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यजुर्वेद अध्याय - 8

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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 44
    ऋषिः - शास ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृत् अनुष्टुप्,स्वराट आर्षी गायत्री स्वरः - गान्धारः, षड्जः
    2

    वि न॑ऽइन्द्र॒ मृधो॑ जहि नी॒चा य॑च्छ पृतन्य॒तः। योऽअ॒स्माँ२ऽअ॑भि॒दास॒त्यध॑रं गमया॒ तमः॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा वि॒मृध॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा वि॒मृधे॑॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि। नः॒। इ॒न्द्र॒। मृधः॑। ज॒हि॒। नी॒चा। य॒च्छ॒। पृ॒त॒न्य॒तः। यः। अ॒स्मान्। अ॒भि॒दास॒तीत्य॑भि॒ऽदास॑ति। अध॑रम्। ग॒म॒य॒। तमः॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। वि॒मृध॒ इति॑ वि॒ऽमृधे॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। वि॒मृध॒ इति॑ वि॒ऽमृधे॑ ॥४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि न ऽइन्द्र मृधो जहि नीचा यच्छ पृतन्यतः । यो अस्माँ अभिदासत्यधरङ्गमया तमः । उपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा विमृधे ऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा विमृधे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वि। नः। इन्द्र। मृधः। जहि। नीचा। यच्छ। पृतन्यतः। यः। अस्मान्। अभिदासतीत्यभिऽदासति। अधरम्। गमय। तमः। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। विमृध इति विऽमृधे। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। विमृध इति विऽमृधे॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 44
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    सिंहावलोकन्यायेन गृहस्थधर्म्मे राजपक्षे किंचिदाह॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र सेनापते! त्वं नोऽस्माकं विमृधो जहि, पृतन्यतो नीचा नीचान् यच्छ। यः शत्रुरस्मानभिदासति तं तमस्सूर्य्य इवाधरं गमय। यस्य ते तवैष योनिरस्ति, स त्वमस्माभिरुपयामगृहीतोऽसि, अत एवेन्द्राय विमृधे त्वां स्वीकुर्म्मो विमृध इन्द्राय त्वा नियोजयामश्च॥४४॥

    पदार्थः

    (वि) विशेषेण (नः) अस्माकम् (इन्द्र) सेनाध्यक्ष! (मृधः) शत्रून् (जहि) (नीचा) दुष्टकारिणः (यच्छ) निगृह्णीहि (पृतन्यतः) आत्मनः सेनामिच्छतः (यः) (अस्मान्) (अभिदासति) सर्वत उपक्षयति। दसु उपक्षये, अत्र वर्णव्यत्ययेनाकारस्य स्थान आकारः। (अधरम्) अधोगतिम् (गमय) अत्र संहितायाम्। (अष्टा॰६।३।११४) इति दीर्घः (तमः) अन्धकारम् (उपयामगृहीतः) सेनादिसामग्रीसङ्गृहीतः (असि) (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यप्रदाय (त्वा) (विमृधे) विशिष्टा मृधः शत्रवो यस्मिंस्तस्मै संग्रामाय (एषः) (ते) (योनिः) (इन्द्राय) परमानन्दप्राप्तये (त्वा) त्वाम् (विमृधे) विगतत्रवे। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ५। ६। ४) व्याख्यातः॥४४॥

    भावार्थः

    यो दुष्टकर्म्मशीलपुरुषोऽनेकधा बलमुन्नीय सर्वान् पीडयितुमिच्छति, तं राजा सर्वथा दण्डेयत्। यदि स प्रबलतरोपाधिशीलतां न त्यजेत्, तर्हि राष्ट्रादेनं दूरं गमयेद् विनाशयेद्वा॥४४॥

