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यजुर्वेद अध्याय - 8

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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 34
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - गृहपतिर्देवता छन्दः - विराट आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
    2

    यु॒क्ष्वा हि के॒शिना॒ हरी॒ वृष॑णा कक्ष्य॒प्रा। अथा॑ नऽइन्द्र सोमपा गि॒रामुप॑श्रुतिं॑ चर। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिन॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिने॑॥३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒क्ष्व। हि। के॒शिना॑। हरी॒ऽइति॒ हरी॑। वृष॑णा। क॒क्ष्य॒प्रेति॑ कक्ष्य॒ऽप्रा। अथ॑। नः॒। इ॒न्द्र॒। सो॒मपा॒ इति॑ सोमऽपाः। गि॒राम्। उप॑श्रुति॒मित्युप॑ऽश्रुतिम्। च॒र॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। षो॒ड॒शिने॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। षो॒ड॒शिने॑ ॥३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युक्ष्वा हि केशिना हरी वृषणा कक्ष्यप्रा । अथा न इन्द्र सोमपा गिरामुपश्रुतिञ्चर । उपयामगृहीतोसीन्द्राय त्वा षोडशिने ऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा षोडशिने ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    युक्ष्व। हि। केशिना। हरीऽइति हरी। वृषणा। कक्ष्यप्रेति कक्ष्यऽप्रा। अथ। नः। इन्द्र। सोमपा इति सोमऽपाः। गिराम्। उपश्रुतिमित्युपऽश्रुतिम्। चर। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। षोडशिने। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। षोडशिने॥३४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 34
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ राजविषये प्रतिपादितप्रकारेण गृहस्थधर्म्ममाह॥

    अन्वयः

    हे सोमपा इन्द्र! त्वं केशिना वृषणा कक्ष्यप्रा हरी रथे युक्ष्व। अथेत्यनन्तरं नोऽस्माकं गिरामुपश्रुतिं हि चर! उपयामेत्यस्यान्वयोऽपि पूर्ववत्॥३४॥

    पदार्थः

    (युक्ष्व) (हि) खलु (केशिना) प्रशस्ताः केशा विद्यन्ते ययोस्तौ, अत्र सर्वत्र सुपां सुलुक्। (अष्टा॰७।१।३९) इति विभक्तेराकारः (हरी) यानस्य हरणशीलौ (वृषणा) वृषवद्बलिष्ठौ (कक्ष्यप्रा) कक्ष्यं प्रातः पिपूर्तः (अथ) आनन्तर्य्ये (नः) अस्माकम् (इन्द्र) शत्रुविदारक सेनाध्यक्ष! (सोमपाः) ऐश्वर्य्यरक्षक! (गिराम्) वाचम् (उपश्रुतिम्) उपगतां श्रूयमाणाम् (चर) विजानीहि। अत्र चर इत्यस्य गत्यर्थत्वात् प्राप्त्यर्थो गृह्यते (उपयामगृहीतः) इत्यादि पूर्ववत्। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ५। ३। १०-११) व्याख्यातः॥३४॥

    भावार्थः

    अस्मिन्मन्त्रे रथमिति पदस्य सम्बन्धः। प्रजासभासेनाजनाः सभाध्यक्षं ब्रूयुः। शुचिना त्वया न्यायस्थितये चत्वारि सेनाङ्गानि सुशिक्षितानि हृष्टपुष्टानि रक्षणीयानि, पुनरस्माकं प्रार्थनानुकूल्येन राजैश्वर्य्यरक्षापि कार्य्येति॥३४॥

