यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 27
ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः
देवता - दम्पती देवते
छन्दः - भूरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप्,स्वराट आर्षी बृहती,
स्वरः - मध्यमः, गान्धारः
2
अव॑भृथ निचुम्पुण निचे॒रुर॑सि निचुम्पु॒णः। अव॑ दे॒वैर्दे॒वकृ॑त॒मेनो॑ऽयासिष॒मव॒ मर्त्यै॒र्मर्त्य॑कृतं पु॒रु॒राव्णो॑ देव रि॒षस्पा॑हि। दे॒वाना॑ स॒मिद॑सि॥२७॥
स्वर सहित पद पाठअव॑भृ॒थेत्यव॑ऽभृथ। नि॒चु॒म्पु॒णेति॑ निऽचुम्पुण। नि॒चे॒रुरिति॑ निऽचे॒रुः। अ॒सि॒। नि॒चु॒म्पु॒ण इति॑ निऽचुम्पु॒णः। अव॑। दे॒वैः। दे॒वकृ॑त॒मिति॑ दे॒वऽकृ॑तम्। ए॑नः। अ॒या॒सि॒ष॒म्। अव॑। मर्त्यैः॑। मर्त्य॑कृत॒मिति॒ मर्त्य॑कृतम्। पु॒रु॒राव्ण॒ इति॑ पुरु॒ऽराव्णः॑। दे॒व॒। रि॒षः। पा॒हि॒। दे॒वाना॑म्। स॒मिदिति॑ स॒म्ऽइत्। अ॒सि॒ ॥२७॥
स्वर रहित मन्त्र
अवभृथ निचुम्पुण निचेरुरसि निचुम्पुणः । अव देवैर्देवकृतमेनो यासिषमव मर्त्यैर्मर्त्यकृतम्पुरुराव्णो देव रिषस्पाहि । देवानाँ समिदसि ॥
स्वर रहित पद पाठ
अवभृथेत्यवऽभृथ। निचुम्पुणेति निऽचुम्पुण। निचेरुरिति निऽचेरुः। असि। निचुम्पुण इति निऽचुम्पुणः। अव। देवैः। देवकृतमिति देवऽकृतम्। एनः। अयासिषम्। अव। मर्त्यैः। मर्त्यकृतमिति मर्त्यकृतम्। पुरुराव्ण इति पुरुऽराव्णः। देव। रिषः। पाहि। देवानाम्। समिदिति सम्ऽइत्। असि॥२७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनर्गृहस्थधर्म्मे स्त्रीविषयमाह॥
अन्वयः
हे अवभृथ निचुम्पुण पते! त्वं निचुम्पुणो निचेरुरसि देवानां समिदसि। हे देव! देवैर्मर्त्यैः सह वर्त्तमानस्त्वं यद्देवकृतमेनोऽपराधमहमयासिषं तस्मात् पुरुराव्णो रिषो मां पाहि दूरे रक्ष॥२७॥
पदार्थः
(अवभृथ) यो निषेकेण गर्भं बिभर्त्ति तत्सम्बुद्धौ (निचुम्पुण) नितरां मन्दगामिन्! (निचेरुः) यो धर्म्मेण द्रव्याणि नित्यं चिनोति (निचुम्पुणः) नित्यं कमनीयः (अव) अर्वागर्थे (देवैः) विद्वद्भिः (देवकृतम्) कामिभिरनुष्ठितम् (एनः) दुष्टाचरणम् (अयासिषम्) प्राप्तवती (अव) निषेधे (मर्त्यैः) मृत्युधर्म्मैः (मर्त्यकृतम्) साधारणमनुष्याचरितम् (पुरुराव्णः) पुरवो बहवो राव्णोऽपराधा दानशीला यस्मिन् तस्मात् (देव) विजिगाषो! (रिषः) धर्म्मस्य हिंसनात् (पाहि) रक्ष (देवानाम्) विदुषां मध्ये (समित्) सम्यग्दीप्तः (असि)। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ४। १। २२-२३॥ तथा ४। ५। १। १-१६॥ तथा ४। ५। २। १-३) व्याख्यातः॥२७॥
भावार्थः
स्त्री स्वपतिं नित्यं प्रार्थयेद् यथाहं सेव्यं प्रसन्नचित्तं त्वामनुदिनमिच्छामि, तथा त्वमपि मामिच्छ, स्वबलेन रक्ष च। यतोऽहं कस्यचिद् दुष्टाचरणशीलाज्जनाद् दुश्चरितं कथंचिन्न प्राप्नुयाम्, भवांश्च नाप्नुयात्॥२७॥
विषयः
पुनर्गृहस्थधर्म्मे स्त्रीविषयमाह ॥
सपदार्थान्वयः