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    विषयः

    सिंहावलोकन्यायेन गृहस्थधर्म्मे राजपक्षे किंचिदाह ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे इन्द्र=सेनापते ! सेनाध्यक्ष त्वं नः=अस्माकं विमृध: विशेषेण शत्रून् जहि। पृतन्यतः आत्मनः सेनामिच्छतः नीचा=नीचान् दुष्टकारिण: यच्छ निगृह्णीहि। यः शत्रुरस्मानभिदासति सर्वतः उपक्षयति तं तमः अन्धकारंसूर्य्य इवाधरम् अधोगतिंगमय। यस्य ते=तवैष योनिरस्ति स त्वमस्माभिरुपयामगृहीतः सेनादिसामग्री संगृहीतः असि । अत एवेन्द्राय ऐश्वर्य्यप्रदाय विमृधे विशिष्टा मृध:=शत्रवो यस्मिंस्तस्मै संग्रामाय [त्वा] त्वांस्वीकुर्मो र विमृधे विगतशत्रवे इन्द्राय परमानन्दप्राप्तये त्वा त्वां नियोजयामश्च ॥ ८ । ४४॥ [हे इन्द्र=सेनापते ! त्वं ने:=अस्माकं वि मृधो जहि, पृतन्यतो नीचा=नीचान् यच्छ, यः शत्रुरस्मानभिदासति तं तम: सूर्य इवा धरं गमय]

    पदार्थः

    (वि) विशेषण (नः) अस्माकम् (इन्द्र) सेनाध्यक्ष ! (मृधः) शत्रून्(जहि)(नीचा) दुष्टकारिण: (यच्छ) निगृह्णीहि (पृतन्यतः) आत्मनः सेनामिच्छतः (यः)(अस्मान्)(अभिदासति) सर्वत उपक्षयति । दसु उपक्षये । अत्र वर्णव्यत्ययेनाकारस्य स्थान आकार: (अधरम्)अधोगतिम् (गमय)अत्र संहितायाम् ॥ अ०६ । ३ । ११४॥ इति दीर्घ:(तमः) अन्धकारम् (उपयामगृहीतः) सेनादिसामग्रीसंगृहीतः (असि)(इन्द्राय) ऐश्वर्य्यप्रदाय (त्वा)(विमृधे) विशिष्टा मृधः=शत्रवो यस्मिंस्तस्मै संग्रामाय (एषः)(ते)(योनिः)(इन्द्राय) परमानन्दप्राप्तये (त्वा) त्वाम् (विमृधे) विगतशत्रवे ॥ अयं मन्त्र: शत० ४ । ५ । ६ । ४ व्याख्यातः ॥ ४४ ॥

    भावार्थः

    यो दुष्टकर्म्मशीलपुरुषोऽनेकधा बलमुन्नीय सर्वान् पीडयितुमिच्छति त राजा सर्वथा दण्डयेत्, यदि स प्रबलतरोपाधिशीलतां न त्यजेत् तर्हि राष्ट्रादेनं दूर गमयेद् विनाशयेद् वा ॥८ । ४४॥

    विशेषः

    शासः । इन्द्रः=सेनापतिः । भुरिगनुष्टुप् । गान्धारः । उपयामेत्यस्य विराडार्षी गायत्री। षड्जः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब सिंह जैसे पीछे लौट कर देखता है, इस प्रकार गृहस्थ कर्म्म के निमित्त राजपक्ष में कुछ उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सेनापते! तू (नः) हमारे (पृतन्यतः) हम से युद्ध करने के लिये सेना की इच्छा करनेहारे शत्रुओं को (जहि) मार और उन (नीचा) नीचों को (यच्छ) वश में ला और जो शत्रुजन (अस्मान्) हम लोगों को (अभिदासति) सब प्रकार दुःख देवे उस (विमृधः) दुष्ट को (तमः) जैसे अन्धकार को सूर्य्य नष्ट करता है, वैसे (अधरम्) अधोगति को (गमय) प्राप्त करा, जिस (ते) तेरा (एषः) उक्त कर्म्म करना (योनिः) राज्य का कारण है, इससे तू हम लोगों से (उपयामगृहीतः) सेना आदि सामग्री से ग्रहण किया हुआ (असि) है, इसी से (त्वा) तुझ को (विमृधे) जिस में बड़े-बड़े युद्ध करने वाले शत्रुजन हैं, (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य देने वाले उस युद्ध के लिये स्वीकार करते हैं (त्वा) तुझ को (विमृधे) जिस के शत्रु नष्ट हो गये हैं, उस (इन्द्राय) राज्य के लिये प्रेरणा देते हैं अर्थात् अधर्म्म से अपना वर्त्ताव न वर्त्ते॥४४॥

