ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 22
ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च
देवता - वरुणः
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
यदुद॑ञ्चो वृषाकपे गृ॒हमि॒न्द्राज॑गन्तन । क्व१॒॑ स्य पु॑ल्व॒घो मृ॒गः कम॑गञ्जन॒योप॑नो॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । उद॑ञ्चः । वृ॒षा॒क॒पे॒ । गृ॒हम् । इ॒न्द्र॒ । अज॑गन्तन । क्व॑ । स्यः । पु॒ल्व॒घः । मृ॒गः । कम् । अ॒ग॒न् । ज॒न॒ऽयोप॑नः । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदुदञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगन्तन । क्व१ स्य पुल्वघो मृगः कमगञ्जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । उदञ्चः । वृषाकपे । गृहम् । इन्द्र । अजगन्तन । क्व । स्यः । पुल्वघः । मृगः । कम् । अगन् । जनऽयोपनः । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.२२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 22
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 7
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वृषाकपे) हे सूर्य (यत्-उदञ्चः) जब तू उदङ्मुख हुआ उत्तरगोलार्ध में होकर (गृहम्-अजगन्तन) अपने घर को चला जाता है (इन्द्र स्य पुल्वघः) हे उत्तरध्रुव ! वह बहुपक्षी (जनयोपनः-मृगः) जनमोहकमृग-मृग के समान सूर्य (क्व कम्-अगन्) कहाँ किस प्रदेश को चला गया ॥२२॥
भावार्थ
उत्तरध्रुव की ओर उत्तरायण में होकर सूर्य फिर अपने घर सम्पातबिन्दु में पहुँच जाता है। ज्योतिषी विद्वान् उसकी इस गतिविधि पर विचार करते हैं कि यह ऐसा किस कारण से होता है ? ॥२२॥
विषय
प्रभु-दया से अमर पद की प्राप्ति।
भावार्थ
हे (वृषाकपे इन्द्र) सुखवर्षी, परम रस के पान करने वाले ! वा अंधकारनाशक तेजस्विन् ! आत्मन् ! प्रभो ! (यत्-उदञ्चः) जब उर्ध्व, उत्तम मार्ग से जाने वाले पुरुष (गृहम्) सर्वशरण्य प्रभु को (अजगन्तन) प्राप्त हो जाते हैं तब उनका (स्यः) वह (पुलु-अधः) बहुत पापों वाला (जन-योपनः) प्राणियों को मोहने वाला (मृगः) शुद्ध, वा विषयों को खोजने वाला, पापभागी आत्मा, वा बहुतों को मारने वाला वा बहुत से जनों को त्रास देने वाला मृत्यु (क्व अगन् कम्) कहां चला जाता है, कहां नष्ट हो जाता है ? उसका नाश होना यही प्रभु की दया है। अतः (विश्वस्मात् इन्द्रः उत्तरः) वह परमेश्वर ही सब से उत्कृष्ट है। अर्थात् मृग, सिंह जिस प्रकार (पुलु-अधः) बहुतों को मारने वाला और (जन-योपनः) अनेक जनों, जन्तुओं का नाश करने वाला सिंह गृह में आने पर न जाने कहां जाता है। अर्थात् गृह में रहते हुए सिंह का त्रास नहीं रहता। इसी प्रकार परम शरण्य प्रभु रूप गृह में आने पर त्रासकारी पाप वा मृत्यु का भी भय छूट जाता है। ‘न तत्र मृत्युर्न जरा वि-पाप्मा।’ उप०। केवल ‘कम्’ सुख रूप होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥
विषय
'उदङ्', नकि 'पुल्वघ- मृग- जनयोपन'
पदार्थ
[१] हे (वृषाकपे) = वासनाओं को कम्पित करनेवाले शक्तिशाली जीव ! (यद्) = जब (उदञ्चः) = [उत अञ्च्] लोग उत्कृष्ट मार्ग पर चलनेवाले होते हैं तभी वे (गृहं अजगन्तन) = घर को प्राप्त होते हैं । ब्रह्मलोक ही वस्तुतः इस जीव का घर है । उत्कृष्ट मार्ग पर चलते हुए व्यक्ति इस गृह को प्राप्त करते हैं। [२] परन्तु हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (स्यः) = वह (पुल्वघ) = बहुत पापोंवाला (मृगः) = सदा विलास की वस्तुओं को खोजनेवाला [मृग अन्वेषणे] मौज की तलाश में रहनेवाला व्यक्ति (क्व) = कहाँ इस ब्रह्मलोक रूप गृह में आ पाता है ? (जनयोपनः) = लोगों को पीड़ित [युप्] करनेवाला (कं अगन्) = किसको प्राप्त करता है ? अर्थात् यह (जनयोपन) = अपनी मौज के लिये औरों को मिटानेवाला पुरुष इस ब्रह्मलोक को प्राप्त नहीं करता । उन्नति के मार्ग पर चलनेवाला पुरुष ही जान पाता है कि (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु ही (विश्वस्मात् उत्तरः) = सम्पूर्ण संसार से उत्कृष्ट हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम 'उदङ्' बनें । 'पुल्वघ- मृग- जनयोपन' न बनें।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वृषाकपे) हे वृषाकपे सूर्य ! (यत्-उदञ्चः-गृहम्-अजगन्तन) यदा त्वमुदङ्मुखः सन् उत्तरगोलार्धं भूत्वा स्वगृहं गतो भवसि (इन्द्र स्य पुल्वघः-जनयोपनः-मृगः क्व कम्-अगन्) हे इन्द्र ! उत्तरध्रुव ! सम्बोध्य पृच्छन्ति ज्ञातुमिच्छन्ति ज्योतिर्विदः-यत् स बहुभक्षी “पुल्वघो बह्वादी” [निरु० १३।३] जनमोहकः सूर्यः कुत्र कं प्रदेशं गतः ॥२२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Vrshakapi, O Indra, when the higher souls come rising to the state of peace in the divine home, then where does the sinner, the vexatious and the seeker roaming around go, to what state of life? Great is Indra, supreme over all the world.
मराठी (1)
भावार्थ
उत्तरायणात उत्तर ध्रुवाकडे येऊन सूर्य पुन्हा आपल्या घरी संपात बिंदूमध्ये पोचतो. हे कोणत्या कारणामुळे होते? या गतिविधीचा विचार ज्योतिषी विद्वान करतात. ॥२२॥
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