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यजुर्वेद अध्याय - 8

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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 54
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - परमेष्ठीप्रजापतिर्देवता छन्दः - निचृत् ब्राह्मी उष्णिक्, स्वरः - ऋषभः
    3

    प॒र॒मे॒ष्ठ्यभिधी॑तः प्रजाप॑तिर्वा॒चि व्याहृ॑ताया॒मन्धो॒ऽअच्छे॑तः। सवि॒ता स॒न्यां वि॒श्वक॑र्मा दी॒क्षायां॑ पू॒षा सो॑म॒क्रय॑ण्याम्॥५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒र॒मे॒ष्ठी। प॒र॒मे॒स्थीति॑ परमे॒ऽस्थी। अ॒भिधी॑त॒ इत्य॒भिऽधी॑तः। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। वा॒चि। व्याहृ॑ताया॒मिति॑ विऽआहृ॑तायाम्। अन्धः॑। अच्छे॑त॒ इत्यच्छ॑ऽइतः। स॒वि॒ता। स॒न्याम्। वि॒श्वक॒र्म्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्मा। दी॒क्षाया॑म्। पू॒षा। सो॒म॒क्रय॑ण्या॒मिति॑ सोम॒ऽक्रय॑ण्याम् ॥५४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परमेष्ठ्यभिधीतः प्रजापतिर्वाचि व्याहृतायामन्धो अच्छेतः सविता सन्याँविश्वकर्मा दीक्षायाम्पूषा सोमक्रयण्यामिन्द्रश्च॥


    स्वर रहित पद पाठ

    परमेष्ठी। परमेस्थीति परमेऽस्थी। अभिधीत इत्यभिऽधीतः। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। वाचि। व्याहृतायामिति विऽआहृतायाम्। अन्धः। अच्छेत इत्यच्छऽइतः। सविता। सन्याम्। विश्वकर्म्मेति विश्वऽकर्म्मा। दीक्षायाम्। पूषा। सोमक्रयण्यामिति सोमऽक्रयण्याम्॥५४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 54
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनर्गार्हस्थ्यकर्म्माह॥

    अन्वयः

    हे गृहस्था! युष्माभिर्यदि व्याहृतायां वाचि परमेष्ठी प्रजापतिरच्छेतो विश्वकर्मा दीक्षायां सोमक्रयण्यां पूषा सन्यां चाभिधीतोऽन्धश्च प्राप्तम्, तर्हि सततं सुखिनः स्युः॥५४॥

    पदार्थः

    (परमेष्ठी) परमे प्रकृष्टे स्वरूपे तिष्ठतीति (अभिधीतः) निश्चितः (प्रजापतिः) प्रजायाः स्वामी (वाचि) वेदवाण्याम् (व्याहृतायाम्) उपदिष्टायां सत्याम् (अन्धः) अद्यते यत्तदन्धोऽन्नम्। अदेर्नुम् धौ च। (उणा॰४।२०६) अनेनादधातोरसुनि नुम् धश्च। अन्ध इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰२।७) उपलक्षणं चान्येषां पदार्थानाम् (अच्छेतः) अच्छं निर्मलं स्वरूपमितः प्राप्तः (सविता) जगदुत्पादकः (सन्याम्) सत्यं नीयते यया तस्याम् (विश्वकर्म्मा) सर्वोत्तमकर्म्मा सभापतिः (दीक्षायाम्) नियमधारणारम्भे (पूषा) पोषको वैद्यः (सोमक्रयण्याम्) सोमाद्योषधीनां ग्रहणे। अयं मन्त्रः (शत॰ १२। ६। १। १-८) व्याख्यातः॥५४॥

    भावार्थः

    यदीश्वरो वेदविद्यायाः स्वस्य जीवानां जगतश्च गुणकर्मस्वभावान् न प्रकाशयेत्, तर्हि कस्यापि मनुष्यस्य विद्यैतेषां विज्ञानं च न स्यात्, एताभ्यां विना कुतः सततं सुखं च॥५४॥