    भावार्थ

    जो खोटे काम करने वाला पुरुष अनेक प्रकार से अपने बल को उन्नति देकर सब को दुःख देना चाहे, उस को राजा सब प्रकार से दण्ड दे। यदि फिर भी वह अपनी अत्यन्त खोटाइयों को न छोड़े तो उसको मार डाले अथवा नगर से इसको दूर निकाल बन्द रक्खे॥४४॥

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    विषय

    पापों के साथ संग्राम

    पदार्थ

    गत मन्त्र के अनुसार वेदवाणी के द्वारा अपने कर्त्तव्यों का आचरण करनेवाला संयमी पुरुष ‘शास’ आत्मशासन करनेवाला है। यह प्रभु से प्रार्थना करता है कि १. ( इन्द्र ) = हे सब आसुरवृत्तियों के संहार करनेवाले प्रभो! ( नः ) = हमारे ( मृधः ) = काम-क्रोधादि आन्तर शत्रुओं को ( विजहि ) = विशेषरूप से नष्ट कर दीजिए। 

    २. ( पृतन्यतः ) = हमारे साथ निरन्तर संग्राम करनेवाले इन वासनात्मक शत्रुओं को नीचा ( यच्छ ) = नीचा दिखानेवाले होओ। इनको पाँवों तले कुचल दीजिए। 

    ३. ( यः अस्मान् अभिदासति ) = जो भी हमें दास बनाना चाहता है उसे ( अधरं तमः गमय ) = घोर अन्धकार में, पाताललोक में प्राप्त कराइए, अर्थात् हम वासनाओं के शिकार न हों, उनसे कुचले न जाएँ, वासनाओं के दास न बन जाएँ। 

    ४. प्रभु इस ‘शास’ से कहते हैं कि ( उपयामगृहीतः असि ) = तू यम-नियमों से स्वीकृत जीवनवाला है। ( त्वा ) = तुझे ( इन्द्राय ) = इन्द्र बनने के लिए यहाँ भेजा है, शासन करनेवाला बनने के लिए, न कि दास बनने के लिए, ( विमृधे ) = शत्रुओं को पूर्ण रूप से नष्ट करने के लिए भेजा है। ( एषः ते योनिः ) = यह शरीर ही तेरा घर है, तूने इधर-उधर भटकना नहीं है। ( इन्द्राय त्वा विमृधे ) = तुझे इन्द्र बनना है, शत्रुओं को कुचलना है।

    भावार्थ

    भावार्थ — मैं इन्द्र बनूँ। इन्द्रियों का शासन करनेवाला ‘शास’ होऊँ। वासनाओं को काबू करनेवाला बनूँ।