हे अवभृथ ! यो निषेकेण गर्भंबिभर्ति तत्सम्बुद्धौ, निचुम्पुण नितरां मन्दगामिन्पते ! त्वं निचुम्पुणः नित्यं कमनीयः निचेरु: यो धर्मेण द्रव्याणि नित्यं चिनोति असि, देवानां विदुषां मध्ये समित् सम्यग्दीप्तः असि । हे देव ! विजिगीषो देवैः विद्वद्भिःमर्त्यैः मृत्युधर्मै: सह वर्तमानस्त्वं यद्देवकृतं कामिभिरनुष्ठितम् [मर्त्यकृतम्] साधारणमनुष्याचरितम् एन:=अपराधं दुष्टाचरणम् अहम् [अव]-अयासिषं न प्राप्तवती तस्मात् पुरुराव्ण: पुरव:=बहवो राव्ण:=अपराधदानशीला यस्मिन् तस्मात् रिषः धर्मस्य हिंसनात् मां पाहि=दूरे रक्ष ॥८ । २७॥ [हे देव !.....त्वं यद्देवकृतं [मर्त्यकृतम्] एन:=अपराधमहम् [अव] अयासिषं तस्मात् पुरुराव्णो रिषो मां पाहि=दूरे रक्ष]
पदार्थः
(अवभृथ) यो निषेकेण गर्भंबिभर्ति तत्सम्बुद्धौ (निचुम्पुण) नितरां मन्दगामिन् ! (निचेरुः) यो धर्म्मेण द्रव्याणि नित्यं चिनोति (असि)(निचुम्पुणः) नित्यं कमनीयः (अव) अर्वागर्थे (देवैः)विद्वद्भि: (देवकृतम्) कामिभिरनुष्ठितम् (एनः) दुष्टाचरणम्(अयासिषम्) प्राप्तवती (अव) निषेधे (मर्त्यैः) मृत्युधर्म्मैः (मर्त्यकृतम्) साधारणमनुष्याचरितम् (पुरुराव्णः) पुरवो=बहवो रावाणोऽपराधदानशीला यस्मिन् तस्मात् (देव) विजिगीषो ! (रिषः) धर्म्मस्य हिंसनात् (पाहि) रक्ष (देवानाम्) विदुषां मध्ये (समित्) सम्यग्दीप्तः (असि) ॥ अयं मन्त्र: शत० ४।४।१। २२-२३ तथा ४ । ५ । १-१६ शत० ४ । ५ । २। १-३ व्याख्यातः ॥ २७ ॥
भावार्थः
स्त्री स्वपतिं प्रार्थयेद्यथाहं सेव्यं प्रसन्नचित्तं त्वामनुदिनमिच्छामि तथा त्वमपिमामिच्छ, स्वबलेन रक्ष च। यतोऽहं कस्यचिद् दुष्टाचरणशीलज्जनाद् दुश्चरितं कथंचिन्न प्राप्नुयां भवाँश्च नाप्नुयात् ॥ ८ । २७॥
विशेषः
अत्रिः। दम्पती=स्त्रीपुरुषौ । भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् । गान्धारः । अवदेवैरित्यस्य स्वराडार्षी बृहती । मध्यमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर गृहस्थ धर्म्म में स्त्री का विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (अवभृथ) गर्भ के धारण करने के पश्चात् उसकी रक्षा करने (निचुम्पुण) और मन्द-मन्द चलने वाले पति! आप (निचुम्पुणः) नित्य मन हरने और (निचेरुः) धर्म्म के साथ नित्य द्रव्य का संचय करने वाले (असि) हैं तथा (देवानाम्) विद्वानों के बीच में (समित्) अच्छे प्रकार तेजस्वी (असि) हैं। हे (देव) सब से अपनी जय चाहने वाले! (देवैः) विद्वान् और (मर्त्यैः) साधारण मनुष्यों के साथ वर्त्तमान आप, जो मैं (देवकृतम्) कामी पुरुषों वा (मृर्त्यकृतम्) साधारण मनुष्यों के किये हुए (एनः) अपराध को (अयासिषम्) प्राप्त होना चाहूं, उस (पुरुराव्णः) बहुत से अपराध करने वालों के (रिषः) धर्म्म छुड़ाने वाले काम से मुझे (पाहि) दूर रख॥२७॥
भावार्थ