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    विषयः

    अथ राजविषये प्रतिपादितप्रकारेण गृहस्थधर्म्ममाह ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे सोमपाः ऐश्वर्यरक्षक इन्द्र ! शत्रुविदारक सेनाध्यक्ष ! त्वं केशिना प्रशस्ता: केशा विद्यन्ते ययोस्तौ वृषणा वृषवद्बलिष्ठौ कक्ष्यप्रा कक्ष्यं प्रातः पिपूर्तः हरी यानस्य हरणशीलौ रथे युक्ष्व । अथेत्यनन्तरं नः=अस्माकं गिरां वाचम् उपश्रुतिम् उपगतां श्रूयमाणां हि खलु चर विजानीहि। उपयामेत्यस्यान्वयोऽपि पूर्ववत् ॥ ८ ।३४॥ [पूर्वपदसम्बन्धमाह]

    पदार्थः

    (युक्ष्व)(हि) खलु (केशिना) प्रशस्ता: केशा विद्यन्ते ययोस्तौ । अत्र सर्वत्र सुपां सुलुक् ॥ अ० ७ ।१ । ३९॥ इति विभक्तेराकारः(हरी) यानस्य हरणशीलौ (वृषणा) वृषवद्बलिष्ठौ (कक्ष्यप्रा) कक्ष्यं प्रातः पिपूर्तः (अथ)आनन्तर्य्ये (नः) अस्माकम् (इन्द्र) शत्रुविदारक सेनाध्यक्ष ! (सोमपाः) ऐश्वर्यरक्षक ! (गिराम्) वाचम् (उपश्रुतिम्) उपगतां श्रूयमाणाम् (चर) विजानीहि। अत्र चर इत्यस्य गत्यर्थत्वात् प्राप्त्यर्थो गृह्यते(उपयामगृहीतः) इत्यादि पूर्ववत् । अयं मन्त्रः शत० ४ । ५ । ३ । १०-११ व्याख्यातः ॥ ३४॥

    भावार्थः

    अस्मिन् मन्त्रे ‘रथे’ इति पदस्य सम्बन्धः । [हे.......इन्द्र ! त्वं.......हरी रथे युक्ष्व] प्रजासभासेनाजनाः सभाध्यक्षं ब्रूयुः--शुचिना त्वया न्यायस्थितये चत्वारि सेनाङ्गानि सुशिक्षितानि हृष्ट-पुष्टानि रक्षणीयानि । [अथ.....नः=अस्माकं गिरामुपश्रुतिं हि चर] पुनरस्माकं प्रार्थनानुकूल्येन राजैश्वर्यरक्षापि कार्येति ॥८ । ३४॥

    विशेषः

    युक्ष्वा हीत्यस्य मधुच्छन्दा: ऋषिः । गृहपति:=गृहस्थः॥ विराडार्ष्यनुष्टुप् छन्दः । गान्धार: स्वरः । उपयामेत्यस्य पूर्ववच्छन्दः स्वरश्च ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब राजविषय में उक्त प्रकार से गृहाश्रम का धर्म अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (सोमपाः) ऐश्वर्य्य की रक्षा करने और (इन्द्र) शत्रुओं का विनाश करने वाले! तुम (केशिना) जिनके अच्छे-अच्छे बाल हैं, उन (वृषणा) बैल के समान बलवान् (कक्ष्यप्रा) अभीष्ट देश तक पहुंचाने वाले (हरी) यान के चलानेहारे घोड़ों को (रथे) रथ में (युक्ष्व) जोड़ो (अथ) इसके अनन्तर (नः) हम लोगों की (गिराम्) विनयपत्रों को (उपश्रुतिम्) प्रार्थना को (हि) चित्त देकर (चर) जानो। आप (उपयमागृहीतः) गृहाश्रम की सामग्री को ग्रहण किये हुए (असि) हैं, इस कारण (षोडशिने) सोलह कलाओं से परिपूर्ण (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य के लिये (त्वा) तुझ को उपदेश करता हूं कि जो (एषः) यह (ते) तेरा (योनिः) घर है, इस (षोडशिने) सोलह कलाओं से परिपूर्ण (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य देने वाले गृहाश्रम के लिये (त्वा) तुझे आज्ञा देता हूं॥३४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में पिछले मन्त्र से ‘रथम्’ यह पद अर्थ से आता है। प्रजा, सेना और सभा के मनुष्य सभाध्यक्ष से ऐसे कहें कि आपको शत्रुओं के विनाश और राज्य भर में न्याय रखने के लिये घोड़े आदि सेना के अङ्गों की अच्छी शिक्षा देकर आनन्दित और बल वाले रखने चाहियें, फिर हम लोगों के विनयपत्रों को सुनकर राज्य और ऐश्वर्य्य की भी रक्षा करनी चाहिये॥३४॥