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    विषय

    शत्रुमर्दक इन्द्र का वर्णन, विश्वकर्मा इन्द्र का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) सेनापते या राजन् ! तू ( नः ) हमारे ( मृधः ) शत्रुओं को ( विजहि ! विनाश कर( पृतन्यतः ) युद्ध के लिये सेनासंग्रह करने वाले या सेना से चढाई करने वाले शत्रुओं को (नीचा यच्छ ) नीचे, गहरे स्थानों में बन्द करके रख या ( नीचा यच्छ ) उन नीच, दुष्ट पुरुषों को बाँध कर रख । ( यः ) जो ( अस्मान् ) हमको ( अभि दासति ) सब प्रकार से नाश करना चाहता है उसको ( अधरं तमः ) नीचे गहरे अन्धकार के स्थान में ( गमय ) पहुंचा । हे योग्य पुरुष ! तू ( उपयामगृहीतः असि ) राज्यव्यवस्था द्वारा स्वीकृत है | ( त्वा) तुझको ( विमृधे इन्द्राय ) विशेष रूप से शत्रुओं के नाशक, विशेष संग्रामकारी इन्द्र सेनापति के पद पर नियुक्त करता हूं । ( ते एष: योनिः ) तेरा यह पद या आश्रय है । ( विमृध इन्द्राय त्वा ) 'विमृध इन्द्र' नामक पद पर तुझे स्थापित करता हूं।।शत० ४ । ६ । ४ । ४॥

    टिप्पणी

     १ वि नंऽइन्द्र २ उ॒पामगृहीतोऽसीन्द्राय।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शासो भारद्वाज ऋषिः । विमुद् इन्द्रो देवता । ( १ ) भुरिगनुष्टुप् । गान्धारः । ( २ ) विराडार्षी गायत्री षड्जः ॥ 

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    विषय

    अब सिंह जैसे पीछे लौट कर देखता है इस प्रकार गृहस्थ कर्म के निमित्त राजपक्ष में कुछ उपदेश किया है ।।

    भाषार्थ

    हे (इन्द्र) सेनापते एवं सेनाध्यक्ष ! आप (नः) हमारे (विमृधः) विशेष शत्रुओं को (जहि) मारो और (पृतन्यतः) अपनी सेना की इच्छा करने वाले (नीचा) नीच दुष्टों को (यच्छ) पकड़ो। (यः) जो शत्रु (अस्मान्) हमें (अभिदासति) सब ओर से क्षीण करता है उसे (तमः) अन्धकार को सूर्य के समान (अधरम्) नीचे (गमय) गिराओ। जिस (ते) आपका ( एष:) यह उक्त आचरण (योनिः) निवास है सो आप हमसे (उपयामगृहीतः) सेना आदि सामग्री से युक्त होने से ग्रहण किये गये (असि) हो, अतः (इन्द्राय) ऐश्वर्य को देने वाले (विमृधे) विशेष शत्रुओं से युक्त संग्राम को जीतने के लिये [त्वा] आपको सेनापति स्वीकार करते हैं तथा (इन्द्राय) परमानन्द की प्राप्ति के लिये (त्वा) आपको (नियोजयामः) आज्ञा देते हैं ।। ८ । ४४ ।।

    भावार्थ

    जो दुष्ट कर्म करने वाला पुरुष अनेक प्रकार से अपने बल को बढ़ाकर सबको पीड़ा देना चाहे उसे राजा सब प्रकार से दण्ड दे, यदि वह अपने प्रबलतर दुष्ट स्वभाव को न छोड़े तो उसे राष्ट्र से निकाल देवे अथवा मार डाले ॥ ८ ॥ ४४ ॥

    प्रमाणार्थ

    (अभिदासति) यह रूप 'उपक्षय' अर्थ वाली 'दसु' धातु का है। यहाँ वर्णव्यत्यय से अकार के स्थान में आकार है। (गमया) गमय । यहाँ 'संहितायाम्’ (अ०६।३।११४) इस सूत्र से दीर्घ है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ५ । ६ । ४) में की गई है ॥ ८ । ४४ ॥