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    विषयः

    पुनर्गार्हस्थ्यकर्म्माह॥

    सपदार्थान्वयः

    हे गृहस्थाः । युष्माभिर्यदि व्याहृतायाम् उपदिष्टायां सत्वां वाचि वेदवाण्यां परमेष्ठी परमे=प्रकृष्टे स्वरूपं तिष्ठतीति प्रजापति: प्रजायाः स्वामी, अच्छतेः अच्छं=निर्मलं स्वरूपमित:=प्राप्तः विश्वकर्म्मा सर्वोत्तमकर्म्मा सभापतिः दीक्षायां नियमधारणारम्भे, सोमक्रयण्यां सोमाद्योषधीनां ग्रहणेपूषा पोषको वैद्यः, सविता जगदुत्पादकः सन्यां सत्यं नीयते यया तस्यां चाभिधीतः निश्चितःअन्धः अद्यते यत्तदन्धः=अन्नं चप्राप्तं तर्हि सततं सुखिनः स्युः ॥८ । ५४॥ [हे गृहस्थाः! युष्माभिर्यदि व्याहृतायां वाचि प्रजापति....अभिधीतोऽन्नं च प्राप्तं तर्हि सततं सुखिनः स्युः]

    पदार्थः

    (परमेष्ठी) परमे=प्रकृष्टे स्वरूपे तिष्ठतीति (अभिधीतः) निश्चितः (प्रजापतिः) प्रजाया: स्वामी (वाचि) वेदवाण्याम्(व्याहृतायाम्) उपदिष्टायां सत्याम्(अन्धः) अद्यते यत्तदन्धोऽन्नम्।अदेर्नुम्-धौ च ॥ उ० ४। २०६ ॥ अनेनादुधातोरसुनि नुम् धश्च । अन्ध इत्यन्नना० ॥ निघं० २।७॥ उपलक्षणं चान्येषां पदार्थानाम्(अच्छेतः) अच्छं=निर्मलं स्वरूपमितः=प्राप्तः (सविता) जगदुत्पादक: (सन्याम्) सत्यं नीयते यया तस्याम् (विश्वकर्मा ) सर्वोत्तमकर्म्मा सभापतिः (दीक्षायाम्) नियमधारणारम्भे (पूषा) पोषको वैद्यः (सोमक्रयण्याम्) सोमाद्योषधीनां ग्रहणे ॥ अयम्मन्त्रः शत० १२ । ६। १। १-८ व्याख्यातः ॥ ५४॥

    भावार्थः

    यदीश्वरो वेदविद्यायाः, स्वस्य, जीवानां, जगतश्च गुणकर्मस्वभावान् न प्रकाशयेत्तर्हि कस्यापि मनुष्यस्य विद्यैतेषां विज्ञानं च न स्यात्, एताभ्यां विना कुतः सततं सुखं च ॥ ८ । ५४ ॥

    विशेषः

    वसिष्ठः। परमेष्ठी प्रजापति:=उत्कृष्टस्थानी गृहस्थः सभापतिश्च। साम्न्युष्णिक् । ऋषभः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी गृहस्थ का कर्म्म अगले मन्त्र में कहा हैं॥

    पदार्थ

    हे गृहस्थो! तुम न यदि (व्याहृतायाम्) उच्चरित उपदृष्टि की हुई (वाचि) वेदवाणी में (परमेष्ठी) परमान्दस्वरूप में स्थित (प्रजापतिः) समस्त प्रजा के स्वामी को (अच्छेतः) अच्छे प्रकार प्राप्त (विश्वकर्मा) सब विद्या और कर्म्मों को जानने वाले सर्वथा श्रेष्ठ सभापति को (दीक्षायाम्) सभा के नियमों के धारण में (सोमक्रयण्याम्) ऐश्वर्य ग्रहण करने में (पूषा) सब को पुष्ट करनेहारे उत्तम वैद्य को और (सन्याम्) जिससे सनातन सत्य प्राप्त हो, उसमें (सविता) सब जगत् का उत्पादक (अभिधीतः) सुविचार से धारण किया (अन्धः) उत्तम सुसंस्कृत अन्न का सेवन किया तो सदा सुखी हों॥५४॥