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    विषय

    अश्वयोजन

    पदार्थ

    गत मन्त्र का इन्द्र यहाँ रथ में अश्वों का योजन करता है। प्रभु कहते हैं कि १. ( हि ) = निश्चय से ( युक्ष्व ) = तू इन इन्द्रियरूप घोड़ों को रथ में जोत। ये सदा चरते ही रह गये तो यात्रा कैसे पूरी होगी? चाहिए तो यह कि ये जुते-जुते ही बीच में थोड़ा खा-पी लें। 

    २. कैसे घोड़ों का योजन? [ क ] ( केशिना ) = [ केशाः रश्मयः तेजोराशयः तद्वन्तौ ] ये घोड़े तेजोराशि-सम्पन्न हों, ज्ञानेन्द्रियरूप घोड़े खूब प्रकाशमय—ज्ञान के प्रकाशवाले हों तो कर्मेन्द्रियरूप घोड़े [ ख ] ( वृषणा ) = खूब शक्तिशाली हों। दोनों ही [ ग ] ( हरी ) = उद्दिष्ट स्थान पर ले-चलनेवाले हों तथा [ घ ] ( कक्ष्यप्रा ) = [ कक्षे भवं कक्ष्यं, मध्यबन्धनं प्रातः पूरयतः ] ये घोड़े मध्यबन्धन को भर लेनेवाले हों, अर्थात् खूब पुष्ट अवयवोंवाले हों, निर्बल न हों। इन्द्रियों को निर्बल करके वश में करने में क्या वीरता है, क्योंकि घोड़े ही निर्बल हो गये तो यात्रा पूरी कैसे होगी? 

    ३. ( अथ ) = अब, अर्थात् पुष्ट घोड़ों को रथ में जोतकर ( इन्द्र ) = हे इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! तू ( नः ) = हमारी ( गिराम् ) = वाणियों को ( उपश्रुतिम् ) = समीपता से श्रवण ( चर ) = कर। इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनकर मनुष्य प्रभु का उपासक हो और अन्तःस्थ प्रभु की वाणी को सुने। 

    ४. ( उपयामगृहीतः असि ) = तू प्रभु की उपासना द्वारा यम-नियमों से स्वीकृत जीवनवाला है। ( इन्द्राय त्वा षोडशिने ) = तुझे इस संसार में सोलह कलाओं से युक्त इन्द्र बनने के लिए भेजा गया है। ( एषः ते योनिः ) = यह शरीर ही तेरा घर है। तूने इधर-उधर भटकना नहीं। ( इन्द्राय त्वा षोडशिने ) = षोडशी इन्द्र बनने के लिए तुझे यह जीवन दिया गया है। इसे व्यर्थ समाप्त मत कर देना।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम इन्द्रियों को इस शरीररूपी रथ के घोड़े समझें। उन्हें रथ में जोतकर यात्रा को पूरा करें। इसी जीवन में हमने संयमी बनकर षोडशी बनना है। ‘इस प्रकार हमारी इच्छाएँ मधुर बनी रहीं’ तो हम मन्त्र के ऋषि ‘मधुच्छन्दा’ होंगे।