स्त्री अपने पति से नित्य प्रार्थना करे कि जैसे मैं सेवा के योग्य आनन्दित चित्त आप को प्रतिदिन चाहती हूं, वैसे आप भी मुझे चाहो और अपने पुरुषार्थ भर मेरी रक्षा करो, जिससे मैं दुष्टाचरण करने वाले मनुष्य के किये हुए अपराध की भागिनी किसी प्रकार न होऊं॥२७॥
विषय
देवदेवानां समित् दीपन
पदार्थ
१. ( अवभृथ ) = हे यज्ञान्तस्नान करनेवाले! पति एक दिन गृहस्थ-यज्ञ में प्रविष्ट हुआ था। सन्तान होने पर यह यज्ञ सफल व पूर्ण होता है, अतः सन्तान होने पर स्नान करनेवाला यह ‘अवभृथ’ ही है।
२. ( निचुम्पुण ) = [ नितरां मन्दगामिन्—द० ] सदा धैर्य से, विचारपूर्वक धीमे-धीमे प्रत्येक कार्य को करनेवाले! यह कभी जल्दबाजी नहीं करता। विशेषकर सन्तानोत्पादन के कार्य में यह अत्यन्त मन्द गति से चलता है।
३. ( निचेरुः असि ) = [ यो धर्मेण द्रव्याणि नित्यं चिनोति—द० ] यह सदा धर्म से द्रव्यों का चयन करनेवाला है। अथवा [ ‘निभृतं चरति अस्मिन्’—भट्टभास्कर ] तू इस गृहस्थ में बड़े विश्वास के साथ चलनेवाला है। वस्तुतः गृहस्थ का मूलमन्त्र परस्पर विश्वास ही होना चाहिए। इसके बिना प्रेम में वृद्धि नहीं हो सकती।
४. ( निचुम्पुणः ) = तू ( निचेरुः ) = नितरां चरणशील तो है, परन्तु धैर्यपूर्वक धीमे-धीमे चलनेवाला है—देखकर पग रखनेवाला है।
५. ( देवैः ) = इन द्योतनात्मक [ ज्ञानेन्द्रियों ] व व्यवहार- साधक [ दिव् दीप्ति, व्यवहार ] [ कर्मेन्द्रियों ] इन्द्रियों से ( देवकृतम् ) = पृथिवी आदि देवों के विषय में किये गये अथवा विद्वानों के विषय में किये गये ( एनः ) = पाप को ( अव अयासिषम् ) = मैं दूर करनेवाला होऊँ। ( मर्त्यैः ) = मरणधर्मा मनुष्यों से ( मर्त्यकृतम् ) = मनुष्यों के विषय में किये जानेवाले कटु भाषण, द्रोहादि पापों से भी मैं ( अव ) = अपने को दूर रखनेवाला होऊँ।
६. हे ( देव ) = सब दानों के पति प्रभो! ( पुरुराव्णः ) = इस पालन व पूरण करनेवाली [ पुरु ] दान की वृत्ति के द्वारा [ राव्णः ] ( रिषः ) = हिंसा से ( पाहि ) = मेरी रक्षा कीजिए। दान के द्वारा लोभवृत्ति का संहार होकर सब पाप दूर हो जाते हैं। मनुष्य दान के द्वारा वासनाओं का खण्डन करके अपने जीवन का शोधन करता है।
७. हे प्रभो ! दानवृत्ति द्वारा ही आप ‘देवानां समित् असि’ हममें दिव्य गुणों को दीप्त करनेवाले हैं। सारी उत्तमताएँ प्रभुकृपा से ही प्राप्त हुआ करती हैं। वे प्रभु ही हममें दिव्य गुणों की ज्योति जगाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ — हम प्रत्येक कार्य में सफल हों, शान्तिपूर्वक चलें, उत्तम गुणों का चयन करें। न देवों के विषय में पाप करें, न मर्त्यों के विषय में। वासनाओं से प्राप्त होनेवाली हिंसा को दान द्वारा विनष्ट करें। दिव्य गुणों को दीप्त करें।
विषय
प्रजा का अपने दोष परित्याग ।
भावार्थ
