यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 41
ऋषिः - प्रस्कण्व ऋषिः
देवता - सूर्य्यो देवता
छन्दः - निचृत् आर्षी गायत्री,स्वराट आर्षी गायत्री,
स्वरः - षड्जः
2
उदु॒ त्यं जा॒तवे॑दसं दे॒वं व॑हन्ति के॒तवः॑। दृ॒शे विश्वा॑य॒ सूर्य॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ सूर्या॑य त्वा भ्रा॒जायै॒ष ते॒ योनिः॒ सूर्या॑य त्वा भ्रा॒जाय॑॥४१॥
स्वर सहित पद पाठउत्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। त्यम्। जा॒तवे॑दस॒मिति॑ जा॒तऽवे॑दसम्। दे॒वम्। व॒ह॒न्ति॒। के॒तवः॑। दृ॒शे। विश्वा॑य। सूर्य्य॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। सूर्य्या॑य। त्वा॒। भ्रा॒जाय॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। सूर्य्या॑य। त्वा॒। भ्रा॒जाय॑ ॥४१॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु त्यञ्जातवेदसन्देवं वहन्ति केतवः । दृशे विश्वाय सूर्यम् । उपयामगृहीतोसि सूर्याय त्वा भ्राजायैष ते योनिः सूर्याय त्वा भ्राजाय ॥
स्वर रहित पद पाठ
उत्। ऊँऽइत्यूँ। त्यम्। जातवेदसमिति जातऽवेदसम्। देवम्। वहन्ति। केतवः। दृशे। विश्वाय। सूर्य्यम्। उपयामगृहीत इत्युपयामगृहीतः। असि। सूर्य्याय। त्वा। भ्राजाय। एषः। ते। योनिः। सूर्य्याय। त्वा। भ्राजाय॥४१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथेश्वरपक्षे गृहस्थकर्म्माह॥
अन्वयः
यं जातवेदसं देवं सूर्यं जगदीश्वरं विश्वाय दृशे केतवो विद्वांस उद्वहन्त्यु त्यं जगदीश्वरं वयं प्राप्नुयाम। हे जगदीश्वर! यस्त्वमस्माभिर्भ्राजाय सूर्यायोपयामगृहीतोऽसि, तं त्वा त्वां सर्वे गृह्णन्तु, यस्य ते तवैष योनिरास्ति, तं त्वां भ्राजाय सूर्याय कारणं विजानीमः॥४१॥
पदार्थः
(उत्) (उ) वितर्के (त्यम्) अमुम् (जातवेदसम्) यो जातान् वेत्ति विन्दते वा, जाता वेदसो वेदाः पदार्था वा यस्मात् तम् (देवम्) शुद्धस्वरूपम् (वहन्ति) प्रापयन्ति (केतवः) किरणा इव प्रकाशमाना विद्वांसः (दृशे) द्रष्टुम् (विश्वाय) सर्वजगदुपकाराय (सूर्यम्) चराचरात्मानमीश्वरम् (उपयामगृहीतः) उपगतैर्यामैर्यमैः स्वीकृतः (असि) (सूर्य्याय) प्राणाय सवित्रे वा (त्वा) त्वाम् (भ्राजाय) प्रकाशकाय (एषः) कार्यकारणसङ्गत्या यदनुमीयते (ते) तव (योनिः) असमं प्रमाणम् (सूर्य्याय) ज्ञानसूर्यस्य प्राप्तये (त्वा) त्वाम् (भ्राजाय)। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ३। ४। ९) व्याख्यातः॥४१॥
भावार्थः
यथा वेदविदो विद्वांसो वेदाऽनुकूलमार्गेण परमेश्वरं विज्ञाय श्रेष्ठविज्ञानेन तदुपासनं कुर्वन्ति, तथैव स ईश्वरः सर्वैरुपासनीयः। न तादृशेन ज्ञानेन विनेश्वरोपासना भवितुं शक्या, कुतो विज्ञानमेव परमेश्वरोपासनावधिरिति॥४१॥
विषयः
अथेश्वरपक्षे गृहस्थकर्म्माह ॥
सपदार्थान्वयः
