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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 13
    ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च देवता - वरुणः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    वृषा॑कपायि॒ रेव॑ति॒ सुपु॑त्र॒ आदु॒ सुस्नु॑षे । घस॑त्त॒ इन्द्र॑ उ॒क्षण॑: प्रि॒यं का॑चित्क॒रं ह॒विर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑कपायि । रेव॑ति । सुऽपु॑त्रे । आत् । ऊँ॒ इति॑ । सुऽस्नु॑षे । घस॑त् । ते॒ । इन्द्रः॑ । उ॒क्षणः॑ । प्रि॒यम् । का॒चि॒त्ऽक॒रम् । ह॒विः । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे । घसत्त इन्द्र उक्षण: प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषाकपायि । रेवति । सुऽपुत्रे । आत् । ऊँ इति । सुऽस्नुषे । घसत् । ते । इन्द्रः । उक्षणः । प्रियम् । काचित्ऽकरम् । हविः । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 13
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वृषाकपायि रेवति) हे वृषाकपि-सूर्य की पत्नी रेवती तारा नक्षत्र ! (सुपुत्रे-आत् सुस्नुषे) अच्छे पुत्रोंवाली तथा अच्छी सुपुत्रवधू (ते-उक्षणः) तेरे वीर्यसेचक सूर्य आदियों को (प्रियं काचित्करं हविः) प्रिय सुखकर हवि-ग्रहण करने योग्य भेंट को (इन्द्रः-घसत्) उत्तरध्रुव ग्रहण कर लेता है-मैं उत्तर ध्रुव खगोलरूप पार्श्व में धारण कर लेता हूँ, तू चिन्ता मत कर (मे हि पञ्चदश साकं विंशतिम्) मेरे लिये ही पन्द्रह और साथ बीस अर्थात् पैंतीस (उक्ष्णः पचन्ति) ग्रहों को प्रकृतिक नियम सम्पन्न करते हैं (उत-अहम्-अद्मि) हाँ, मैं उन्हें खगोल में ग्रहण करता हूँ (पीवः) इसलिये मैं प्रवृद्ध हो गया हूँ (मे-उभा कुक्षी-इत् पृणन्ति) मेरे दोनों पार्श्व अर्थात् उत्तर गोलार्ध दक्षिण गोलार्धों को उन ग्रह-उपग्रहों से प्राकृतिक नियम भर देते हैं ॥१३-१४॥

    भावार्थ

    आकाश में जिन ग्रहों-उपग्रहों की गति नष्ट होती देखी जाती है, वे पैंतीस हैं। आरम्भ सृष्टि में सारे ग्रह-उपग्रह रेवती तारा के अन्तिम भाग पर अवलम्बित थे, वे ईश्वरीय नियम से गति करने लगे, रेवती तारे से पृथक् होते चले गये। विश्व के उत्तर गोलार्ध और दक्षिण गोलार्ध में फैल गये, यह स्थिति सृष्टि के उत्पत्तिकाल की वेद में वर्णित है ॥१३-१४॥

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    विषय

    प्रभु का सर्वोपरि उत्कर्ष।

    भावार्थ

    हे (वृषाकपायि) समस्त सुखों को मेघ के तुल्य वर्षण करने वाले प्रभु की अपार शक्ति ! हे (रेवति) अनेक ऐश्वर्यो की स्वामिनि ! हे (सु-पुत्रे) उत्तम पुत्रों, जीवों वाली ! हे (सु-स्तुषे) उत्तम सुखपूर्वक विराजने वाली, सुखदायिनि ! (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् प्रभु (उक्षणः) सेचन करने वाले मेघ से उत्पन्न अथवा (उक्षणः) जगत् को धारण करने वाले सूर्य आदि लोकों को (प्रियम्) प्रीतिकारक (काचित्-करम्) अनेक सुखों के देने वाले (ते हविः) ते उत्तम अन्न के सदृश ही इस जगत् को (घसत्) खाजाता है, इसको प्रलय काल में लील लेता है। वही ऐश्वर्यवान् प्रभु (विश्वस्मात् उत्तरः) देह में प्रवेश करने वाले आत्मा से कहीं उत्कृष्ट शक्तिशाली है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥