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    विषय

    षोडशी इन्द्र का वर्णन ।

    भावार्थ

    है ( इन्द्र ) इन्द्र ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! तू ( वृषणा ) वीर्यवान् वर्षणशील, ( केशिनौ) उत्तम केशों वाले ( कक्ष्यप्रा ) बगल में बंधने की पेटी से भरे पूरे, कसे कसाये, ( हरी ) दो अश्वों को अपने रथ में ( युंक्ष्व ) जोड़। उसी प्रकार अपने रमणीय राष्ट्र में ( कक्ष्यप्रा ) एक दूसरे के कक्ष्य अर्थात् दायें बांयें पार्श्वों के पूर्ण करने वाले (वृषणा) वीर्य सेचन में समर्थ ( हरी ) परस्पर के चित्तहारी ( केशिनौ ) उत्तम प्रसाधित केशवान्, सुरूप स्त्री पुरुष रूप जोड़ों को गृहस्थ कार्य में (युंक्ष्व ) नियुक्त कर। तू ( सोमपाः ) सोम= राष्ट्र का पालक होकर (नः) हमारी ( उपश्रुतिम् ) स्पष्ट सुनी जाने वाली ( गिराम् ) वाणी को प्राप्त कर जान। (उपयामगृहीतः असि० इत्यादि) पूर्ववत् ॥ शत० ४ । ५ । ३ ।१० ॥

    टिप्पणी

     १ युक्ष्वा २ उ॒पामगृहीतोऽसीन्द्राय ।३४ षोळशि० ' सर्वत्र काण्व० ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मधुच्छन्दा ऋषिः । षोडशी इन्द्रो देवता । ( २ ) विराडार्ष्युनुष्टुप् । गान्धारः 1 ( २ ) विराडार्ष्यु॑ष्णिक् ऋषभः ॥ 

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    विषय

    अब राजविषय में प्रतिपादित विधि से गृहाश्रम धर्म का उपदेश किया जाता है ।।

    भाषार्थ

    हे (सोमपाः) ऐश्वर्य के रक्षक (इन्द्र) शत्रुओं का विदारण करने वाले सेनाध्यक्ष! तू (केशिना) प्रशस्त बालों वाले (वृषणा) बैल के समान बलवान् (कक्ष्यप्रा) कक्ष्य अर्थात् तंग से परिपूर्ण (हरी) यान का हरण करने वाले घोड़ों को रथ में (युक्ष्व) जोड़। (अथ) और फिर (नः) हमारी (वाचम्) वाणी को (उपश्रुतिम्) जो पास में सुनाई दे रही है उसे (हि) निश्चयपूर्वक (चर) जान।‘उपयाम०’इत्यादि शेष मन्त्र का अन्वय पूर्ववत् है ॥ ८ । ३४ ।।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में 'रथे' पद का सम्बन्ध है। प्रजा, सभाऔर सेना के पुरुष सभाध्यक्ष कोकहें कि आप पवित्र होकर न्याय को स्थिर रखने के लिये सेना के चारों अङ्गों को सुशिक्षित एवं हृष्ट-पुष्ट रखें ।फिर हमारी प्रार्थना के अनुसारराजा केऐश्वर्य की रक्षा भी करें ।। ८ । ३४ ॥

    प्रमाणार्थ

    (केशिना) यहाँ 'सुपां सुलुक्०' (अ० ७ । १ । ३९) इस सूत्र से विभक्ति को आकार हो गया है। (चर) विजानीहि । 'चर' धातु के गत्यर्थक होने से यहाँ प्राप्ति-अर्थ गृहीत होता है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ५ । ३ । १०-११) में की गई है ॥ ८ । ३४ ॥