    भावार्थ

    जो ईश्वर वेदविद्या से अपने सांसारिक जीवों और जगत् के गुण कर्म्म स्वभावों को प्रकाशित न करता तो किसी मनुष्य को विद्या और इन का ज्ञान न होता और विद्या वा उक्त पदार्थों के ज्ञान के विना निरन्तर सुख क्योंकर हो सकता है॥५४॥

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    विषय

    परमेष्ठी-पूषा

    पदार्थ

    गत मन्त्र के ऋषि ‘देवाः’ थे, वे सब देवों को अपने अनुकूल बनाकर उत्तम निवासवाले बनते हैं और इसी कारण ‘वसिष्ठ’ कहलाते हैं। वसुओं में सर्वाधिक वसु। ये अपनी इन्द्रियों, मन व बुद्धि पर पूर्ण प्रभुत्व के कारण ‘वशिष्ठ’ भी कहलाते हैं—सर्वोत्तम वशी। 

    १. ( परमेष्ठी ) = ये अपने जीवन को उत्तम बनाते हुए परम स्थान पर पहुँचने का प्रयत्न करते हैं। 

    २. ये ( अभिधीतः ) = [ अभि = अन्दर-बाहर दोनों ओर, धीतम् = ध्यान ] अन्दर-बाहर दोनों ओर, क्या सृष्टि में और क्या शरीर में, ये उस प्रभु की महिमा का ही ध्यान करते हैं। शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग की रचना में, हिमाच्छदित पर्वतों, समुद्रों व पृथिवी के वनों व रेगिस्तानों—सभी में प्रभु की महिमा का दर्शन करते हैं। इस प्रकार अन्दर-बाहर प्रभु-महिमा को देखते हुए ये व्यक्ति पापों से ऊपर उठकर ‘परमे-ष्ठी’ बन जाते हैं। 

    ३. ( वाचि व्याहृतायाम् ) = वेदवाणी का अध्ययन करने पर ( प्रजापतिः ) = ये प्रजाओं के रक्षक बनते हैं। घरों में उत्तम सन्तानों का निर्माण करते हैं तो राष्ट्र के अधिकारी बनकर सारी प्रजा को अच्छा बनाने का प्रयत्न करते हैं। 

    ४. ( अच्छ इतः ) = उस प्रभु की ओर गया हुआ व्यक्ति ( अन्धः ) = [ अदृक् ] संसार की वस्तुओं को फिर नहीं देखता, इन वस्तुओं के प्रति उसकी ‘रति’ नष्ट हो जाती है, ब्रह्ममार्ग पर चलनेवाले के लिए सांसारिक आनन्द तुच्छ हो जाते हैं। 

    ५. ( सन्याम् ) = [ संभक्तौ ] सम्यक् यज्ञ द्वारा बाँटकर खाने से ( सविता ) = [ षु = ऐश्वर्य ] मनुष्य ऐश्वर्यशाली बनता है। देने से धन बढ़ता ही है—दक्षिणां दुहते सप्तमातरम् [ ऋ० ]’ देने से धन सप्तगुणित हो जाता है। 

    ६. ( दीक्षायाम् ) = व्रत ग्रहण करने पर मनुष्य ( विश्वकर्मा ) = देवशिल्पी—निर्माणात्मक कार्यों को कुशलता से करनेवाला बनता है। व्रती पुरुष की वृत्ति तोड़-फोड़ की न होकर निर्माण की होती है। 

    ७. ( सोमक्रयण्याम् ) = सोम का क्रयण, अर्थात् ‘द्रव्य-विनिमय’ अन्य द्रव्य देकर सोम लेने पर ( पूषा ) = मनुष्य पोषण की देवता बन जाता है, अर्थात् वह सब दृष्टिकोणों से पुष्ट होता है। सब द्रव्यों से वह सोम का विनिमय करने के लिए उद्यत होता है तो यह सोम उसके शरीर, मन व मस्तिष्क सभी को पुष्ट करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम मन्त्रवर्णित ध्यान आदि उपायों द्वारा ‘परमेष्ठी’ बनने का प्रयत्न करें।

