यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 52
ऋषिः - देवा ऋषयः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - निचृत् आर्षी बृहती
स्वरः - मध्यमः
2
स॒त्रस्य॒ऽऋद्धि॑र॒स्यग॑न्म॒ ज्योति॑र॒मृता॑ऽअभूम। दिवं॑ पृथि॒व्याऽअध्या॑रुहा॒मावि॑दाम दे॒वान्त्स्व॒र्ज्योतिः॑॥५२॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्रस्य॑। ऋद्धिः॑। अ॒सि॒। अग॑न्म। ज्योतिः॑। अ॒मृ॑ताः। अ॒भू॒म॒। दिव॑म्। पृ॒थि॒व्याः। अधि। आ। अ॒रु॒हा॒म॒। अवि॑दाम। दे॒वान्। स्वः॑। ज्योतिः॑ ॥५२॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्रस्य ऽऋद्धिरस्यगन्म ज्योतिरमृता ऽअभूम दिवम्पृथिव्या ऽअध्यारुहामाविदाम देवान्त्स्वर्ज्यातिः ॥
स्वर रहित पद पाठ
सत्रस्य। ऋद्धिः। असि। अगन्म। ज्योतिः। अमृताः। अभूम। दिवम्। पृथिव्याः। अधि। आ। अरुहाम। अविदाम। देवान्। स्वः। ज्योतिः॥५२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनरपि गृहस्थविषये विशेषमाह॥
अन्वयः
हे विद्वँस्त्वं सत्रस्य ऋद्धिरसि, त्वत्सङ्गेन वयं ज्योतिरगन्म, अमृता अभूम, दिवः पृथिव्या अध्यारुहाम, देवाञ्ज्योतिः स्वश्चऽविदाम॥५२॥
पदार्थः
(सत्रस्य) सङ्गतस्य राजव्यवहाररूपस्य यज्ञस्य (ऋद्धिः) सम्यग् वृद्धिः (असि) (अगन्म) प्राप्नुयाम (ज्योतिः) विज्ञानप्रकाशम् (अमृताः) प्राप्तामोक्षाः (अभूम) भवेम, अत्रोभयत्र लिङर्थे लुङ् (दिवम्) सूर्यादिम् (पृथिव्याः) भूम्यादेश्च जगतः (अधि) उपर्य्युत्कृष्टभावे (आ) समन्तात् (अरुहाम) प्रादुर्भवेम, अत्र विकरणव्यत्ययः (अविदाम) विन्देमहि (देवान्) विदुषो दिव्यान भोगान् वा (स्वः) सुखम् (ज्योतिः) विज्ञानविषयम्॥ अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ६। ९। ११-१२) व्याख्यातः॥५२॥
भावार्थः
यावत् सर्वेषां रक्षको धार्मिको राजाऽऽप्तो विद्वाँश्च न भवेत्, तावत् कश्चिन्निर्विघ्नं विद्यामोक्षानुष्ठानं कृत्वा तत्सुखं प्राप्तुन्नार्हति, न च मोक्षसुखादधिकतरं किञ्चित् सुखमस्ति॥५२॥
विषयः
पुनरपि गृहस्थविषये विशेषमाह॥
सपदार्थान्वयः
सपदार्थान्व्य: - हे विद्वन् ! त्वं सत्रस्य संगतस्य राज्यव्यवहाररूपस्य यज्ञस्य ऋद्धिः सम्यग् वृद्धिः असि, त्वत्सङ्गेन वयं ज्योतिः विज्ञानप्रकाशम् अगन्म प्राप्नुयाम, अमृताः प्राप्तमोक्षाः अभूम भवेम दिवं सूर्यादिपृथिव्याः भूम्यादेश्च जगतः अधि+आ+अरुहाम उपर्युत्कृष्टतया समन्तात् प्रादुर्भवेम, देवान् विदुषो दिव्यान् भोगान् वा ज्योतिः विज्ञानविषयं स्वः सुखं चाविदाम विन्देमहि ॥८ । ५२॥ [हेविद्वन् ! त्वं सत्रस्य ऋद्धिरसि, त्वत्संगेन वयंज्योतिरगन्म, अमृता अभूम, देवान् ज्योतिः स्वश्चाविदाम]
पदार्थः