यं जातवेदसं यो जातान् वेत्ति विन्दते वा, जाता वेदस:=वेदाः पदार्था वा यस्मात्तंदेवं शुद्धस्वरूपं सूर्य्यं जगदीश्वरं चराचरात्मानमीश्वरंविश्वाय सर्वजगदुपकाराय दृशे द्रष्टुं केतवः किरणा इव प्रकाशमाना विद्वांस: उद्वहन्ति प्रापयन्ति, उसवितकत्यम् अमुं जगदीश्वरं वयं प्राप्नुयाम । हेजगदीश्वर! यस्त्वमस्माभिर्भ्राजाय प्रकाशकाय सूर्याशेय प्राणाय सवित्रे वा उपयामगृहीतः उपगतैर्य्यामैः=यमैः स्वीकृतः असि तं त्वा=त्वां सर्वे तदर्थ गृह्णन्तु । यस्य ते=तवैष कार्यकारणसंगत्या यदनुमीयते योनि: असमं प्रमाणम् अस्ति, तं [त्वा]=त्वांभ्राजाय सूर्य्याय ज्ञानसूर्य्यस्य प्राप्तये कारणं विजानीमः ॥ ५ ॥ ४१ ॥ [यं......सूर्यं=जगदीश्वरं विश्वाय दृशे केतव उद्वहन्ति......त्यं जगदीश्वरं वयं प्राप्नुयाम]
पदार्थः
(उत्)(उ) वितर्के (त्यम्) अमुम्(जातवेदसम्) यो जातान् वेत्ति विन्दते वा जाता वेदसो=वेदाः पदार्थाः वा यस्मात्तम् (देवम्) शुद्धस्वरूपम् (वहन्ति) प्रापयन्ति (केतवः) किरण इव प्रकाशमाना विद्वांसः (दृशे) द्रष्टुम्(विश्वाय) सर्वजगदुपकाराय (सूर्यम्) चराचरात्मानमीश्वरम् (उपयामगृहीतः) उपगतैर्य्यामैर्य्यमैः स्वीकृतः (असि)(सूर्य्याय) प्राणाय सवित्रे वा (त्वा) त्वाम्(भ्राजाय) प्रकाशकाय (एषः) कार्यकारणसंगत्या यदनुमीयते (ते) तव (योनिः) असमंप्रमाणम् (सूर्या)मय) ज्ञानसूर्य्यस्य प्राप्तये (त्वा) त्वाम् (भ्राजाय) । अयं मन्त्रः शत० ४। ३।४। ९ व्याख्यातः ॥ ४१॥
भावार्थः
यथा वेदविदो विद्वांसो वेदानुकूलमार्गेण परमेश्वरं विज्ञाय श्रेष्ठविज्ञानेन तदुपासनं कुर्वन्ति तथैव स ईश्वरः सर्वैरुपासनीयः । न तादृशेन ज्ञानेन विनेश्वरोपासना भवितुं शक्या, कुतो? विज्ञानमेव परमेश्वरोपासनावधिरिति ॥३॥४१॥
भावार्थ पदार्थः
केतवः=वेदविदो विद्वांसः । उद्वहन्ति=तदुपासनं कुर्वन्ति ॥
विशेषः
प्रस्कण्वः । सूर्य:=जगदीश्वरः । पूर्वस्य निचृदार्षी । उपयामेत्यस्य स्वराडार्षी गायत्री च । षड्जः ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब ईश्वरपक्ष में गृहस्थ के कर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
(जातवेदसम्) जो उत्पन्न हुए पदार्थों को जानता वा प्राप्त कराता वा वेद और संसार के पदार्थ जिससे उत्पन्न हुए हैं (देवम्) शुद्धस्वरूप जगदीश्वर जिसको (विश्वाय) संसार के उपकार के लिये (दृशे) ज्ञानचक्षु से देखने को (केतवः) किरणों के तुल्य सर्व अंशों में प्रकाशमान विद्वान् (उत्) (वहन्ति) अपने उत्कर्ष से वादानुवाद कर व्याख्यान करते हैं (उ) तर्क-वितर्क के साथ (त्यम्) उस जगदीश्वर को हम लोग प्राप्त हों। हे जगदीश्वर! जो आप हम लोगों ने (भ्राजाय) प्रकाशमान अर्थात् अत्यन्त उत्साह और पुरुषार्थयुक्त (सूर्य्याय) प्राण के लिये (उपयामगृहीतः) यम-नियमादि योगाभ्यास उपासना आदि साधनों से स्वीकार किये हुए (असि) हैं, उन (त्वा) आपको उक्त कामना के लिये समस्त जन स्वीकार करें और हे ईश्वर! जिन (ते) आपका (एषः) यह कार्य्य और कारण की व्याप्ति से एक अनुमान होना (योनिः) अनुपम प्रमाण है, उन (त्वा) आपको (भ्राजाय) प्रकाशमान (सूर्य्याय) ज्ञानरूपी सूर्य्य के पाने के लिये एक कारण जानते हैं॥४१॥
भावार्थ
जैसे वेद के वेत्ता विद्वान् लोग वेदानुकूल मार्ग से परमेश्वर को जानकर उत्तम ज्ञान से उसका सेवन करते हैं, वैसे ही वह जगदीश्वर सब को उपासनीय अर्थात् सेवन करने के योग्य है। वैसे ज्ञान के विना ईश्वर की उपासना कभी नहीं हो सकती, क्योंकि विज्ञान ही उसकी अवधि है॥४१॥