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    विषय

    आत्मा की पत्नी बुद्धि

    पदार्थ

    [१] हे प्रकृति ! तू (वृषाकपायि) = इस वृषाकपि की माता है । वृषाकपि का उत्कर्ष इसी में है कि वह माता को माता के रूप में देखे और इससे सहायता लेता हुआ इसके भोगों में आसक्त न हो । (रेवति) = हे प्रकृति तू तो ऐश्वर्य सम्पन्न है । सम्पूर्ण ऐश्वर्य का स्रोत तू है, तू ऐश्वर्य ही है । (सुपुत्रे) = यह वृषाकपि तेरा उत्तम पुत्र है। (आद् उ) = और अब (सुस्नुषे) = हे प्रकृति ! तू उत्तम स्नुषावाली है । वृषाकपि तेरा पुत्र है और उस वृषाकपि की पत्नी 'बुद्धि' है। यह बुद्धि तेरी स्नुषा हुई। इस बुद्धि के द्वारा चलता हुआ वृषाकपि ही तो अपने जीवन को उत्तम बना पाता है । [२] यह वृषाकपि उन्नत होता हुआ अपने पिता के अनुरूप बनकर 'इन्द्र' ही बन जाता है। यह (इन्द्रः) = इन्द्र (ते) = तेरे प्राकृतिक आहार से उत्पन्न हुए हुए, (उक्षण:) = [उक्ष सेचने] शरीर को शक्ति से सिक्त करनेवाले वीर्यकणों को (घसत्) = खाता है, इन्हें अपने शरीर में ही व्याप्त करने का प्रयत्न करता है। यह उसके लिये (प्रियम्) = प्रीणित करनेवाली (काचित् करम्) = निश्चय से सुख को देनेवाली (हविः) = हवि होती है, इसकी वह शरीर यज्ञ में आहुति देता है। यही वीर्य का भक्षण है । इस हवि के सेवन से वह अत्यन्त तीव्र बुद्धि होकर उस प्रभु का दर्शन करता है जो (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तर:) = सम्पूर्ण संसार से उत्कृष्ट है । सच्चा जीवनयज्ञ है इस यज्ञ को

    भावार्थ

    भावार्थ- वीर्यरूप हवि की शरीराग्नि में ही आहुति देना करनेवाला प्रभु को 'पुरुषोत्तम' रूप में देखता है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    अनयोर्मन्त्रयोरेकवाक्यतास्ति−(वृषाकपायि रेवति) हे वृषाकपेः सूर्यस्य पत्नि रेवति तारे ! नक्षत्र ! “वृषाकपायी वृषाकपेः पत्नी” [निरु० १२।९] (सुपुत्रे-आत् सुस्नुषे) सुपुत्रे तथा सुपुत्रवधु ! (ते-उक्षणः प्रियं काचित्करं हविः-इन्द्रः-घसत्) तव वीर्यसेचकान् सूर्यादीन् “अरुरूचदुषसः……उक्षा बिभर्त्ति भुवनानि” [ऋ० ९।८३।८] “उक्षास द्यावापृथिवी बिभर्त्ति” [ऋ० १०।३१।८] प्रियं सुखकरं हविरिन्द्रः-उत्तरध्रुवो भक्षितवान् स्वखगोलपार्श्वे धारितवान्, न चिन्तय (मे हि पञ्चदश साकं विंशतिम्-उक्ष्णः पचन्ति) हे रेवति ! मह्यमेव मम खगोलं पूरयितुं पञ्चदश साकं विंशतिम् च सर्वान् पञ्चत्रिंशत् उक्ष्णो वीर्यसेचकानिव ग्रहोपग्रहान् प्राकृतिकनियमाः सम्पादयन्ति “उक्षाणं पृश्निमपचन्त वीरा” [ऋ० १।१६४।४३] इत्यत्र “अपचन्त धात्वर्थानादरेण तिङ् प्रत्ययः करोत्यर्थः” सम्पादितवन्त इत्यर्थः” इति सायणः। (उत-अहम्-अद्मि) अपि तानहं खगोले गृह्णामि “अत्ता चराचरग्रहणात्” [वेदान्त १।२।९] (पीवः) अतोऽहं प्रवृद्धो जातः (मे-उभा कुक्षी-इत् पृणन्ति) ममोभे पार्श्वे-उत्तरगोलार्धदक्षिणगोलार्धभागौ ते ग्रहोपग्रहैः पूरयन्ति ते नियमाः सृष्टेरारम्भे सर्वे ग्रहोपग्रहा रेवतीनक्षत्रान्तोपर्यवलम्बिता आसन् “ध्रुवताराप्रतिबद्धज्योतिश्चक्रं प्रदक्षिणमाग” (?) पौष्णाश्विन्यन्तस्थैः सह ग्रहैर्ब्रह्मणा सृष्टम्। [ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त मध्यमा ३] ॥१३-१४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Vrshakapayi, mother Prakrti, provider of living beings, opulent and abundant power, mother of noble children and giver of joy and bliss, mother fertility, Indra would ultimately take over and consume whatever dear, creative and inspiring havi you would offer here in the created world.$Indra is supreme over all the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आकाशात ज्या ग्रह उपग्रहाची गती-उपगती दिसून येते ते पस्तीस आहेत. सृष्टीच्या आरंभी सारे ग्रह उपग्रह रेवती ताऱ्याच्या अंतिम भागावर अवलंबित होते ते ईश्वरीय नियमाने गती करू लागले व रेवती ताऱ्यापासून वेगळे होत गेले. विश्वाच्या उत्तर गोलार्ध व दक्षिण गोलार्धात पसरले. ही स्थिती सृष्टीच्या उत्पत्ती काळच्या वेदामध्ये वर्णित आहे. ॥१३-१४॥

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