हे राजन् ! हे ( अवभृथ ) अपने अधीन समस्त अधिकारी और प्रजावर्ग को भरण पोषण करनेहारे ! और हे ( निचुम्पुण ) मन्द, अलक्षितरूप से गतिशील ! तू ( निचेरुः असि ) नित्य चलता रहता है, सर्वत्र राष्ट्र में व्यापक है, पर तो भी ( निचुम्पुणः ) अत्यन्त मन्दगति है, तेरी गति का पता नहीं लगता ! हे (देव) राजन् ! देव, द्रष्टः ! विजयशील ! दमन- कारिन् ! मैं (देवकृतम्) देखों, पूज्य विद्वानों के प्रति किये गये (एनः ) अपराध 'को ( देवैः ) विद्वान् पुरुषों द्वारा ( श्रव यासिषम् ) दूर कर त्याग दूं । और ( मर्त्यकृतम् एनः ) साधारण लोगों के प्रति किये अपराध को ( मत्यैंः ) साधारण जनों के साथ मिलकर ( अव यासिषम् ) दूर करूं । हे (देव) 'देव ! राजन् ! तू ( पुरुराव्णः ) नाना विध दारुण कष्टों के देनेवाले ( रिषः ) हिंसक पुरुष से हमें ( पाहि ) रक्षाकर। तू ( देवानाम् ) देव, विद्वानों और समस्त राष्ट्र के पदाधिकारियों के बीच में ( समित्) प्रज्वलित काष्ठ या सूर्य के समान तेजस्वी ( असि ) है । शत० ४ । ४ । ५ । २२ ॥
टिप्पणी
१ अवभृथ। २ अव देवैर्देवकृत ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निदेवता । (१) भुरिक् प्राजापत्याऽनुष्टुप् । गांधारः । ( २ ) स्वराडार्षी बृहती | मध्यमः ॥
विषय
फिर गृहस्थ धर्म में स्त्री-विषयक उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
हे (अवभृथ) वीर्यसेचन से गर्भ को भरने वाले (निचुम्पुण) नितान्त मन्दगामी पते ! आप (निचुम्पणः) सदा कामना के योग्य और (निचेरु:) धर्मपूर्वक द्रव्यों का नित्य संग्रह करने वाले (असि) हो तथा (देवानाम्) विद्वानों के मध्य में (समित) अच्छी प्रकार विद्या से प्रदीप्त हो । हे (देव) विजय के अभिलाषी पते ! (देवै:) विद्वानों और (मर्त्यैः) मरणधर्मा मनुष्यों के साथ व्यवहार करते हुये आप--जो (देवकृतम्) कामी जनों से तथा [मर्त्यकृतम्] साधारण मनुष्यों के किये (एनः) दुष्टाचरण रूप अपराध है उसे मैं (अव+ अयासिषम्) प्राप्त न होऊँ इसलिये (पुरुराव्णः) नाना अपराधों को उत्पन्न करने वाले (रिषः) धर्म की हिंसारूप पाप से मुझे (पाहि) दूर रखो ।। ८ । २७ ।।
भावार्थ
स्त्री अपने पति से प्रार्थना करे कि जैसे मैं सेवा करने योग्य, प्रसन्न चित्त वाले आपको प्रतिदिन चाहती हूँ वैसे आप भी मुझे चाहेंऔर अपने बल से रक्षा करें, जिससे मैं किसी दुष्टाचारी मनुष्य से दुरचरित को कभी प्राप्त न होऊँ और आप भी प्राप्त न होओ ।। ८ । २७ ।।
प्रमाणार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या शत० तथा(४ । ४ । १ । २२-२३ तथा ४।५। १-१६ तथा ४ । ५ । २ । १-३) में की गई है ॥ ८ । २७ ।।
भाष्यसार