विषय
‘वर्चस्वान्, ओजिष्ठ व भ्राजिष्ठ’ बनने का साधन
पदार्थ
१. गत मन्त्रों में ‘वर्चस्वान्, ओजिष्ठ व भ्राजिष्ठ’ बनने की प्रेरणा दी गई है। प्रस्तुत मन्त्र में वैसा बनने का साधन बताते हैं। ( उत् उ ) = [ उत् = out, बाहर ] मनुष्य वर्चस्वान् आदि बन सकता है, परन्तु प्रकृति से ऊपर उठकर ही।
२. जब प्रकृति से ऊपर उठकर हम उस प्रभु की ओर झुकते हैं तभी भोगों से क्षीणशक्ति न होने के कारण हम अपने को वर्चस्वी बना पाते हैं, अतः ( केतवः ) = ज्ञानी लोग ( त्यम् ) = उस ( जातवेदसम् ) = प्रत्येक पदार्थ में वर्त्तमान ( देवम् ) = दिव्य गुणों के पुञ्ज अथवा ज्ञान से दीप्त तथा हमारे हृदयों को ज्ञान से द्योतित करनेवाले ( सूर्यम् ) = सदा उत्तम कर्मों में प्रेरित करनेवाले प्रभु को ( वहन्ति ) = अपने हृदयों में धारण करते हैं।
३. इस धारण के द्वारा वे ( विश्वाय दृशे ) = सब लोकों के देखनेवाले बनते हैं [ दृश् to look after ]। जैसे माता बच्चे का ध्यान करती है इसी प्रकार प्रभु को हृदय में धारण करनेवाले ये सब लोगों का ध्यान करते हैं।
४. प्रभु कहते हैं ( उपयामगृहीतः असि ) = तेरा जीवन सुनियमों से स्वीकृत है। ( सूर्याय त्वा ) = तुझे इस संसार में सूर्य बनने के लिए भेजा है ( भ्राजाय ) = सूर्य की भाँति चमकने के लिए। ( एषः ते योनिः ) = यह शरीर ही तेरा घर है। ( सूर्याय त्वा भ्राजाय ) = सूर्य बनने के लिए तुझे भेजा गया है, चमकने के लिए। यह सूर्य बनना व सूर्य के समान चमकना तभी हो सकता है जब मनुष्य ( उत् ) = प्रकृति से कुछ ऊपर उठे।
भावार्थ
भावार्थ — हम प्राकृतिक भोगों से ऊपर उठें, प्रभु को हृदय में धारण करें, सर्वहित की भावना से ओत-प्रोत हों, जीवन संयमी हो और हम सूर्य की भाँति चमकनेवाले बनें।
विषय
पत्नी और पृथ्वी द्वारा अपने योग्य पालक पति का धारण ।
भावार्थ
(त्यं ) उस ( जातवेदसम् ) समस्त पदार्थों के ज्ञाता, वेदों के मूलकारण या समस्त पदार्थों के स्वामी परमेश्वर को और ऐश्वर्यवान् ( सूर्य देवम् ) सूर्य के समान तेजस्वी देव, राजा और परमेश्वर को ( केतवः ) किरणों के समान प्रकाशमान ज्ञानी विद्वान् लोग ( विश्वाय दंश ) समस्त संसार के यथा योग्य ज्ञानपूर्वक देखने के लिये निरीक्षक साक्षीरूप से ( उद् वहन्ति ) सबके ऊपर स्थापित करते हैं । हे सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष तू (उपयामगृहीतः असि ) राज्य नियमव्यवस्था द्वारा सुबद्ध है । ( त्वा सूर्याय भ्राजाय ) तुझको तेजोयुक्त सूर्य पद के लिये नियुक्त करते हैं । ( एषः ते योनिः ) यह तेरा पद है । ( सूर्याय भ्राजाय त्वा) सूर्य के समान तेजस्वी पदाधिकार के लिये तुझको स्थापित करता हूँ ।
परमात्मा पक्ष में-- ( केतवः ) ज्ञानी पुरुष उस सर्वज्ञ सर्वेश्वर देव को ( विश्वाय दृशे ) समस्त विश्व के हित के लिये उस पर साक्षीरूप से दृष्टा के रूप में (उद् वहन्ति) सर्वोच्च बतलाते हैं | शत० ४ । ६ । २ । ८ ॥