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    विषय

    प्रजापति के कर्तव्य भेद से भिन्न २ रूप । पक्षान्तर में सोमयाग का वर्णन ।

    भावार्थ

    यज्ञमय प्रजापति या सोम के या राजा के कर्तव्यों के भिन्न २ रूप | ( सोमः अभिधीतः ) साक्षात् संकल्प किया जाय या मन से विचारा जाय तो वह वस्तुत: ( परमेष्ठी ) परम = सर्वोच्चस्थान पर विराजने वाला है । ( २ ) ( वाचि व्याहृतायाम्) उच्चारण की जानें- वाली वाणी या आज्ञा करने में वह ( प्रजापतिः ) ' प्रजापति प्रजा का स्वामी है । ( ३ ) ( अच्छेत अन्धः ) साक्षात् देखने या प्राप्त करने पर ' अन्धः' अर्थात् अन्न के समान प्राणप्रद है । ( ४ ) वह ( सन्यां प्रजाओं को ऐश्वर्य बांटने के कार्य में राजा स्वयं ( सविता ) सूर्य के  समान सबको समानरूप से प्रदान करता है । ( २ ) ( दीक्षायां विश्वकर्मा) दीक्षा अर्थात् व्रत धारण करने के अवसर पर वह विश्वकर्मा है वह समस्त कार्यों को सुचारू रूप से करने में समर्थ हो । ( ६ ) ( सोमक्रयस्याम् ) सोमक्रयणी अर्थात् सोम राजा को शासन के कार्य के लिये समस्त पृथिवी को समक्ष रखकर प्राप्त करने के अवसर पर वह साक्षात् ( पूषा ) 'पूषा' सबका पोषक है ॥ 
    सोमयाग के पक्ष में --यजमान के संकल्प करने पर सोम परमेष्टी है। मुंह से कह देने पर कि मैं सोमयाग करूंगा वह सोम 'प्रजापति' है । सोम को आंखों से देखले तो वह सोम 'अन्धस्' है । सोम को विभक्त करने पर वह 'सविता' है। दीक्षा लेने के अवसर पर 'विश्वकर्मा' है । सोमक्रयणी दृष्टि के अवसर पर वह 'पूषा' है । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः । प्रजापतिर्देवता | साम्युष्णिक् । ऋषभः ॥ 

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    विषय

    गृहस्थ कर्म का फिर उपदेश किया है ॥

    भाषार्थ

    हे गृहस्थो ! तुम लोगों ने यदि (व्याहृतायाम्) उपदेश की हुई (वाचि) वेदवाणी में (परमेष्ठी) उत्तम स्वरूप में विराजमान (प्रजापतिः) प्रजा के स्वामी को, (अच्छेतः) निर्मल स्वरूप को प्राप्त (विश्वकर्मा) सबसे उत्तम कर्म करने वाले सभापति को (दीक्षायाम्) दीक्षा अर्थात् नियम-धारण के आदि में, (सोमक्रयण्याम्) सोम आदि औषधियों के ग्रहण करने में (पूषा) पोषक वैद्य को और (सविता) जगत् के उत्पादक को (सन्याम्) सत्य की प्राप्ति में (अभिधीतः) निश्चित किया है और (अन्धा:) अन्न को प्राप्त किया है तो तुम लोग सुखी रहोगे ॥ ८ । ५४ ॥

    भावार्थ

    यदि ईश्वर वेदविद्या, अपने, जीवों और जगत् के गुण, कर्म, स्वभाव को प्रकाशित न करे तो किसी भी मनुष्य को विद्या और इनका ज्ञान नहीं हो सकता, और इनके बिना सतत सुख कहाँ ? ।। ८ । ५४ ।।

    प्रमाणार्थ

    (अन्धः) यह शब्द 'अदेर्नुम्-धौ च’ उणा० (४।२०६) इस सूत्र से 'अद् धातु से 'असुन्' प्रत्यय के परे रहते 'नुम्' का आगम और धकार का आदेश करने पर सिद्ध होता है।'अन्ध:' शब्द निघं० (२ । ७) में अन्न-नामों में पढ़ा है। यह शब्द अन्य पदार्थों का उपलक्षण है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (१२ । ६ । १ । १-८) में की गई है ॥ ८ । ५४ ॥