    भाष्यसार

    सिंहावलोक न्याय से गृहस्थधर्म में राजपक्ष--सेनापति को उचित है कि वह शत्रुओं का हनन करें, और जो दुष्ट कर्म करने वाला पुरुष अपनी सेना (बल) को बढ़ाकर सबको पीड़ा देना चाहे उस दुष्ट को पकड़ कर वश में रखे, और जो शत्रु सब ओर से हानि पहुँचाये तथा अपनी प्रबलतर उपाधियों को न छोड़े तो जैसे सूर्य अन्धकार को दूर भगा देता है अथवा नष्ट कर देता है वैसे उसे राष्ट्र से निकाल देवे अथवा मार डाले । प्रजा जनों को योग्य है कि सेना आदि सामग्री से सम्पन्न पुरुष को नियमानुसार सेनापति स्वीकार करें क्योंकि ऐश्वर्य को देने वाले संग्राम के लिये सेनापति का होना आवश्यक है। प्रजा जन शत्रुओं को दूर भगाने के लिये तथा परम आनन्द की प्राप्ति के लिये सेनापति को नियुक्त करें ॥ ८ । ४४ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    वाईट खोटी कर्मे करणारा पुरुष जर बलवान बनून इतरांना दुःखी करत असेल तर राजाने त्याला दंड द्यावा. जर एवढे करूनही तो वाईट काम सोडत नसेल तर त्याला मृत्युदंड द्यावा किंवा शहराबाहेर दूर कैद करून ठेवावे.

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    विषय

    आता सिंहावलोकनन्यायाप्रमाणे गृहस्थांच्या कर्तव्याविषयी राजाला उद्देशून पुन्हा काही उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (इन्द्र) सेनापती, (पृतन्यत:) आमच्याशी युद्ध करण्याच्या इच्छा करून सैन्य एकत्रित करणार्‍या (न:) आमच्या शत्रूंचा तुम्ही (जहि) वध करा आणि त्या (नीचा) नीच मनुष्यांना (यच्छ) काबूत आणा. तसेच जे शत्रु (अस्मान्) आम्हाला (प्रजाजनांना वा गृहस्थजनांना) (अभिदासति) अनेकप्रकारे दु:ख देता वा पीडित करतात, त्या (विमृध:) दुष्टांना (तम:) सूर्य जसे अंधकार नष्ट करतो, त्याप्रमाणे त्या दुष्टांना (अधरम्) अधोगतीला (गमय) पाठवा (त्यांचा पराजय वा विनाश करा - (याच कारणासाठी) (ते) तुमचे (एष:) हे कर्तव्य आणि (योनि:) राजांचा उद्देश्य आहे. (की आमच्या शत्रूंचा विनाश करा) व तुम्ही (उपयामगृहीत:) सैन्य तसे आवश्यक युद्धसामग्रीने समृद्ध (असि) आहात. यासाठीच आम्ही (त्वा) तुम्हाला (विमृध:) घोर संग्राम करणार्‍या शत्रूंच्या विरूद्ध (इन्द्राय) तुमच्यासारख्या ऐश्वर्य व शक्तिसंपन्न सेनापतीला युद्धासाठी सेनापती म्हणून स्वीकारले आहे. (त्वा) तसेच तुम्हाला (विमृधे) शत्रुविहीन होण्यासाठी (इन्द्राय) सुखमय राज्याकरिता आम्ही प्रेरणा देत आहोत म्हणजे तुम्ही कधी अधर्माचरण करू नये, (सांगत आहोत.). ॥44॥

    भावार्थ

    भावार्थ - कोणी दुष्कर्मा, कपटी, मनुष्य शक्तिशाली बनून सर्वांना दु:ख देत असेल, तर राजाने त्याला अनेक प्रकारे दंड द्यावा. तरीही जर तो दुष्ट दुष्कर्म करणे सोडत नसेल, तर त्याला ठार मारणे किंवा त्याला नगरापासून बाहेर व दूरच्या ठिकाणी घालवून द्यावे. ॥44॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O general, beat our foes away, humble the men who challenge us. As the sun removes darkness, so send down to a degraded position, him who seeks to do us injury. We accept thee equipped with forces for the grant of happiness and dispelling our foes. This action of thine is the secret of thy rule. We urge thee to grant us happiness and remove our enemies.

