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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 16
    ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च देवता - वरुणः छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    न सेशे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा स॒क्थ्या॒३॒॑ कपृ॑त् । सेदी॑शे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । सः । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रम्ब॑ते । अ॒न्त॒रा । स॒क्थ्या॑ । कपृ॑त् । सः । इत् । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रो॒म॒शम् । नि॒ऽसे॒दुषः॑ । वि॒ऽजृम्भ॑ते । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या३ कपृत् । सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । सः । ईशे । यस्य । रम्बते । अन्तरा । सक्थ्या । कपृत् । सः । इत् । ईशे । यस्य । रोमशम् । निऽसेदुषः । विऽजृम्भते । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 16
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वृषभः-न तिग्मशृङ्गः) जैसे तीक्ष्ण शृङ्गवाला वृषभ-साँड (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहों के अन्दर बहुत शब्द करता है, तथा वैसे (इन्द्र) हे उत्तरध्रुव ! तू खगोल के पिण्डों में मानो अपना घोष करता है (ते मन्थः) तेरा मन्थन व्यापार पिण्डों को आन्दोलित करने का (हृदे शम्) हृदय के लिये कल्याणकारी हो (तं यं भावयुः-सुनोति) उस जिस पुत्र को आत्मभाव चाहनेवाली अपनानेवाली इन्द्राणी उत्पन्न करती है (न सः-ईशे) वह नहीं स्वामित्व करता है, न ही गृहस्थभाव को प्राप्त है (यस्य कपृत्) जिसका सुख देनेवाला अङ्ग (सक्थ्या-अन्तरा लम्बते) दोनों सांथलों जङ्घाओं के मध्य में लम्बित होता है (स-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थ कर्म पर अधिकार करता है (यस्य निषेदुषः) जिस निकट शयन करते हुए का (रोमशं विजृम्भते) रोमोंवाला अङ्ग विजृम्भन करता है-फड़कता है (न सः-ईशे) वह गृहस्थ कर्म पर अधिकार नहीं करता है (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) जिसके निकट शयन किये हुए रोमोंवाला अङ्ग फड़कता है (सः-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार रखता है (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-लम्बते) जिसके निकट शयन करने पर सांथलों-जङ्घाओं के बीच में सुखदायक अङ्ग विजृम्भित होता है, वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार करता है ॥१५-१७॥

    भावार्थ

    रोमवाले अङ्ग का फड़फड़ाना सुखप्रद अङ्ग का सांथलों-योनिमध्य में अवलम्बित होना गृहस्थकर्म पर अधिकार कराता है ॥१५-१७॥

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    विषय

    उत्कृष्ट और निकृष्ट पुरुष के लक्षण।

    भावार्थ

    (सः न ईशे) वह ऐश्वर्यवान् नहीं है (यस्य) जिसका (कपृत्) कपाल, शिर (सक्थ्या अन्तरा) जांघों के बीच पशु के समान अपने से बलशाली के सामने (रम्बते) लटक पड़ता है। (सः इत् ईशे) वह ही सब पर शासन करता है (नि-पेदुषः यस्य) उच्चासन पर विराजे हुए जिसका (रोमशं) लोमों से युक्त मुख (विजृम्भते) विशेष रूप से खिलता है, और अधीनों पर शासन करता है, वही (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान्, शत्रुनाशक तेजस्वी, (इन्द्रः) राजा (विश्वस्मात् उत्तरः) सब से उत्कृष्ट है। अध्यात्म में—(यस्य कपृत्) जिसका आत्म-पालक शक्ति से युक्त वा सुखग्राही अन्तःकरण (सक्थ्योः अन्तरा) समवाय या संघ बना कर विद्यमान भूमि और आकाश वा आसक्तिजनक राग द्वेषादि के बीच (रम्बते) लटक जाता, मुग्ध हो जाता है (न सः इत् ईशे) वह समस्त जगत् का स्वामी होकर उसका शासन नहीं कर सकता। प्रत्युत (नि-सेदुषः) नित्य और निरन्तर निगूढ़ रूप से विद्यमान (यस्य) जिसका बनाया (रोमशं) लोम के समान तेजः किरणों वाला विम्ब उसके मुख के तुल्य (विजृम्भते) गर्व पूर्वक तमतमाता है। वही (इन्द्रः) सब जगत् का स्वामी (विश्वस्मात् उत्तरः) सब से उत्कृष्ट है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥

