अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 45
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - आर्ची बृहती
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
1
अ॑वा॒स्तुमे॑न॒मस्व॑ग॒मप्र॑जसं करोत्यपरापर॒णो भ॑वति क्षी॒यते॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒वा॒स्तुम् । ए॒न॒म् । अस्व॑गम् । अप्र॑जसम् । क॒रो॒ति॒ । अ॒प॒रा॒ऽप॒र॒ण: । भ॒व॒ति॒ । क्षी॒यते॑ ॥९.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अवास्तुमेनमस्वगमप्रजसं करोत्यपरापरणो भवति क्षीयते ॥
स्वर रहित पद पाठअवास्तुम् । एनम् । अस्वगम् । अप्रजसम् । करोति । अपराऽपरण: । भवति । क्षीयते ॥९.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ
वह [वेदवाणी] (एनम्) उस [क्षत्रिय] को (अवास्तुम्) विना घर का, (अस्वगम्) निर्धन और (अप्रजसम्) निर्वंशी (करोति) करती है, वह [मनुष्य] (अपरापरणः) प्राचीन और अर्वाचीन विना [पुराने और नवे पुरुष विना] (भवति) हो जाता है, और (क्षीयते) नाश को प्राप्त होता है ॥४५॥
भावार्थ
जो राजा विद्वान् ब्रह्मचारियों को सताकर वेदविद्या को रोकता है, वह अज्ञान बढ़ने से अपना सर्वस्व और वंश नाश करके आप भी नष्ट हो जाता है ॥४५, ४६॥ (अपरापरणः) के (अपरा−परणः) के पदपाठ के स्थान पर (अ+पर+अपर−नः) मानकर हम ने अर्थ किया है ॥
टिप्पणी
४५, ४६−(अवास्तुम्) अगृहम् (एनम्) क्षत्रियम् (अस्वगम्) म० ४०। निर्धनम् (अप्रजसम्) अ० ९।२।३। अप्रजा−असिच्। असन्तानम् (करोति) (अपरापरणः) नञ्+पर+अपर−नः। लोमादिपामादि०। पा० ५।२।१००। इति बाहुलकाद् न प्रत्ययो मत्वर्थे। परं चापरं च द्वयोः समाहारः परापरम्, न तद्यस्यास्तीति अपरापरणः। प्राचीनार्वाचीनपुरुषरहितः (भवति) (क्षीयते) क्षियति। नश्यति (यः) (एवम्) अनेन प्रकारेण (विदुषः) जानतः (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मचारिणः (क्षत्रियः) (गाम्) वेदवाणीम् (आदत्ते) गृह्णाति ॥
विषय
वंशविनाश
पदार्थ
१. पीड़ित की गई ब्रह्मगवी (अस्य पितबन्धु छिनत्ति) = पैतृक सम्बन्धों को छिन्न कर डालती है, (मातृबन्ध पराभावयति) = मातृपक्षवालों को भी पराभूत करती है। यह (ब्रह्मगवी) = वेदवाणी यदि (क्षत्रियेण) = क्षत्रिय से (अपुन: दीयमाना) = फिर वापस लौटाई न जाए तो यह (ब्रह्मज्यस्य) = ब्रह्मघाती के (विवाहान्) = विवाहों को व (सर्वान् ज्ञातीन् अपि) = सब रिश्तेदारों को भी (क्षापयति) = नष्ट कर देती है। २. (यः) = जो (क्षत्रियः) = क्षत्रिय (एवं विदुषः ब्रह्मणस्य) = इसप्रकार ज्ञानी ब्राह्मण की (गाम् आदते) = इस ब्रह्मगवी को छीन लेता है, वह (अपरापरणः भवति) = सहायक से रहित हो जाता है अथवा पुराणों व नयों से रहित हो जाता है-सब इसका साथ छोड़ जाते हैं और (क्षीयते) = यह नष्ट हो जाता है। यह छिन्ना ब्रह्मगवी (एनम्) = इसको (अवास्तुम्) = घर-बार से रहित, (अस्वगम्) = [अ स्व ग] निर्धन व (अप्रजसम्) = सन्तानरहित (करोति) = कर देती है।
भावार्थ
छिन्ना ब्रह्मगवी ब्रह्मज्य के सब वंश को ही समाप्त कर देती है।
भाषार्थ
इस क्षत्रिय राजा को (अवास्तुम्) घर से रहित, (अस्वगम्) सम्पत्ति से रहित, (अप्रजसम्) प्रजा तथा सन्तानों से रहित (करोति) गौ अर्थात् गो जाति कर देती है। (अपरापरणः) क्षत्रिय राजा किसी अपर व्यक्ति द्वारा भी पालन-पोषण से रहित (भवति) हो जाता है (क्षीयते) और क्षीण या नष्ट हो जाता है।
टिप्पणी
[अवास्तुम् =अ+ वास्तु (गृह)। अपरापरणः = अपर+अ+परणः (पॄ पालने); परणः=पॄ + युच् (औणादिक)]
विषय
ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो (एवम्) इस प्रकार (विदुषः) विद्वान् (बाह्यणस्य) ब्राह्मण की (गाम्) ‘गौ’ को (क्षत्रियः) क्षत्रिय (आदत्ते) ले लेता है, वह ब्रह्मगवी (एनम्) उस को (अवास्तुम्) मकान रहित, (अस्वगम्) घरबाररहित और (अप्रजसम्) प्रजारहित (करोति) कर डालती है। और वह (अपरापरणः भवति) दूसरे किसी अपने पालन करने वाले सहायक से भी रहित हो, निसहाय हो जाता है और (क्षीयते) नाश को प्राप्त हो जाता, उजड़ जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्देवता च पूर्वोक्ते। ३९ साम्नी पंक्ति:, ४० याजुषी अनुष्टुप्, ४१, ४६ भुरिक् साम्नी अनुष्टुप, ४२ आसुरी बृहती, ४३ साम्नी वृहती, ४४ पिपीलिकामध्याऽनुष्टुप्, ४५ आर्ची बृहती। अष्टर्चं पञ्चमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Cow
Meaning
Violated, the Divine Cow renders the violator homeless, destitute of all his self-possessions, void of kith and kin and even his progeny, alienated from support all round, so that ultimately he goes down self- extinguished.
Translation
Without abode, without home, without progeny, she makes him; he becomes without succession; ‘he is destroyed.
Translation
She makes him house-less, homeless and deprived of progeny and thus striped of posterity is extinguished.
Translation
It makes him homeless, shelterless, childless: he is extinguished without anybody to support him.
Footnote
It: Vedic knowledge. Him: The Kshatriya.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४५, ४६−(अवास्तुम्) अगृहम् (एनम्) क्षत्रियम् (अस्वगम्) म० ४०। निर्धनम् (अप्रजसम्) अ० ९।२।३। अप्रजा−असिच्। असन्तानम् (करोति) (अपरापरणः) नञ्+पर+अपर−नः। लोमादिपामादि०। पा० ५।२।१००। इति बाहुलकाद् न प्रत्ययो मत्वर्थे। परं चापरं च द्वयोः समाहारः परापरम्, न तद्यस्यास्तीति अपरापरणः। प्राचीनार्वाचीनपुरुषरहितः (भवति) (क्षीयते) क्षियति। नश्यति (यः) (एवम्) अनेन प्रकारेण (विदुषः) जानतः (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मचारिणः (क्षत्रियः) (गाम्) वेदवाणीम् (आदत्ते) गृह्णाति ॥
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