टिप्पणी
४१ देवानामाम् । सर्वा । अतः परं । चित्र देवानाम् ०' इति ( यजु० ७ ॥ १ 'उदु त्यं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्व ऋषिः । सूर्यो देवता । ( १ ) निचृदार्षो । ( २ ) स्वराडार्षी, गायत्री षड्जः ॥
विषय
अब ईश्ववरपक्ष में गृहस्थ के कर्म का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ
जिस (जातवेदसम्) जात मात्र को जानने वाले एवं प्राप्त अथवा जिससे चारों वेद वा सब पदार्थ उत्पन्न हुये हैं उस (देवम्) शुद्ध स्वरूप (सूर्यम्) चराचर के आत्मा जगदीश्वर को (विश्वाय) सब जगत् के उपकार के निमित्त (दृशे) देखने के लिये (केतवः) सूर्य-किरणों के समान प्रकाशमान विद्वान् लोग (उद्वहन्ति) प्राप्त करते हैं, (उ) विचारपूर्वक (त्यम्) उस जगदीश्वर को हम लोग प्राप्त करें। हे जगदीश्वर ! आप हमसे--(भ्राजाय) प्रकाशक (सूर्याय) प्राण वा ज्ञान-सूर्य की प्राप्ति के लिये (उपयामगृहीतः) यम-नियम आदि से स्वीकार किये गये (असि) हो, सो (त्वा) आप को सब लोग उक्त प्रयोजन के लिये ग्रहण करें। जिस (ते) आपके ज्ञान में (एषः) यह कार्यकारण की संगति से अनुमान करना (योनिः)अतुल प्रमाण है, सो [त्वा] आपको तथा (भ्राजाय) प्रकाशमान (सूर्याय) ज्ञान-सूर्य की प्राप्ति के लिये कारण [प्रकृति] को जानें ॥ ८ । ४१ ॥
भावार्थ
जैसे वेद के वेत्ता विद्वान् लोग वेदानुकूल मार्ग से परमेश्वर को जानकर श्रेष्ठ विज्ञान से उसकी उपासना करते हैं वैसे ही वह ईश्वर सबके लिये उपासनीय है। वैसे ज्ञान के बिना ईश्वर की उपासना नहीं हो सकती क्योंकि विज्ञान ही परमेश्वर- उपासना की अवधि है ॥ ८ । ४१ ।।
प्रमाणार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ३ । ४ । ९) में की गई है ।। ८ । ४१ ।।
भाष्यसार
ईश्वर और गृहस्थ कर्म--ईश्वर जातमात्र सब पदार्थों को जानता है, सब जातमात्र पदार्थों में विद्यमान है, सब वेद और सब पदार्थ उसी से उत्पन्न हुये हैं। इसलिये वह 'जातवेदाः' कहलाता है। शुद्धस्वरूप होने से ईश्वर का नाम 'देव' है । चराचर का आत्मा होने से ईश्वर का नाम ‘सूर्य' है। इस जगदीश्वर को सूर्य की किरणों के समान विद्यादि गुणों से प्रकाशमान वेदज्ञ विद्वान् लोग सकल जगत् के उपकार की दृष्टि से प्राप्त करते हैं, श्रेष्ठ विज्ञान से उसकी उपासना करते हैं। विद्वानों के समान यह ईश्वर सबके लिये उपास्य है। प्राण-विज्ञान वा सूर्य-विज्ञान की प्राप्ति के लिये यम-नियम आदि से जगदीश्वर को ग्रहण करें। ईश्वर के ग्रहण में कार्य-कारण की संगति के द्वारा इसका अनुमान अतुल प्रमाण है। ज्ञान-सूर्य की प्राप्ति में ईश्वर को ही कारण समझें क्योंकि विज्ञान की अवधि परमेश्वर की उपलब्धि पर्यन्त है ।। ८ । ४१ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
वैदिक विद्वान वेदानुकूल मार्गाने परमेश्वराला जाणून उत्तम ज्ञान प्राप्त करून त्याची भक्ती करतात. अशा जगदीश्वराची सर्वांनी उपासना करावी. वास्तविक ज्ञानाखेरीज परमेश्वराची उपासना कधीच होऊ शकत नाही. विज्ञानाची पराकाष्ठा करूनच त्याला जाणता येते.