(सत्रस्य) संगतस्य राजव्यवहाररूपस्य यज्ञस्य (ऋद्धिः) सम्यग् वृद्धिः (असि)(अगन्म) प्राप्नुयाम (ज्योतिः) विज्ञानप्रकाशम् (अमृताः) प्राप्तमोक्षाः (अभूम) भवेम । अत्रोभयत्र लिङर्थे लुङ्(दिवम्) सूर्यादिम् (पृथिव्याः) भूम्यादेश्च जगतः (अधि) उपर्य्युत्कृष्टभावे (आ) समन्तात् (अरुहाम)प्रादुर्भवेम । अत्र विकरणव्यत्ययः(अविदाम) विन्देमहि (देवान्)विदुषो दिव्यान् भोगान् वा (स्वः) सुखम् (ज्योतिः) विज्ञानविषयम् ॥ अयं मन्त्रः शत० ४। ६। ९ । ११-१२ व्याख्यातः ॥५२॥
भावार्थः
यावत्सर्वेषां रक्षको धार्मिको राजाऽऽप्तो विद्वाँश्च न भवेत्तावत्कश्चिन्निर्विघ्नो विद्यामोक्षानुष्ठानं कृत्वा तत्सुखं प्राप्तुन्नार्हति, न च मोक्षसुखादधिकतरं किंचित्सुखमस्ति ॥८ । ५२॥
भावार्थ पदार्थः
ज्योतिः=विद्याम् ।
विशेषः
देवाः। प्रजापति:=राजा। भुरिगार्षी बृहतीः । मध्यमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी गृहस्थों के विषय में विशेष उपदेश अगले मन्त्र में किया हैं॥
पदार्थ
हे विद्वन्! आप (सत्रस्य) प्राप्त हुए राजप्रजाव्यवहाररूप यज्ञ के (ऋद्धिः) समृद्धिरूप (असि) हैं, आप के संग से हम लोग (ज्योतिः) विज्ञान के प्रकाश को (अगन्म) प्राप्त होवें और (अमृताः) मोक्ष पाने के योग्य (अभूम) हों, (दिवम्) सूर्यादि (पृथिव्याः) पृथिवी आदि लोकों के (अधि) बीच (अरुहाम) पूर्ण वृद्धि को पहँुचें (देवान्) विद्वानों दिव्य-दिव्य भोगों (ज्योतिः) विज्ञानविषय और (स्वः) अत्यन्त सुख को (अविदाम) प्राप्त होवें॥५२॥
भावार्थ
जब तक सब की रक्षा करने वाला धार्म्मिक राजा वा आप्त विद्वान् न हो, तब तक विद्या और मोक्ष के साधनों को निर्विघ्नता से पाने के योग्य कोई भी मनुष्य नहीं हो सकता और न मोक्षसुख से अधिक कोई सुख है॥५२॥
विषय
प्रजा द्वारा अमृतत्व
पदार्थ
पिछले मन्त्र के अनुसार घर में ‘रति-धृति व स्वधृति’ को समझनेवाले पति-पत्नी ‘धरुण’ पुत्र को प्राप्त करके कहते हैं कि— १. हे धरुण! तू ही ( सत्रस्य ) = हमारे इस गृहस्थ-यज्ञ की ( ऋद्धिः असि ) = समृद्धि व सफलता है। तुझे प्राप्त करके हमारा यह यज्ञ पूर्ण होता है।
२. ( ज्योतिः अगन्म ) = हमने आज प्रकाश प्राप्त किया है। हमें अब अपने आगे अन्धकार प्रतीत नहीं होता। ( अमृताः अभूम ) = अब हम तुम्हारे द्वारा अमर हो गये हैं—‘प्रजाभिरग्ने अमृतत्वमश्याम’।
३. अब हम गृहस्थ को समाप्त करके ( पृथिव्याः ) = इन पार्थिव भोगों से ( दिवे अध्यारुहाम ) = ऊपर उठकर ( द्युलोक ) = प्रकाशमय लोक में पहुँचने का प्रयत्न करें। ‘स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्’, हम सदा स्वाध्याय में तत्पर रहकर अपने ज्ञान को बढ़ानेवाले बनें। ( देवान् अविदाम ) = दिव्य गुणों को प्राप्त करें अथवा विद्वानों के समीप पहुँचें और अपने ज्ञान को बढ़ाकर ( स्वर्ज्योतिः ) = उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति परमात्मा को प्राप्त करें।
भावार्थ
भावार्थ — गृहस्थ की सफलता इसी बात में है कि हम धारणात्मक सन्तान को प्राप्त करें। उसके बाद स्वाध्याय आदि से अपने ज्ञान को बढ़ाने में लगे रहें और विद्वानों के सम्पर्क में आते हुए हम स्वयं देदीप्यमान ज्योति प्रभु को प्राप्त करें।