    भाष्यसार

    गृहस्थ के कर्म--ईश्वर उपदेश करता है कि हे गृहस्थो ! तुम लोग मुझ से उपदेश की गई वेदवाणी की प्राप्ति में परमेष्ठी प्रजापति को निश्चित करो, दीक्षा अर्थात् नियमों को धारण करने से पहले निर्मल स्वरूप को प्राप्त हुये, सबसे उत्तम कर्मों वाले सभापति को निश्चित करो, सोम आदि औषधियों को ग्रहण करते समय पूषा अर्थात् वैद्य को निश्चित करो, सत्य की प्राप्ति में सविता अर्थात् जगत् के उत्पादक ईश्वर को निश्चित करो । परमेष्ठी प्रजापति ने वेदविद्या का ऋषियों के हृदय में प्रकाश किया है । जगत् की उत्पत्ति करना आदि अपने गुण, कर्म स्वभावों को भी उसने बतलाया है। सभापति, वैद्य आदि जीवों के गुण, कर्म, स्वभावों को भी उसने प्रकाशित किया है । औषधि आदि कार्य जगत् के गुणों का उसी ने उपदेश किया है। क्योंकि परमेश्वर के वेद उपदेश के बिना कोई भी मनुष्य विद्यावान् नहीं हो सकता और न हीईश्वर, जीव और जगत् के गुण, कर्म, स्वभाव को जान सकता है। विद्या और विज्ञान के बिना सुख कहाँ से मिल सकता है ।। ८ । ५४ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ईश्वराने वेदांद्वारे स्वतःचे, जगातील जीवांचे व जगाचे गुण, कर्म, स्वभाव प्रकट केले नसते तर कोणत्याही मनुष्याला विद्या व वरील गोष्टींचे ज्ञान झाले नसते आणि विद्या व वरील पदार्थांच्या ज्ञानाखेरीज निरन्तर सुख कधी प्राप्त झाले असते का?

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    विषय

    पुनश्च पुढील मंत्रात गढहस्थकर्माविषयीच कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (विद्वानाचे वचन) हे गृहस्थजनहो, तुम्ही (व्याहतायाम्) उच्चारित वा उपदिष्ट अशा (वाचि) वेदवाणीमध्ये (परमेष्ठी) परमानन्दमय आणि (प्रजापति:) समस्त प्रजांचा स्वामी त्या ईश्वरास (अच्छेत:) उत्तमरीत्या प्राप्त करू शकता. (वेदाध्ययनाने ईश्वरास जाणू शकता) तसेच (विश्वकर्मा) सर्व विद्या आणि व्यवहारांमध्ये कुशल अशा सर्वप्रकारे श्रेष्ठ सभापतीचे (दीक्षायाम्) सभेच्या नियम-उपनियमाप्रमाणे (सोमक्रयण्याम्) ऐश्वर्य प्राप्त करण्यासाठी सहकार्य घेऊ शकता. त्याचप्रमाणे (पूषा) शक्तीदायक औषधी आदीद्वारे सर्वांचे पोषण करणार्‍या उत्तम वैद्याला प्राप्त करू शकता. तसेच तुम्ही जर सनातन सत्य जाणण्यासाठी (सविता) सकळ जगदुत्पादक परमेश्वराला परमेश्वराला (अभिधीत:) विचारपूर्वक धारण केले, आणि (अन्ध:) उत्तम सुसंस्कारित अन्नाचे सेवन केले, तर तुम्ही सदा सुखी राहाल. ॥54॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जर ईश्वराने वेदविद्या देऊन सांसारिक जीवांना आणि गुण, कर्म, स्वभाव देऊन जगाला उपकृत केले नसते, तर कोणाही मनुष्याला विद्या आणि गुण कर्मादींचे ज्ञान झाले नसते. आणि विद्या व इतर पदार्थांशिवाय निरंतर सुखप्राप्ती कशी जरें होऊ शकेल? ॥54॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O married people; if ye truly realize God, the Lord of mankind, who rests in the fullness of joy, as mentioned in the Vedas, revealed by Him; if ye understand the head of the State, who observes the laws of the land; if ye follow the physician, who effects cure through medicines, and take pure food; ye will ever remain happy.

