अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - आसुर्नुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
1
ब्रह्म॑ पदवा॒यं ब्रा॑ह्म॒णोऽधि॑पतिः ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑ । प॒द॒ऽवा॒यम् । ब्रा॒ह्म॒ण: । अधि॑ऽपति: ॥५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्म पदवायं ब्राह्मणोऽधिपतिः ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्म । पदऽवायम् । ब्राह्मण: । अधिऽपति: ॥५.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ
(ब्रह्म) वेद [ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद] [जिस वेदवाणी का] (पदवायम्) प्राप्तियोग्य ज्ञान और (ब्राह्मणः) ब्रह्म [ब्रह्माण्ड का जाननेवाला] परमेश्वर [जिसका] (अधिपतिः) अधिपति [परम स्वामी] है ॥४॥
भावार्थ
जिस वेदवाणी की प्रवृत्ति से संसार में सब प्राणी आनन्द पाते हैं, उस वेदवाणी को जो कोई अन्यायी राजा प्रचार से रोकता है, उसके राज्य में मूर्खता फैलती है और वह धर्महीन राजा संसार में निर्बल और निर्धन हो जाता है ॥१-६॥
टिप्पणी
४−(ब्रह्म) ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यो वेदः (पदवायम्) पद गतौ स्थैर्ये च−अच्+वा गतिगन्धनयोः−घञ् युक् च। प्राप्तव्यं ज्ञानम् (ब्राह्मणः) ब्रह्म−अण्। ब्रह्म ब्रह्माण्डं सर्वं जगत् वेत्ति यः। सर्वसंसारज्ञः परमेश्वरः (अधिपतिः) अधिराजः ॥
विषय
स्वधा...श्रद्धा...दीक्षा
पदार्थ
१. यह ब्रह्मगवी [वेदधेनु] (स्वधया परिहिता) = [स्व-धा] आत्मधारणशक्ति से परिहित है समन्तात् धारण की गई है अथवा 'पितृभ्यः स्वधा' पितरों का आदर करने से यह प्राप्त होती है। (श्रद्धया पर्यूढा) = श्रद्धा से यह वहन की गई है। बिना श्रद्धा के इस वेदज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। (दीक्षया गुप्ताः) = व्रतग्रहण से यह रक्षित होती है, अर्थात् व्रतधारण करनेवाला व्यक्ति ही इसको अपने में सुरक्षित कर पाता है। (यज्ञे प्रतिष्ठिता) = यह यज्ञ में प्रतिष्ठित है, अर्थात् यज्ञमय जीवनवाला व्यक्ति इस ब्रह्मगवी का आदर कर रहा होता है। (लोको निधनम्) = यह संसार इसका घर है [Residence], अर्थात् इस वेदवाणी का प्रयोजन इस संसार-गृह को सुन्दर बनाना ही है। २. इस ब्रह्मगवी से दिया जानेवाला (ब्रह्म) = ज्ञान (पदवायम्) = [पद्यते मुनिभिर्यस्मात् तस्मात् पद उदाहतः] उस प्रभु को प्राप्त करनेवाला है [वा गती] (ब्राह्मणः) = एक ब्रह्मचारी (अधिपति:) = इस ज्ञान का अधिपति बनता है।
भावार्थ
इस वेदवाणी की प्राप्ति के लिए 'स्वधा, श्रद्धा व दीक्षा' की आवश्यकता है। यज्ञमय जीवन से इसकी प्रतिष्ठा होती है। यह संसार ही इसका घर है-यह घर को सुन्दर बनाती है। इससे दिया गया ज्ञान हमें ब्रह्म को प्राप्त कराता है। हम इसके अधिपति 'ब्राह्मण' बनें|
भाषार्थ
(ब्रह्म) परमेश्वर (पदवायम्) वेदवाणी में पदों का सन्तान अर्थात् फैलाव करता है, और (ब्राह्मणः) ब्रह्मज्ञ१ तथा वेदज्ञ व्यक्ति (अधिपतिः) वेदवाणी का अधिष्ठाता तथा रक्षक होता है।
टिप्पणी
[पदवायम्=पदानि वयति संतनोति, इति पदवायम्। "ब्रह्म”१ पद की दृष्टि से नपुंसकलिङ्ग में “पदवायम्" प्रयुक्त हुआ है। मन्त्रों में पदों का सन्तान परमेश्वर ने किया है। यथा-पदप्रकृतीनि सर्वचरणानां पार्षदानि" (निरु० १।६।७)। ऋ० १०।७१।३ में "पदवीयम् आयन्" पाठ के साथ पदवायम् की तुलना। पदवायम् का विग्रह "तन्तुवाय" पद के सदृश है। इस सूक्त में ब्रह्मगवी का अर्थ है "ब्रह्म की वाणी", न कि ब्राह्मण का गौ। ब्राह्मण२ बह्मगवी का रक्षक है]। [१. ब्रह्म= परमेश्वर तथा वेद। "ब्रह्म=ईश्वरो, वेदः, तत्त्वम् तपो वा" (उपा० ४।१४७; महर्षि दयानन्द)। २. यथा "विद्या ह वै बाह्मणमादगाम गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि" (निरु० २।१।३), अर्थात् वेदविद्या ब्राह्मण के शरण में आई कि तू मेरी रक्षा कर, मैं तेरा सुखों का खजाना है। ब्राह्मण का अभिप्राय है ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ व्यक्ति।]
विषय
ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ
(ब्रहा) ब्रह्म, वेद उसके (पद-वायम्) पद = स्वरूप को दर्शाने वाला है और (ब्राह्मणः) ब्राह्मण, ब्रह्मज्ञ, वेदज्ञ उसका (अधिपतिः) स्वामी है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वाचार्य ऋषिः। सप्त पर्यायसूक्तानि। ब्रह्मगवी देवता। तत्र प्रथमः पर्यायः। १, ६ प्राज्यापत्याऽनुष्टुप, २ भुरिक् साम्नी अनुष्टुप्, ३ चतुष्पदा स्वराड् उष्णिक्, ४ आसुरी अनुष्टुप्, ५ साम्नी पंक्तिः। षडृचं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Cow
Meaning
And a prelude to Divinity, Brahma, such is the Divine Cow, universal light and message of Omniscience, of which the Brahmana, man of absolute dedication to Brahma, is the trustee.
Translation
Brahman her gùide, the Brahman her over-lord:
Translation
The Brahma Vedic speech and knowledge is the collection of Padas, words and Brahmana, the master of vedic speech is the master and guide.
Translation
Knowledge is its guide, God, its Lord.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(ब्रह्म) ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यो वेदः (पदवायम्) पद गतौ स्थैर्ये च−अच्+वा गतिगन्धनयोः−घञ् युक् च। प्राप्तव्यं ज्ञानम् (ब्राह्मणः) ब्रह्म−अण्। ब्रह्म ब्रह्माण्डं सर्वं जगत् वेत्ति यः। सर्वसंसारज्ञः परमेश्वरः (अधिपतिः) अधिराजः ॥
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