गृहस्थ धर्म में स्त्री-विषयक उपदेश-- स्त्री कहती है कि है पते ! आप निषेक से गर्भाधान करने वाले, नितान्त मन्द गमन करने वाले, नित्य कामना करने योग्य, धर्म से द्रव्यों का नित्य चयन करने वाले और विद्वानों में विद्यादि शुभ गुणों से प्रकाशमान हो। इसलिये सेवा करने के योग्य सदा प्रसन्न चित्त रहने वाले आपकी मैं प्रतिदिन कामना करती हूँ वैसे आप भी मेरी नित्य कामना करो और अपने बल से मेरी रक्षा करो। हे विजय की कामना करने वाले पतिदेव ! आप विद्वानों और साधारण मनुष्यों के सङ्ग रहतेहो । मेरी कामना है कि मैं कामी और साधारण जनों द्वारा किये जाने वाले दुष्टाचरण को प्राप्त न होऊँ इसलिये आप पतिव्रत धर्म के हिंसन रूप पाप से मुझे दूर रखिये और स्वयं भी पापाचरण से दूर रहिये । । ८ । २७ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
स्त्रीने पतीला म्हटले पाहिजे, ‘‘जशी मी तुमची दररोज सेवा करून आनंदात राहते व तुमच्यावर प्रेम करते तसेच तुम्हीही माझ्यावर प्रेम करा. पुरुषार्थाने माझे रक्षण करा. पापी व्यक्तीपासून मी दूर राहावे, अशी उपाययोजना करा. ’’
विषय
पुन्हा गृहस्थधर्मात स्त्रीचा सहभाग या विषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (पत्नी म्हणत आहे) हे (अवभृय) मी गर्भ धारण करून (गर्भवती झाल्यावर) त्याचे रक्षण करणारे आणि (निचुश्रुण) मंद संथ गतीने चालणारे हे पतिदेव, आपण (निचुम्पुण:) रुप मनोहर आणि (निचेरु:) नित्य धर्म मार्गाने द्रव्याचा संचय करणारे (असि) आहात. तसेच (देवानाम्) विद्वज्जनांच्या सभेत (समित्) तेजाने तळपणारे (असि) आहात (देव) सर्वांहून विजयाची अधिक कामना करणारे हे विजिगीषु पतिदेव, (दैवै:) विद्वज्जनांसह तसेच (मर्त्यै:) सामान्य मनुष्यांसह देखील कार्य करणार्या (आपणांस मी म्हणत आहे की) (देवकृतम्) कोणा कामी पुरुषाने किंवा (मर्त्यकृतम्) साधारण मनुष्याने केलेल्या (एन:) पापाचा वा अपराधाचा जर मी (अयासिषम्) प्राप्ती होणार असेन दुर्दैवाने शिकार होणार असेल तर अशा संकटकाळी) (पुरुराग्ण:) त्या घोर अपराधीजनांपासून (आणि (रिष:) धर्म मार्गाहून विचलित करणार्या विचारापासून वा कर्मापासून आपण मला (पाहि) दूर ठेवां. (गर्भवती असतांना मी कोणा कामी पुरुषाच्या, द़ृष्टाच्या तावडीत सापडू नये. अशा आपत्काळी आपण माझे रक्षक व्हा) ॥27॥
भावार्थ
भावार्थ - पत्नीने आपल्या पतीस नित्य प्रार्थना करावी की ज्याप्रमाणे मी आपली सेवा करून आपणास आनंदीत करते व केवळ आपणांस चाहते, त्याप्रमाणे आपणही माझ्यावर प्रेम करा आणि आपल्या पुरुषार्थ पराक्रमाने माझे रक्षण करा. आपण माझे रक्षणकर्ता असल्यावर मी कोणा दुराचारी माणसाच्या दुष्कृत्याची भगिनी होणार नाही. ॥27॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O husband, thou art the guardian of my pregnancy, a slow walker, a captivator of the heart, an accumulator of wealth in a righteous way ; and supreme among the learned. Thou enjoying the company of the wise and ordinary mortals, guard me against the ignoble and impious sin, I may be tempted to commit towards lascivious and ordinary people.