विषय
ईश्वराच्या संबंधाने गृहस्थांची कर्तव्ये काय, याविषयी पुढील मंत्रात प्रतिपादन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (जातवेदसम्) जो परमेश्वर सर्व उत्पन्न पदार्थांना जाणतो वा आम्हांला सर्व पदार्थांचे ज्ञान करवितो, अथवा ज्या परमेश्वरापासून वेद आणि जगातील पदार्थ उत्पन्न झाले आहेत, त्या (देवम्) शुद्धस्वरूप जगदीश्वराला (विश्वाय) संसारास उपकृत करण्यासाठी (दृशे) ज्ञानचक्षुद्वारे पाहून (केतव:) किरणांप्रमाणे प्रकाशमान असे विद्वज्जन (उत्) (वहन्ति) आपल्या ज्ञानाने वादानुवाद (चर्चा, विचार, तर्क, चिंतन) करून त्यांचे व्याख्यान करतात, (उ) त्या तर्क-वितर्कांवर विचार करून (त्यम्) आम्ही देखील त्या जगदीश्वराला जाणावे व प्राप्त करावे. हे जगदीश्वर, आम्ही (उपासकांनी) (भ्राजाय) अत्यंत उत्साहाने पुरुषार्थ करीत (सूर्य्याय) प्राणांच्या उत्कर्षाकरिता (उपयामगृहीत:) यमनियम, योगाभ्यास, उपासना आदी साधनांनी आपणांस स्वीकारले (असि) आहे. (त्वा) आपणाला आम्ही वरील कामनांच्या पूर्तीसाठी साद स्वीकार करावे. हे ईश्वर, (ते) आपले (एष:) हे कार्य-कारण व्याप्तीमुळी होणारे जे अनुमान आहे, (योनि:) ते अनुपम प्रमाण आहे (कार्याला पाहून कारणाचे अनुमान होते-तद्वत् आपली ही सृष्टी पाहून आपल्या सत्तेचे अनुमान होते) अशा (त्वा) आपणांला (भ्राजाय) प्रकाशमान (सूर्य्याय) ज्ञानरुप सूर्याच्या प्राप्तीकरिता आम्ही (उपासकगण) आपणांस एक कारण मानतो. (ज्ञानाद्वारे आपणांस जाणून आपली उपासना करतो) ॥41॥
भावार्थ
भावार्थ - ज्याप्रमाणे वेदवेत्ता विद्वज्जन वेदानुकूल मार्गाने परमेश्वराला जाणतात आणि त्या उत्तम ज्ञानाद्वारे त्याची उपासना करतात, त्याप्रमाणे सर्वांनी देखील त्या परमेश्वराला उपासनीय वा सेवनीय जाणावे. ज्ञानाविना ईश्वरोपासना करणे, कदापि शक्य नाही, कारण की ज्ञान-विज्ञान हीच त्यासाठी सीमा वा साधन आहे ॥41॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The learned as seers, verily dilate upon God, the Creator of the Vedas, the Embodiment of purity and effulgence ; for the good of humanity. May we realise that God. We accept thee for the control of highly active breath, through yoga and laws of austerity. Thy universal pervasion through the union of cause and effect is an unsurpassed authority. We accept Thee as the Giver of resplendent knowledge.