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    विषय

    ध्यान व ज्ञान

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार प्रभु से रक्षित होकर जो व्यक्ति प्रभु के ध्यान में लगता है और (यस्य) = जिसका (सक्थि) = [सच समवाये] प्रभु से मेलवाला और अतएव (कपृत्) = अपने में आनन्द का पूरण करनेवाला मन (अन्तरा) = अन्दर ही (आरम्बते) = स्थिर होता है, आशय करता है, न स ईशे वह ही ईश नहीं है। (अपितु स इत् ईशे) = वह भी ईश है (निषेदुषः) = नम्रता से आचार्य चरणों में बैठनेवाले (यस्य) = जिसका (रोमशम्) = [रोमशि शेते, 'सामानि यस्य लोमानि'] साम मन्त्रों में निवास करनेवाला मन विजृम्भते विकसित होता है, अर्थात् जिसका मन ऋचाओं व यजुषों का अध्ययन करके साम मन्त्रों में आकर निवास करता है, दूसरे शब्दों में जिसका मन सम्पूर्ण ज्ञान में अवस्थित होता है। [२] जैसे ध्यान महत्त्वपूर्ण है, उसी प्रकार ज्ञान भी महत्त्वपूर्ण है । 'ध्यानी ही ईश बनता है' ऐसी बात नहीं। ज्ञानी भी उतना ही ईश बनता है । 'विद्याभ्यसनं व्यसनं, विद्याभ्यास उत्तम व्यसन हैं। यह मनुष्य को संस्कार के विषयों से बचानेवाला है। ध्यान में मनुष्य मन में एक अद्भुत आनन्द का अनुभव करता है तो ज्ञान में भी मानव मन को पवित्र बनाकर आनन्दित करने की शक्ति है । यह ज्ञानी यह अनुभव करता है कि (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तर:) = सम्पूर्ण संसार से उत्कृष्ट हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- जहाँ ध्यानी मन का ईश बनता है, वहाँ ज्ञानी भी मन का ईश हो जाता है।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वृषभः-न-तिग्मशृङ्गः) यथा तीक्ष्णशृङ्गो वृषभः (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहेषु खल्वन्तर्वर्त्तमानः सन् भृशं शब्दयति तथा (इन्द्र) हे उत्तरध्रुव ! त्वं भृशं वद (ते मन्थः) तव मन्थनं व्यापारः (हृदे शम्) हृदयाय कल्याणकारी भवतु (ते यं भावयुः सुनोति) आत्मभावमिच्छन्तीन्द्राणी तुभ्यं पुत्रं सुनोति जनयति (न सः-ईशे) न हि सः “सुपां सुलुक्” [अष्टा० ७।१।३९] इति सुलुक् पुनः सन्धिः “इष्टं गार्हस्थ्यमधिकरोति” (यस्य कपृत्) यस्य सुखं पृणाति ददाति यत्तदङ्गम् “पृणाति दानकर्मा” [निघ० ३।२०] क पूर्वकात् पृ धातो क्विपि रूपं तुक् च (सक्थ्या-अन्तरा रम्बते) सक्थिनी अन्तरा लम्बते (सः-इत्-ईशे) स एव गार्हस्थ्यमधिकरोति (यस्य निषेदुषः) यस्य निषदतो निकटं शयानस्य (रोमशं विजृम्भते) रोमशमङ्गं विजृम्भणं करोति विशिष्टं गात्रविनाम करोति (न सः-ईशे) न हि स खलु गार्हस्थ्यमधिकरोति (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) यस्य निकटं श्यानस्य रोमशमङ्गं गात्रविनाम करोति (स-इत्-ईशे) स एव गार्हस्थ्यमधिकरोति (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-रम्बते) यस्य निकटं शयानस्य सक्थिनी अन्तरा सुखदायकमङ्गं लम्बते रोमशाङ्गस्य विजृम्भणं सुखप्रदाङ्गस्य योनौ लम्बनञ्च ॥१५-१७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That person does not mle over the self whose hedonic mind roams and rambles around among objects of sensual pleasure. That person rules as master of the self whose radiant mind in a state of peace and freedom blossoms and expands in spiritual wakefulness. Indra is supreme over all.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    रोम असणारे अंग फडफडणे, सुखदायक अंग योनीमध्ये अवलंबित होणे, हेच गृहस्थधर्मावर अधिकार करविते. ॥१५-१७॥

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