Meaning
Initiated and consecrated couple in grihastha, gentle, noble and lovable virtuous producers of wealth, you are one of the bright, meritorious and generous community. You are an instrument of the devas Deva, lord of the bright and the generous, living with the noble ones and the ordinary people, I pray, that I keep away from any sin or misconduct or misbehaviour committed with the mind and senses, or with the body, or by the ordinary people or even by the superior ones. Save me from violence to Dharma — such violence is the root of all sin and crime.
Translation
O purificatory sacrifice, you are ever moving like ocean; however, may you slow down your movement here, so that I may get atoned by the enlightened ones the sins committed against the enlightened, and by mortals the sins committed against the mortals. O Lord, protect me from the torturing sins. (1) You аге the kindling fuel for the enlightened ones. (2)
Notes
See notes III. 48.
बंगाली (1)
विषय
পুনগৃর্হস্থধর্ম্মে স্ত্রীবিষয়মাহ ॥
পুনরায় গৃহস্থ ধর্ম্মে স্ত্রীর বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অবভৃথ) গর্ভ ধারণ করিবার পশ্চাৎ উহার রক্ষাকারী (নিচুম্পুন) এবং মন্দগামী পতি । আপনি (নিচুম্পুনঃ) নিত্য মনহরণকারী এবং (নিচেরুঃ) ধর্ম্ম সহ নিত্য দ্রব্যের সঞ্চয়কারী (অসি) হন্ তথা (দেবানাম্) বিদ্বান্দিগের মধ্যে (সমিৎ) সম্যক্ প্রকার তেজস্বী (অসি) হন্ । হে (দেব) সকলের নিকট স্বীয় জয়ের ইচ্ছুক । (দেবৈঃ) বিদ্বান্ এবং (মর্ত্যৈঃ) সাধারণ মনুষ্য সহ বর্ত্তমান আপনি, আমি (দেবকৃতম্) কামুক পুরুষ অথবা (মর্ত্যকৃতম্) সাধারণ মনুষ্য দ্বারা কৃত (এনঃ) অপরাধকে (অয়াসিবম্) প্রাপ্ত হইতে চাহি সেই (পুরুরাব্ণঃ) বহু অপরাধজনক কর্ম্মকারী (রিষঃ) ধর্ম্ম ত্যাগ কারী কর্ম্ম হইতে আমাকে (পাহি) দূরে রাখুন ॥ ২৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- স্ত্রী স্বীয় পতির নিকট নিত্য প্রার্থনা করিবে যে, যেমন আমি সেবার যোগ্য আনন্দিত চিত্ত আপনাকে প্রতিদিন কামনা করি সেইরূপ আপনিও আমাকে কামনা করেন এবং স্বীয় পুরুষকার বলে আমার রক্ষা করিবেন যাহাতে আমি দুষ্টাচরণকারী মনুষ্যকৃত অপরাধের ভাগিনী কোনপ্রকার না হই ॥ ২৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অব॑ভৃথ নিচুম্পুণ নিচে॒রুর॑সি নিচুম্পু॒ণঃ ।
অব॑ দে॒বৈর্দে॒বকৃ॑ত॒মেনো॑ऽয়াসিষ॒মব॒ মর্ত্যৈ॒র্মর্ত্য॑কৃতং পু॒রু॒রাব্নো॑ দেব
রি॒ষস্পা॑হি । দে॒বানা॑ᳬं স॒মিদ॑সি ॥ ২৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অবভৃথেত্যস্যাত্রির্ঋষিঃ । দম্পতী দেবতে । ভুরিক্ প্রাজাপত্যানুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ । অব দেবৈরিত্যস্য স্বরাডার্ষী বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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