Meaning
Just as the rays of the sun carry the light of the sun for the world to see the sun, surely so the lights of creation and the eyes of the seers reveal the light of the Lord Creator, refulgent and omniscient of all that is born, for the world to see. Lord of the universe, you are acceptable, and perceivable through the discipline of yama and niyama and the inner eye, for the realisation of your glory and universal presence. This universe is your home of presence and we dedicate ourselves to you for the attainment of your glory and the Light of Life.
Translation
The banners of glory speak high of God, who knows all that lives, so that all may look at Him. (1) O devotional bliss, you have been duly accepted. You to the sun for gaining гаdіапсе. (2) This is your abode. You to the sun for radiance. (3)
Notes
See notes VII. 41.
बंगाली (1)
विषय
অথেশ্বরপক্ষে গৃহস্থকর্ম্মাহ ॥
এখন ঈশ্বরপক্ষে গৃহস্থের কর্ম্মের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- (জাতবেদসম্) যিনি উৎপন্ন পদার্থকে জানেন বা প্রাপ্ত করান অথবা বেদ এবং সংসারের পদার্থ যাহা হইতে উৎপন্ন হইয়াছে, (দেবম্) শুদ্ধস্বরূপ জগদীশ্বর যাহাকে (বিশ্বায়) সংসারের উপকারের জন্য (দৃশে) জ্ঞানচক্ষু দ্বারা দেখিতে (কেতবঃ) কিরণতুল্য সর্বাংশে প্রকাশমান বিদ্বান্ (উত) (বহন্তি) নিজ উৎকর্ষ সহ বাদানুবাদ করিয়া ব্যাখ্যান করেন । (উ) তর্ক-বিতর্ক সহ (ত্যম্) সেই জগদীশ্বরকে আমরা প্রাপ্ত হই । হে জগদীশ্বর ! যাহা আমরা (ভ্রাজায়) প্রকাশমান অর্থাৎ অত্যন্ত উৎসাহ ও পুরুষকার যুক্ত (সূর্য়্যায়) প্রাণ হেতু (উপয়ামগৃহীতঃ) যমনিয়মাদি, যোগাভ্যাস, উপাসনাদি সাধন দ্বারা স্বীকার করিয়াছি সেই সব (ত্বা) আপনাকে উক্ত কামনার জন্য সকল লোকেরা স্বীকার করুন এবং হে ঈশ্বর ! যে (তে) আপনার (এষঃ) এই কার্য্য ও কারণের ব্যাপ্তি দ্বারা এক অনুমান হওয়া (য়োনিঃ) অনুপম প্রমাণ সেই (ত্বা) আপনাকে (ভ্রাজায়) প্রকাশমান (সূর্য়্যায়) জ্ঞানরূপী সূর্য্যকে পাইবার জন্য একটা কারণ জানেন ॥ ৪১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যেমন বেদবেত্তা বিদ্বান্গণ বেদানুকূল মার্গ দ্বারা পরমেশ্বরকে জানিয়া উত্তম জ্ঞান সহ তাহার সেবন করেন সেইরূপ সেই জগদীশ্বর সকলের উপাসনীয় অর্থাৎ সেবন করিবার যোগ্য, সেইরূপ জ্ঞান বিনা ঈশ্বরের উপাসনা কখনও হইতে পারেনা কেননা বিজ্ঞানই তাহার অবধি ॥ ৪১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
উদু॒ ত্যং জা॒তবে॑দসং দে॒বং ব॑হন্তি কে॒তবঃ॑ । দৃ॒শে বিশ্বা॑য়॒ সূর্য়॑ম্ । উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতোऽসি॒ সূর্য়া॑য় ত্বা ভ্রা॒জায়ৈ॒ষ তে॒ য়োনিঃ॒ সূর্য়া॑য় ত্বা ভ্রা॒জায়॑ ॥ ৪১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
উদু ত্যমিত্যস্য প্রস্কণ্ব ঋষিঃ । সূর্য়্যো দেবতা । পূর্বস্য নিচৃদার্ষী । উপয়ামেত্যস্য স্বরাডার্ষী গায়ত্রী চ ছন্দঃ । ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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