    भाष्यसार

    राजविषयक गृहस्थधर्म--सेना का अध्यक्ष राजा के ऐश्वर्य का रक्षक और शत्रुओं का विदारण करने वाला हो । जो प्रशस्त केशों वाले, वृषभ के समान बलवान्, तंग को धारण करने वाले, यान को चलाने वाले घोड़ों को रथ में युक्त करें। सभाध्यक्ष का कर्त्तव्य है कि वह न्याय को जगत् में स्थिर रखने के लिये चारों सेना के अङ्गों को सुशिक्षित और हृष्ट-पुष्ट रखे और जो उसके अधीन हों उनके निवेदन को सुना करे॥८।३४ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्रातील ‘रथं’ या शब्दाचा अर्थ अभिप्रेत आहे. प्रजा, सेना, सभा यांनी राजाला अशी सूचना केली पाहिजे की, शत्रूंचा नाश करण्यासाठी व राज्यात न्याय टिकण्यासाठी घोडे इत्यादी सेनेच्या विभागाला प्रशिक्षण द्यावे व आनंदी ठेवावे तसेच बलवानही बनवावे. वरील सर्व लोकांच्या विनंतीपत्राचा विचार करून राजाने राज्य व ऐश्वर्य यांचे रक्षण केले पाहिजे.

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    विषय

    आता राजाविषयी सांगत गृहश्रर्माविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (गृहस्थजन राजाला प्रार्थना करीत आहेत) (सोमपा:) ऐश्वर्याचे रक्षक हे (इन्द्र) शत्रुविनाशक राजा, आपण (केशिना) लांब मोठे कंश असलेल्या आणि (वृषणा) बैलाप्रमाणे बलवान असलेल्या (कक्षप्रा:) अभीष्ट स्थानापर्यंत नेणार्‍या (हरी) घोड्यांना (रथे) रथात (युक्ष्य) जुंपा. (अथ) त्यानंतर (न:) आम्हा प्रजाजन/गृहस्थांची (गिराम्) तक्रार, म्हणणे वा आमच्या विनयपत्रात केलेल्या (उपश्रुतिम्) प्रार्थनेला (हि) लक्ष देऊन (चर) ऐका व समजून घ्या. आपण (उपयामगृहीत:) गृहाश्रमासाठी आवश्यक साहित्य-सामग्रीचा संग्रह केलेला (असि) आहे. (आमच्यासाठी गृहाकरिता आवश्यक धान्यादी वस्तूंची व्यवस्था करा) (प्रजाननांपैकी एक गृहस्थ राजास म्हणत आहे)-(पोडशिने) सोळा कलांनी परिपूर्ण (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य प्राप्तीसाठी (त्वा) आपणाला मी उपदेश करीत आहे. (स्प:) हे (ते) आपले (योनि:) जे घर आहे, त्याला (षोडशिने) अशा प्रकारे सोळा कलांनी परिपूर्ण ठेवण्यासाठी आणि (इन्द्राय) परमैश्वर्यदायी गृहाश्रमाचे पालन-रक्षण करण्यासाठी मी (त्वा) आपणाला आदेश देत आहे. ॥34॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात ‘रथे’ हा शब्द (अर्थाच्या आकांक्षेमुळे) मागील मंत्रातून घेतला आहे. (त्याची अनुवृत्ती केली आहे) प्रजा, सेना आणि सभाजन या सर्वांनी सभाध्यक्षास असे म्हणावे की आपण शत्रूंच्या विनाशाकरिता आणि संपूर्ण राज्यात न्यायव्यवस्था ठेवण्यासाठी अश्वसेना आदी सैन्याच्या विविध अंगांना चांगल्याप्रकारे प्रशिक्षित करून त्या सैन्याला प्रसन्न आणि शक्तीशाली ठेवले पाहिजे. त्यानंतर आम्हा प्रजाजनांचे प्रार्थनापत्र वाचून/एकून राज्याची रक्षा केली पाहिजे ॥34॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O protector of riches, and dispeller of foes, harness in the chariot thy pair of studs, long-maned, stout in body, and fast to lead thee to destination. Know thou the requests made in our applications. Thou art fully equipped with the requisites of married life. I order thee to lead married life full of prosperity and sixteen traits. This is thy home. I order thee to lead a married life full of prosperity and sixteen traits.

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    Meaning

    Indra, hero of the household, man of honour and protector of your happy home, yoke your horses of beautiful hair, strong and fast, shooting to the destination And then listen to our voice and act accordingly. You are accepted and consecrated in the sacred discipline of marriage for the sixteen fold honour and sanctity of life in marriage. This grihastha is now your haven of existence. You are dedicated and given up to the sixteen fold programme of family honour.