विषय
दीर्घजीवन और मोक्ष का ध्येय ।
भावार्थ
हे विद्वन् ! हे राजन् ! ( सत्रस्य ) परस्पर संगत या एकत्र हुए राजा प्रजा के राष्ट्ररूप यज्ञ का ( ऋद्धिः असि ) तू ऐश्वर्य या समृद्ध- रूप या शोभा है । हम सब प्रजाजन ( ज्योतिः अगन्म ) विज्ञान के प्रकाश और ऐश्वर्य को प्राप्त हों। हम लोग ( अमृताः अभूम ) अमृत, १०० वर्ष तक के दीर्घ जीवन वाले हों । ( पृथिव्याः ) इस पृथिवी से ( दिवम् ) प्रकाशमय लोक, ज्ञान ऐश्वर्य को ( अधि आरुहाम ) प्राप्त हो । ( देवान् ) विद्वान् पुरुषों का ( आ आविदाम ) नित्य संग लाभ करें। और ( ज्योतिः ) सब पदार्थ के प्रकाशक ( स्वः ) सुखस्वरूप, आनन्दमय परम मोक्ष को भी प्राप्त करें ॥ शत० ४ । ६ । ९ । १२ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
देवा ऋषय: । प्रजापतिर्देवता । भुरिगार्षी बृहती | मध्यमः ॥
विषय
फिर भी गृहस्थों के विषय में विशेष उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
हे विद्वान् पुरुष ! आप (सत्रस्य) सुसंगत राज्य-व्यवहार रूप यज्ञ की (ऋद्धिः) उत्तम वृद्धि (असि) हो, आपके संग से हम लोग (ज्योतिः) विज्ञानमय प्रकाश को (अगन्म) प्राप्त करें, (अमृताः) मोक्ष को प्राप्त करने वाले (अभूम) हों, (दिवम्) सूर्य आदि (पृथिव्याः) और भूमि आदि जगत् के (अधि+आ+रुहाम) ऊपर उत्तम रीति से चारों ओर प्रकट हों, (देवान्) विद्वानों वा दिव्यभोगों को (ज्योतिः) विज्ञान के विषय को (स्व:) और सुख को (अविदामः) प्राप्त करें ।। ८ । ५२ ।।
भावार्थ
जब तक सब का रक्षक धार्मिक राजा आप्त विद्वान् न होवे तब तक कोई निर्विघ्न विद्या और मोक्ष का अनुष्ठान करके उसके सुख को प्राप्त नहीं कर सकता, और मोक्ष सुख से बढ़कर कोई सुख नहीं है ॥ ८ । ५२ ।।
प्रमाणार्थ
(अगन्म) प्राप्नुयाम (अभूम) भवेम । यहाँ दोनों स्थान पर लिङ् अर्थ में लुङ् लकार है। (अरुहाम) यहाँ विकरण प्रत्यय (शप्) का व्यत्यय (श) है। इस मन्त्र की व्याख्या शत.(४ । ६ । ९ । ११-१२) में की गई है ॥ ५ । ५२॥
भाष्यसार
गृहस्थ-विषयक विशेष उपदेश--प्रजाजन कहते हैं कि हे सबके रक्षक, धार्मिक आप्त विद्वान् राजन् ! आप राज्यव्यवहार रूप यज्ञ की उत्तम वृद्धि हो अर्थात् बढ़ाने वाले हो, आप के संग से हम लोग विज्ञान (विद्या) रूप प्रकाश को प्राप्त करें, अमृत हो जावें अर्थात् मोक्षसुख को प्राप्त करें। विज्ञान की वृद्धि से भूमि और सूर्यादि में विचरण करें। विद्वानों और दिव्यभोगों को प्राप्त करें । विज्ञान और सब सुखों को प्राप्त करें, किन्तु मोक्ष सुख से बढ़कर कोई सुख नहीं है ।। ८ । ५२ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
जोपर्यंत सर्वांचा रक्षणकर्ता धार्मिक राजा किंवा आप्त विद्वान नसेल तोपर्यंत कोणत्याही माणसाला सहजपणे व निर्विघ्नपणे विद्या आणि मोक्षाचे साधन मिळू शकत नाही व मोक्षापेक्षा अधिक सुख कोणतेही नाही.