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    Meaning

    Indra, commander of the army, destroy our enemies, keep the enemy hoards down. Him who wants to beat us into slavery, throw down into the dark. Accepted you are by the people and consecrated in the rules and tactics of the army for the defence of the land and destruction of the enemy. This is now your haven and home, the sole purpose of your office. We dedicate you to the defence and security of the land and to the honour of the nation.

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    Translation

    O resplendent Lord, dispel our enemy. Humble him, who dares to challenge us. Him, who wants to enslave us, send to the darkness far beneath. (1) O devotional bliss, you have been duly accepted. You to the resplendent Lord, dispeller of enemies. (2) This is your abode. You to the resplendent Lord, the dispeller of enemies. (3)

    Notes

    Mrdhah, enemies. Prtanyatah, those who challenge or invade us. Adhnaram tamah, darkness of far beneath.

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    बंगाली (1)

    विषय

    সিংহাবলোকন্যায়েন গৃহস্থধর্ম্মে রাজপক্ষে কিংচিদাহ ॥
    সিংহ যেমন পিছনে ঘুরিয়া দেখে সেই প্রকার কর্ম্মের নিমিত্ত রাজপক্ষে কিছু উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (ইন্দ্র) সেনাপতে ! তুমি (নঃ) আমাদের (পৃতন্যতঃ) আমাদের সহিত যুদ্ধ করিবার জন্য সৈন্যর ইচ্ছুক শত্রুদিগকে (জহি) বধ কর এবং সেই সব (নীচা) নিম্ন ব্যক্তিদিগকে (য়চ্ছ) অধীন কর এবং যে শত্রু (অস্মান্) আমাদিগকে (অভিদাসতি) সর্ব প্রকারে দুঃখ দেয় সেই (বিমৃধঃ) দুষ্টকে (তমঃ) যেমন অন্ধকারকে সূর্য্য নষ্ট করে সেইরূপ (অধরম্) অধোগতি (গময়) প্রাপ্ত করাও । (তে) তোমার (এষঃ) উক্ত কর্ম্ম করা (য়োনিঃ) রাজ্যের কারণ ইহাতে তুমি আমাদিগের হইতে (উপয়ামগৃহীতঃ) সেনাদি সামগ্রী সংগৃহীত করিয়াছ ইহার ফলে (ত্বা) তোমাকে (বিমৃধে) যাহাতে বড় বড় সংগ্রামকারী শত্রুগণ আছে (ইন্দ্রায়) ঐশ্বর্য্য প্রদাতা সেই সংগ্রাম হেতু স্বীকার করি (ত্বা) তোমাকে (বিমৃধে) যাহার শত্রু নষ্ট হইয়া গিয়াছে সেই (ইন্দ্রায়) রাজ্যের জন্য প্রেরণা দান করি অর্থাৎ অধর্মের সহিত ব্যবহার করিবে না ॥ ৪৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে নীচ কর্মকারী পুরুষ বহু প্রকারে স্বীয় বলকে উন্নত করিয়া সকলকে দুঃখ দিতে চাহে তাহাকে রাজা সর্বপ্রকারে দন্ড দিবেন । তবুও যদি সে তাহার নিম্নতার পরিত্যাগ না করে তাহাকে বধ করিবে অথবা নগর হইতে দূরে বহিষ্কার করিয়া আবদ্ধ করিয়া রাখিবে ॥ ৪৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বি ন॑ऽইন্দ্র॒ মৃধো॑ জহি নী॒চা য়॑চ্ছ পৃতন্য॒তঃ । য়োऽঅ॒স্মাঁ২ऽঅ॑ভি॒দাস॒ত্যধ॑রং গময়া॒ তমঃ॑ । উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতো॒ऽসীন্দ্রা॑য় ত্বা বি॒মৃধ॑ऽএ॒ষ তে॒ য়োনি॒রিন্দ্রা॑য় ত্বা বি॒মৃধে॑ ॥ ৪৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বি ন ইত্যস্য শাস ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ । উপয়ামেত্যস্য স্বরাডার্ষী গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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