को बढ़ावे ॥ ८ । २५ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सज्जन उपदेशक व शिक्षकांनी गृहस्थाश्रमी लोकांना प्रयत्नपूर्वक सत्यविद्या शिकवून गृहकृत्ये करण्यास उद्युक्त करावे त्यामुळे गृहस्थाश्रमी माणसांच्या शरीर व आत्म्याचे सामर्थ्य वाढेल.
विषय
पुढील मंत्रात गृहस्थांना उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (विद्वज्जन गृहस्थांना म्हणत आहेत) हे (यज्ञपते) गृहस्थाश्रमधर्माचे पालन करणार्या गृहजन, आम्ही (विद्वज्जन) (स्वाहा) प्रेमभरित वचनांनी (यज्ञस्य) गृहाश्रमानुकूल व्यवहारांचे ज्ञान सांगत आहोत त्यामध्ये (सूत्तोक्तौ) वेदांद्वारे प्रमाणित उत्कृष्ट सूचना व नियम आहेत, आणि (नमोवाके) वेदांद्वारे मान्य सेवनीय अन्नाविषयी आणि सत्कारादी व्यवहारांकरिता योग्य सूचना आहेत. या (समुद्रे) आर्द्र व (प्रिय व्यवहारांना आम्ही) (अप्सु) सर्वांच्या प्राणांसाठी आणि (ते) तुझ्या (यत्) ज्या हृदयास्थळी, संतोष-समाधानासाठी (विधेम) निश्चित करीत आहोत, त्या (सूचना, नियमादी) द्वारे ज्ञात अशा (ओषधी:) यव, गहू, हरभरे, सोमलता आदी सुखकारक पदार्थ तुला (आ) (विशंतु) प्राप्त व्हावेत (उत) आणि याशिवाय (आप:) जल देखील तुला सुखदायी व्हावे, (अशी कामना करीत आहोत) ॥25॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. अध्यापक आणि उपदेशक सज्जन पुरूषांनी गृहस्थजनांना सत्यविद्या शिकवावी, सांगावी. त्यांना यत्न साध्य अशा गृहकार्यात गुंतवावे की ज्यामुळे गृहाश्रम धर्म करणार्या गृहस्थांचे शारीरिक व आत्मिक बळ वाढेल. ॥25॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O householder, let thy heart devoted to the study of the Vedas, full of reverential words, controlled by vital breaths, be engaged in virtuous acts. May thou enjoy food, fruit and water. In affectionate accents, we urge thee to discharge faithfully thy duties of married life.
Meaning
Yajnapati, pursuant of yajna, we put your heart and mind in touch with vital energies and dynamic modes of social conduct and behaviour revealed in the hymns of the Vedas dealing with foods, source materials, and yajnic cooperation of the community. Let your searching mind go deep down into the ocean and rise up into the waters of space. And then celestial waters and rejuvenating herbs would emerge into your mind’s eye of discovery (for common good).
Translation
O Soma, your heart is in the ocean, inside the waters. May the medicinal qualities of herbs as well as the waters enter you. O Lord of the sacrifice, we offer our songs of praises to you in the recitations at this sacrifice. Svaha. (1)
Notes
Yajüapate, О Soma. Namovake, नमस्कारवचने, in the songs of praises.
बंगाली (1)
विषय
পুনগৃর্হস্থোপদেশমাহ ॥
পুনরায় গৃহস্থদিগের জন্য উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (য়জ্ঞপতে) গৃহাশ্রম ধর্ম্ম পালক! আমরা (স্বাহা) প্রেমাস্পদবাণী দ্বারা (য়জ্ঞস্য) গৃহাশ্রমানুকূল ব্যবহারের (সুক্তৌক্তৌ) সেই ব্যবস্থা যে, যাহাতে বেদ বচনের প্রমাণে ভাল ভাল কথা আছে এবং (নমোবাকে) বেদ প্রমাণসিদ্ধ অন্ন ও সৎকারাদি পদার্থ সকলের বাদানুবাদরূপ (সমুদ্রে) আর্দ্র ব্যবহার এবং (অপ্সু) সকল প্রমাণে (তে) তোমার (য়ৎ) যে (হৃদয়ম্) হৃদয়কে সন্তুষ্টিতে (বিধেম) নিযুক্ত কর তাহা দ্বারা জ্ঞাত (ওষধীঃ) যব, গম, ছোলা, সোমলতাদি সুখকারী পদার্থ (আ) (বিশন্তু) প্রাপ্ত হও (উত) এবং না কেবল এই সবই কিন্তু (আপঃ) ভাল জলও তোমার পক্ষে সুখদায়ী হউক ॥ ২৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । অধ্যাপনকারী ও উপদেশক সজ্জন পুরুষ গৃহস্থদিগকে সত্যবিদ্যা গ্রহণ করাইয়া সম্যক্ প্রচেষ্টা দ্বারা সিদ্ধ হওয়ার যোগ্য গৃহের কর্ম্মে সকলকে যুক্ত করে যাহাতে গৃহাশ্রম ইচ্ছুক এবং সক্রিয় পুরুষ শরীর ও নিজ আত্মার বল বৃদ্ধি করিতে পারে ॥ ২৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
স॒মু॒দ্রে তে॒ হৃদ॑য়ম॒প্স্ব᳕ন্তঃ সং ত্বা॑ বিশ॒ন্ত্বোষ॑ধীরু॒তাপঃ॑ । য়॒জ্ঞস্য॑ ত্বা য়জ্ঞপতে সূ॒ক্তোক্তৌ॑ নমোবা॒কে বি॑ধেম॒ য়ৎ স্বাহা॑ ॥ ২৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সমুদ্রে ত ইত্যস্যাত্রির্ঋষিঃ । গৃহপতির্দেবতা । ভুরিগার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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