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    Translation

    Yoke your two powerful bay steeds having fine manes and so stout that their bodies fill the girths and then O resplendent Lord, enjoyer of devotional bliss, come to hear our songs of praises. (1) O devotional bliss, you have been duly accepted. You to the resplendent Lord with sixteen attributes. (2) This is your abode. You to the resplendent Lord with sixteen attributes. (3)

    Notes

    Kaksyapra, so stout that their bodies fill the girth. अश्वसन्नाहरज्जु: कक्ष्य़ं तत् प्रात पूरयत: यौ तौ (Mahidhara).

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ রাজবিষয়ে প্রতিপাদিতপ্রকারেণ গৃহস্থধর্ম্মমাহ ॥
    এখন রাজবিষয়ে উক্তপ্রকারে গৃহাশ্রমের ধর্ম্ম পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (সোমপাঃ) ঐশ্বর্য্যের রক্ষক এবং (ইন্দ্র) শত্রুবিনাশক ! তুমি (কেশিনা) যাহার ভাল কেশ আছে সেই (বৃষণা) বৃষের সমান বলবান্ (কক্ষ্যপ্রা) অভীষ্ট দেশ পর্যন্ত পৌঁছাবার (হরী) যানের চালনাকারী অশ্বকে (রথে) রথে (য়ুক্ষ্ব) যুক্ত কর, (অথ) ইহার পর (নঃ) আমাদিগের (গিরাম্) বিনয়পত্রসকলকে (উপশ্রুতিম্) প্রার্থনাকে (হি) চিত্ত সহকারে (চর) জান । তুমি (উপয়ামগৃহীতাঃ) গৃহাশ্রমের সামগ্রীকে গ্রহণ করিয়াছ, এই কারণে (ষোডশিনে) ষোল কলায় পরিপূর্ণ (ইন্দ্রায়) পরমৈশ্বর্য্য হেতু (ত্বা) তোমাকে উপদেশ করিতেছি যে, (এষঃ) এই (তে) তোমার (য়োনিঃ) ঘর, এই (ষোডশিনে) ষোল কলায় পরিপূর্ণ (ইন্দ্রায়) পরমৈশ্বর্য্য দাতা গৃহাশ্রমের জন্য (ত্বা) তোমাকে আজ্ঞা প্রদান করিতেছি ॥ ৩৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে গত মন্ত্র হইথে “রথ” এই পদ অর্থ সহিত আইসে । প্রজা, সেনা ও সভার মনুষ্য সভাধ্যক্ষর সহিত এমন বলিবে যে, আপনি শত্রুদের বিনাশ এবং সারা রাজ্যে ন্যায় স্থিত থাকার জন্য অশ্বাদি সেনার অঙ্গসকলকে ভাল শিক্ষা দিয়া আনন্দিত এবং বলযুক্ত রাখিবেন । পুনরায় আমাদের বিনয় পত্রকে শুনিয়া রাজ্য ও ঐশ্বর্য্যের ও রক্ষা করিবেন ॥ ৩৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়ু॒ক্ষ্বা হি কে॒শিনা॒ হরী॒ বৃষ॑ণা কক্ষ্য॒প্রা । অথা॑ নऽইন্দ্র সোমপা গি॒রামুপ॑শ্রুতিং॑ চর । উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতো॒ऽসীন্দ্রা॑য় ত্বা ষোড॒শিন॑ऽএ॒ষ তে॒ য়োনি॒রিন্দ্রা॑য় ত্বা ষোড॒শিনে॑ ॥ ৩৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়ুক্ষ্বা হীত্যস্য মধুচ্ছন্দা ঋষিঃ । গৃহপতির্দেবতা । বিরাডার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ ।
    উপয়ামেত্যস্য পূর্ববচ্ছন্দঃ স্বরশ্চ ॥

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