विषय
पुढील मंत्रात गृहस्थांकरिता विशेष उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (विद्वान)- विद्वान महोदय, आपण (सत्रस्य) राजा-प्रजा यांमध्ये संबंधरुप यज्ञाचे (ऋद्धि:) सर्वोत्कृष्ट समृद्धी (असि) आहात. आपल्या संग-संगतीमुळे आम्ही (गृहस्थजन) (ज्योति:) ज्ञान-विज्ञान (अगन्म) प्राप्त करू शकू आणि आम्ही (अमृता:) मोक्ष मिळण्यास पात्र (अभूम) होऊ शकू असे करा. तसेच आम्ही (दिव:) सूर्य (पृथिव्या:) पृथ्वी आदी लोकां (अधि) मध्ये (अरुहाम) पूर्ण उत्कर्षास प्राप्त करू (तुमच्या मार्गदर्शनाने भूमी व इतर लोकांविषयीचे ज्ञान पूर्णपणे प्राप्त करू) (देवान्) याप्रकारे (देवान्) विद्वज्जन भोगत असलेल्या दिव्य भोगांचा आणि (ज्योति:) विद्वानांच्या विज्ञानाचा व (स्व:) आत्यंतिक सुखाचा (अविदाम) आम्ही उपभोग घेऊ शकू, असे करा ॥52॥
भावार्थ
भावार्थ - जोपर्यंत राज्यात सर्वांचे रक्षण करणारा धार्मिक राजा आणि आप्त (विश्वसनीय व सुपात्र) विद्वान असणार नाही, तोपर्यंत कोणीही माणूस विद्याप्राप्ती आणि मोक्षप्राप्तीची साधने निर्विघपणे मिळवू शकणार नाही. मोक्षसुखापेक्षा श्रेष्ठ असे कोणतेही सुख नाही. (हे सर्वांनी लक्षात घ्यावे) ॥52॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person thou contributest to the progress of our government. In thy company may we obtain the light of wisdom; and attain to final beatitude. May our rule extend from the earth to the sky. May we obtain spiritual enjoyment, knowledge and pleasure.
Meaning
You are the wealth and abundance of yajna- session. Let us, through this session of yajna, expand over the earth and rise above to reach the lights of heaven and attain to immortality. Let us arise and reach the regions of space to get super-terrestrial knowledge and bring the joys of heaven on earth.
Translation
You are the last blessing of the sacrifice. We have reached the light and become immortal. From the earth we have ascended to heaven, found the enlightened ones and obtained the light and bliss. (1)
Notes
Satrasya, of the sacrifice. Rddhi, last blessing. Svarjyotih, light and bliss, or bliss, or bliss full of light.
बंगाली (1)
विषय
পুনরপি গৃহস্থবিষয়ে বিশেষমাহ ॥
পুনঃ গৃহস্থদিগের বিষয়ে বিশেষ উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বান্ ! আপনি (সত্রস্য) প্রাপ্ত রাজ প্রজাব্যবহাররূপ যজ্ঞের (ঋদ্ধিঃ) সমৃদ্ধিরূপ । আপনার সঙ্গ করিয়া আমরা (জ্যোতিঃ) বিজ্ঞানের প্রকাশকে (অগন্ম) প্রাপ্ত হইব এবং (অমৃতাঃ) মোক্ষ পাইবার যোগ্য (অভূমঃ) হইব । (দিবঃ) সূর্য্যাদি (পৃথিব্যাঃ) পৃথিবী ইত্যাদি লোক-লোকান্তরের (অধি) মধ্যে (অরুহাম) পূর্ণ বৃদ্ধি প্রাপ্ত হইব । (দেবান্) বিদ্বান্গণ দিব্য দিব্য অংশ (জ্যোতিঃ) বিজ্ঞান বিষয় এবং (স্বঃ) অত্যন্ত সুখ (অবিদাম) প্রাপ্ত হউক ॥ ৫২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যতক্ষণ সকলের রক্ষক ধার্মিক রাজা বা আপ্ত বিদ্বান্ না হইবে ততক্ষণ বিদ্যা ও মোক্ষের সাধনগুলিকে নির্বিঘ্নতা পূর্বক লাভ করিবার যোগ্য কোন মনুষ্য হইবে না এবং মোক্ষ সুখ অপেক্ষা কোন সুখ অধিক নহে ॥ ৫২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
স॒ত্রস্য॒ऽঋদ্ধি॑র॒স্যগ॑ন্ম॒ জ্যোতি॑র॒মৃতা॑ऽঅভূম ।
দিবং॑ পৃথি॒ব্যাऽঅধ্যাऽऽऽর॑ুহা॒মাऽবি॑দাম দে॒বান্ৎস্ব॒র্জ্যোতিঃ॑ ॥ ৫২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সত্রস্যেত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । প্রজাপতির্দেবতা । নিচৃদার্ষী বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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