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    Meaning

    (What is the secret of happiness?) Prajapati, father of His creatures, self-existent in eternal bliss, and self- revealed in the divine voice of the Veda, worshipped in meditation, good food honestly and amply obtained, Savita, creator of life realized in truth, Vishwakarma, maker of the world and lord giver of science and technology, at heart, through all our commitments to life and dedication to duty, and Pusha, giver of health and vitality thanked in herbal treatment, all this with you, and happiness is assured.

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    Translation

    O blissful Lord, you are paramesthi (seated in the highest state) when thought of. (1) You are prajapati (lord of the creatures) when expressed in words(2) You are andhas (food) when obtained. (3) You are savita (the inspirer) when being distributed. (4) You are visvakarma (the supreme mechanic) when consecrated. (5) You аге pusa (the nourisher) when bartered. (6)

    Notes

    Abhidhitah, when thought of. Vachi vyahrtayam, expressed in words; uttered in speech. Acchetah, अच्छा इत: आभिगुख्येन प्राप्त:, obtained. Sanyam, at the distribution. Somakrayanyam, at the bartering of Soma

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্গার্হস্থ্যকর্ম্মাহ ॥
    পুনঃ গৃহস্থের কর্ম্ম পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইযাছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে গৃহস্থগণ । তোমরা যদি (ব্যাহৃতায়াম্) উচ্চারিত উপদিষ্ট (বাচি) বেদবাণীতে (পরমেষ্ঠী) পরমানন্দ স্বরূপে স্থিত (প্রজাপতিঃ) সমস্ত প্রজার স্বামীকে (অচ্ছেতঃ) ভাল প্রকার প্রাপ্ত (বিশ্বকর্ম্মা) সকল বিদ্যা ও কর্ম্মের জ্ঞাতা সর্বথা শ্রেষ্ঠ সভাপতিকে (দীক্ষায়াম্) সভার নিয়মের ধারণে (সোমক্রয়ণ্যাম্) ঐশ্বর্য্য গ্রহণ করিতে (পূষা) সকলকে পুষ্টকারী উত্তম বৈদ্যকে এবং (সন্যাম্) যদ্দ্বারা সনাতন সত্য প্রাপ্ত হয় তন্মধ্যে (সবিতা) সকল জগতের উৎপাদক (অভিধীতঃ) সুবিচার পূর্বক ধারণ করা (অন্ধঃ) উত্তম সুসংস্কৃত অন্নের সেবন করিয়া থাক তবে সর্বদা সুখী হও ॥ ৫৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- ঈশ্বর বেদ বিদ্যা দ্বারা তাঁর সাংসারিক জীবও জগতের গুণ-কর্ম-স্বভাবকে যদি প্রকাশিত না করিতেন তাহা হইলে কোন মনুষ্যের বিদ্যা ও তাহার জ্ঞান হইত না এবং বিদ্যা বা উক্ত পদার্থের জ্ঞান ব্যতীত নিরন্তর সুখ কী করিয়া হইতে পারে? ॥ ৫৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    প॒র॒মে॒ষ্ঠ্য᳕ভিধী॑তঃ প্র॒জাপ॑তির্বা॒চি ব্যাহৃ॑তায়া॒মন্ধো॒ऽঅচ্ছে॑তঃ সবি॒তা স॒ন্যাং বি॒শ্বক॑র্মা দী॒ক্ষায়াং॑ পূ॒ষা সো॑ম॒ক্রয়॑ণ্যাম্ ॥ ৫৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    পরমেষ্ঠীত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । পরমেষ্ঠী প্রজাপতির্দেবতা । নিচৃদ্ ব্রাহ্ম্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ । ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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