ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 5
ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च
देवता - वरुणः
छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
प्रि॒या त॒ष्टानि॑ मे क॒पिर्व्य॑क्ता॒ व्य॑दूदुषत् । शिरो॒ न्व॑स्य राविषं॒ न सु॒गं दु॒ष्कृते॑ भुवं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठप्रि॒या । त॒ष्टानि॑ । मे॒ । क॒पिः । विऽअ॑क्ता । वि । अ॒दू॒दु॒ष॒त् । शिरः॑ । नु । अ॒स्य॒ । रा॒वि॒ष॒म् । न । सु॒ऽगम् । दुः॒ऽकृते॑ । भु॒व॒म् । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत् । शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठप्रिया । तष्टानि । मे । कपिः । विऽअक्ता । वि । अदूदुषत् । शिरः । नु । अस्य । राविषम् । न । सुऽगम् । दुःऽकृते । भुवम् । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
इन्द्राणी का प्रत्युत्तर (इन्द्र त्वम्) हे इन्द्र-उत्तरध्रुव ! तू (यम्-इमं प्रियं वृषाकपिम्) जिस इस अपने सूर्य की (अभिरक्षसि) अभिरक्षा करता है-तरफदारी करता है (कपिः मे प्रिया व्यक्ता) वृषाकपि-सूर्य ने मेरी प्रिया प्रकाशित सब ताराओं को दूषित कर दिया, केवल अपनी योगतारा पर ही स्थिर नहीं रहा, अतः (वराहयुः श्वा) वराह-शूकर को चाहनेवाला कुत्ता-वृक भेड़िया चन्द्रमा (अस्य कर्णे नु) इसके दोनों कान कोण भी अवश्य (जम्भिषत्) ग्रस लेता है (अस्य शिरः-नु राविषम्) इनके शिर को मैं अवश्य काट डालूँ (दुष्कृते न सुगं भुवम्) दुष्कर्मी के लिये मैं कभी सुखदा न होऊँ ॥४-५॥
भावार्थ
ज्योतिर्विद्या के क्षेत्र में सूर्य अपनी एक योगतारा रेवती पर स्थिर न रहकर अन्य ताराओं का स्पर्श करता जाता है। व्योमकक्षा की समस्त ताराओं को स्पर्श किया, पुनः क्रमशः ऐसी स्थिति में आता है कि चन्द्रमा इसके कोण को ग्रस लेता है, तो सूर्यग्रहण पड़ जाता है। यह वर्णन आलङ्कारिक ढंग से कहा गया है ॥४-५॥
विषय
देह बन्धन के नाश और सम्यग्-ज्ञान में प्रकृति की कारणता।
भावार्थ
(कपिः) सुखानन्द का पान करने वाला, साधक पुरुष (मे) मुझ प्रकृति के (व्यक्ता) नाना व्यक्त रूप में (तष्टा) बनाये गये अनेक (प्रिया) प्रिय रूपों को वह (वि अदूदुषत्) विविध प्रकार से दूषित करता है, वह उन प्रिय काम्य विषयों में अनेक दोष देखता है, मैं प्रकृति (अस्य) इसके (शिरः) अर्थात् उत्तमांग भाग को (नु) अवश्य ही (राविषम्) उपदेशप्रद ज्ञान से उपदेश करती हूँ। मैं (दुष्कृते) दुष्टाचारी पुरुष के लिये (सुगम् न भूवम्) सुखकारी नहीं होती। (इन्द्रः विश्वस्मात् उत्तरः) वह परमेश्वर ही सब से ऊंचा और महान् है। इति प्रथमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥
विषय
विषयदोष-दर्शन
पदार्थ
[१] प्रकृति कहती है कि (मे) = मेरे से (तष्टानि) = बनाये गये (व्यक्ता) = [ adorned, decorated] अलंकृत (प्रिया) = देखने में बड़े प्रिय लगनेवाले इन विषयों को (कपिः) = यह 'वृषा- कपि' (व्यदूदुषत्) = दूषित करता है, इन विषयों के दोषों को देखता हुआ इनमें फँसता नहीं । [२] प्राकृत मनुष्य इन विषयों के दोषों को न देखता हुआ इनमें आसक्त हो जाता है, (नु) = उस समय प्रकृति (अस्य शिरः) = इसके सिर को (राविषम्) = तोड़-फोड़ देती है । यह प्रकृति कभी भी (दुष्कृते) = अशुभ कर्म करनेवाले के लिये (न सुगं भुवम्) = सुखकर गमनवाली नहीं होती । वस्तुतः प्रकृति-प्रवण हो जाना ही गलती है। (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु ही (विश्वस्मात्) = सबसे (उत्तरः) = उत्कृष्ट हैं। उन्हीं की ओर चलना श्रेष्ठ है। प्रकृति के भोग तो प्रारम्भ में रमणीय लगते हुए भी परिणाम में विषतुल्य हैं।
भावार्थ
भावार्थ-प्राणसाधक विषय-दोष दर्शन करता हुआ उनमें फँसता नहीं । दूसरा व्यक्ति इनमें फँसकर अशुभ मार्ग पर चलता है, उसके लिये प्रकृति ही अन्त में घातक हो जाती है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
इन्द्राण्याः प्रत्युत्तरम्−(इन्द्र त्वं यम्-इं प्रियं वृषाकपिम्-अभिरक्षसि) हे इन्द्र ! उत्तरध्रुवरूप मम पते ! त्वं यमिमं प्रियं वृषाकपिं सूर्यं परिपालयसि (कपिः-मे प्रिया व्यक्ता तष्टानि व्यदूदुषत्) कपिः वृषाकपिः “पूर्वपदलोपश्छान्दसः” पूर्वपदलोपो द्रष्टव्यः, देवदत्तो दत्तः सत्यभामा भामेति” [महाभाष्य व्या० १।१।१] स्वकीययोगनक्षत्रमेव न स्थितोऽपि तु मम प्रियाणि प्रकाशितानि सम्पन्नानि नक्षत्राणि विदूषितवान् अतः (वराहयुः श्वा-अस्य कर्णे-अपि नु जम्भिषत्) वराहमिच्छुकः श्वा चन्द्रमाः “वृकश्चन्द्रमा भवति” [निरुक्त ५।२०] अस्य कर्णं-कोणं ग्रसितवान् (शिरः नु-अस्य राविषम्) अस्य शिरोऽवश्यं लुनीयाम् (दुष्कृते न सुगं भुवम्) दुष्कर्मिणे न सुखदा भवेयम् ॥४-५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
And all my dear forms of existence wrought into beauteous being, he pollutes. I would rather push his head down, I would not be good and never allow him anything too easily for this sinner.$Indra is supreme over all the world.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्योतिर्विद्येच्या क्षेत्रात सूर्य एका योगतारा रेवतीवर स्थिर न राहता अन्य ताऱ्यांना स्पर्श करत जातो. व्योमकक्षेच्या संपूर्ण ताऱ्यांना स्पर्श करत पुन्हा क्रमश: अशा स्थितीत येतो, की चंद्र त्याच्या कोनांना गिळतो तेव्हा सूर्यग्रहण होते. हे वर्णन येथे आलंकारिक रीतीने सांगितलेले आहे. ॥४, ५॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal