ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 11
ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च
देवता - वरुणः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
इ॒न्द्रा॒णीमा॒सु नारि॑षु सु॒भगा॑म॒हम॑श्रवम् । न॒ह्य॑स्या अप॒रं च॒न ज॒रसा॒ मर॑ते॒ पति॒र्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒न्द्रा॒णीम् । आ॒सु । नारि॑षु । सु॒ऽभगा॑म् । अ॒हम् । अ॒श्र॒व॒म् । न॒हि । अ॒स्याः॒ । अ॒प॒रम् । च॒न । ज॒रसा॑ । मर॑ते । पतिः॑ । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् । नह्यस्या अपरं चन जरसा मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राणीम् । आसु । नारिषु । सुऽभगाम् । अहम् । अश्रवम् । नहि । अस्याः । अपरम् । चन । जरसा । मरते । पतिः । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 11
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे इन्द्र-उत्तर ध्रुव ! मुझसे श्रेष्ठ सुभागवाली सुखप्रद द्रवीभूत प्रजननकर्मकुशल अन्य स्त्री नहीं है। अम्ब-प्रियभाषिणी ! जैसे तू चाहती है, वैसा ही हो सकता है, तेरे मुखादि अङ्ग मुझे हर्षित करते हैं, सुन्दरभुजा हाथ केश जङ्घावाली वीरपत्नी तू हमारे वृषाकपि-सूर्य को नष्ट करना चाहती है, यह पूछता हूँ। हे इन्द्र-उत्तरध्रुवपति ! यह आक्रमणशील मुझे अबला समझता है, मैं इन्द्रपत्नी ध्रुव की पत्नी ध्रुव द्वारा पालित वायुप्रवाह-वायुस्तर मेरे मित्र हैं, उनके द्वारा मैं परिक्रमा करती हूँ, पुरातन काल में जैसे पत्नी यज्ञसमारोह और संग्राम में पति के साथ होती है, वैसे ही मैं भी। अतः विश्व के चालन में मैं यह वीरपत्नी-तेरी पत्नी प्रशस्त कही जाती है। हे प्रिये इन्द्राणि ! मेरी पत्नी, मैं भी नारियों में तुझको अच्छी सुनता हूँ तथा मैं तेरा पति जरावस्था से नहीं मरता हूँ ॥६-११॥
भावार्थ
गृहस्थ में पति-पत्नी शुभावसर पर और संग्रामसमय साथ रहते हैं। ज्योतिर्विद्या में उत्तरध्रुव के आधार पर व्योमकक्षा रहती है, वह मरुत् स्तरों आकाशीय वातसूत्रों द्वारा गति करती है ॥६-११॥
विषय
स्त्री का सौभाग्य और उसकी प्रकृति से तुलना।
भावार्थ
(आसु नारिषु) इन नारियों अर्थात् जगत् प्रवर्त्तक पुरुष की समस्त शक्तियों में से (अहम्) मैं (इन्द्राणीम्) इन्द्र, सर्वैश्वर्यवान, तेजोमय प्रभु की सर्वेश्वरी, तेजोमय शक्ति को ही (सु-भगाम् अश्रवम्) सब से अधिक उत्तम ऐश्वर्य, सुखादि से युक्त सुनता हूं। (अपरं चन) और (अस्याः पतिः) इसका पालक पुरुष, (जरसा) सब पदार्थों को जीर्ण कर देने वाले काल से नहि मरते) नाश को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि (इन्द्रः) इन्द्र, वह सर्वैश्वर्यवान् प्रभु (विश्वस्मात् उत्तरः) सब से अधिक उत्तम है। (२) इसी प्रकार स्त्री द्वारा वरण किया पति ‘इन्द्र’ है, उसकी स्त्री ‘इन्द्राणी’ है। वह नारियों में सबसे श्रेष्ठ गुणों वाली सुनी जाय। उसका पति वृद्धता से पीड़ित न हो अर्थात्, युवा ही हो।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥
विषय
प्रकृति का अजर सौभाग्य
पदार्थ
[१] (इन्द्राणीम्) = इन्द्राणी को (आसु नारिषु) = इन नारियों में (अहम्) = मैं (सुभगाम्) = सबसे अधिक सौभाग्यवाली (अश्रवम्) = सुनता हूँ। क्योंकि (अस्याः) = इसका (पतिः) = स्वामी 'इन्द्र' (अपरं चन) = अन्य पतियों के समान (जरसा) = बुढ़ापे से (हि) = निश्चय पूर्वक (न मरते) = मृत्यु को प्राप्त नहीं हो जाता। इन्द्र अजरामर हैं, सो इनकी पत्नी 'इन्द्राणी' का सौभाग्य भी अजरामर बना रहता है। (विश्वस्मात् इन्द्रः उत्तर:) = इस अजरामरता के कारण प्रभु सबसे उत्कृष्ट हैं । [२] प्रभु 'इन्द्र' हैं, 'इन्द्राणी' प्रकृति है, यह प्रभु की पत्नी के समान है। प्रकृति का यह कितना सौभाग्य है कि जहाँ अन्य व्यक्तियों के जरा से समाप्त हो जाने के कारण अन्य नारियों का सौभाग्य सामयिक ही होता है, वहाँ प्रकृति का सौभाग्य 'अक्षुण' बना रहता है । इस प्रकृति को अपने इस सौभाग्य का गौरव अनुभव करना चाहिए ।
भावार्थ
भावार्थ - 'प्रकृति' का सौभाग्य पति प्रभु के अजर होने से सदा अजर बना रहता है।
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे इन्द्र ! उत्तरध्रुव ! मत्तः श्रेष्ठा सुभगा सुखप्रदा द्रवीभूता प्रजननकर्मकुशलान्यास्त्री नास्ति, अम्ब ! प्रियभाषिणी ! यथा त्वमिच्छसि तथैव भवितुमर्हति, तव मुखादीन्यङ्गानि मां हर्षयन्ति, हे सुन्दरभुजहस्तकेशजङ्घावति ! वीरपत्नि ! त्वमस्माकं वृषाकपिं किमर्थं हन्तुमिच्छसीति पृच्छामि। हे इन्द्रपते ! अयं शरारुराक्रमणशीलो मामबलां मन्यतेऽपि त्वहमिन्द्रपत्नी मरुतो वायुप्रवाहाः-मम सखायः सन्ति, वायुप्रवाहैः परिक्राम्यामि, पुराकालेऽपि यथा पत्नी यज्ञसम्मेलने सङ्ग्रामे च पत्या सह भवति तथा ह्यहमपि खल्वस्मि, अत एव विश्वस्य चालनेऽहमेषा वीरिणी तव पत्नी प्रशस्ता कथ्यते, इन्द्रवचनम्−हे प्रिये ! इन्द्राणि ! अहमपि नारीषु त्वामिन्द्राणीं सुभगां शृणोमि तथाऽस्यास्तवेन्द्राण्याः पतिरहं जरावस्थया न म्रिये ॥६-११॥
इंग्लिश (1)
Meaning
So have I heard of Indrani among the creative dames as the mother of glory. Never shall her lord, Indra, ever die of old age like others, men of mortal nature. Indra is supreme over all.
मराठी (1)
भावार्थ
पती-पत्नी हे गृहस्थाश्रमात शुभसमयी व युद्धाच्या समयी एकत्र राहतात. ज्योतिर्विद्येमध्ये उत्तर ध्रुवाच्या आधारे व्योमकक्षा असते. ती मरुत स्तर आकाशीय वातसूत्राद्वारे गती करते. ॥६-११॥
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