ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 12
ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च
देवता - वरुणः
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
नाहमि॑न्द्राणि रारण॒ सख्यु॑र्वृ॒षाक॑पेॠ॒ते । यस्ये॒दमप्यं॑ ह॒विः प्रि॒यं दे॒वेषु॒ गच्छ॑ति॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठन । अ॒हम् । इ॒न्द्रा॒णि॒ । र॒र॒ण॒ । सख्युः॑ । वृ॒षाक॑पेः । ऋ॒ते । यस्य॑ । इ॒दम् । अप्य॑म् । ह॒विः । प्रि॒यम् । दे॒वेषु । गच्छ॑ति । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेॠते । यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठन । अहम् । इन्द्राणि । ररण । सख्युः । वृषाकपेः । ऋते । यस्य । इदम् । अप्यम् । हविः । प्रियम् । देवेषु । गच्छति । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 12
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्राणि) हे व्योमकक्षा ! (वृषाकपेः सख्युः-ऋते) सूर्य सखीभूत-पुत्र के विना (अहं न रराण) मैं रमण नहीं करता हूँ, शान्ति को प्राप्त नहीं करता हूँ (यस्य-इदम्-अप्यम्) जिस सूर्य का यह अन्तरिक्ष में जानेवाला (प्रियं हविः) अभीष्ट रश्मितेज (देवेषु गच्छति) ग्रह नक्षत्रों में जाता है ॥१२॥
भावार्थ
सूर्य के बिना उत्तर ध्रुव का कार्य नहीं चलता है, आकाश के सब गोलों में सूर्य का रश्मितेज पहुँचता है ॥१२॥
विषय
जगत्-सर्ग में जीवात्मा की आवश्यकता। जगत् सर्ग में परम प्रभु की आनन्दप्रदता से उसका सबसे अधिक उत्कर्ष।
भावार्थ
हे (हन्द्राणि) इन्द्र के अधीन प्रकृति ! (अहम्) मैं प्रभु परमेश्वर (सख्युः वृषाकपेः ऋते) मित्र के समान वृषाकपि जीवात्मा के बिना (न ररण) जगत् को व्यक्त नहीं करता। (यस्य इदं) जिसका यह (अप्यं हविः) ‘अपः’ अर्थात् सलिल वा रुधिरमय, वा सूक्ष्म लिङ्ग-देह रूप साधन (प्रियम्) अति प्रिय है और जो (देवेषु गच्छति) सूक्ष्म तेजोमय रश्मियों के आश्रय ही (गच्छति) गमन करता है। (इन्द्रः विश्वस्मात् उत्तरः) मैं सर्वैश्वर्यवान् प्रभु सब से उत्तम हूँ। (२) अथवा जीव प्रकृति के प्रति कहता है—हे (इन्द्राणि) ऐश्वर्यवति ! मैं (वृषाकपेः) समस्त सुखों की वृष्टि करने वाले और समस्त विश्व को चलाने वाले (सख्युः) परम सखा प्रभु के (ऋते) विना (न ररण) सुख शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता। वह प्रभु (यस्य इदम् अप्यं हविः) ‘आपः’—सूक्ष्म प्राणशक्ति रूप अन्न वा शक्तिदायक तत्त्व (प्रियम्) सबको तृप्तिदायक होकर (देवेषु गच्छति) जीवों को प्राप्त होता है। वह प्रभु ही सब से उत्कृष्ट है। अधिभूत पक्ष में—वृषाकपि मेघ, इन्द्राणी पृथिवी, सखा इन्द्र सूर्य, जलमय हवि, मेघ का जल, और प्रिय हवि उससे उत्पन्न सर्वतर्पक अन्न।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥
विषय
सृष्टि निर्माण जीव के लिये
पदार्थ
[१] प्रभु प्रकृति से कहते हैं कि (इन्द्राणि) = हे प्रकृति ! (अहम्) = मैं (सख्युः) = इस मित्र 'द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया०' (वृषाकपेः) = वासनाओं को कम्पित करके दूर करनेवाले और अतएव शक्तिशाली इस वृषाकपि के (ऋते) = बिना (न रारणे) = इस सृष्टिरूप क्रीड़ा को नहीं करता हूँ । यह सृष्टिरूप क्रीड़ा इस मित्र जीव के लिये ही तो है । आप्तकाम होने से मुझे इसकी आवश्यकता नहीं, जड़ता के कारण तुझे [ प्रकृति को इसकी जरूरत नहीं । जीव इसमें साधन-सम्पन्न होकर उन्नत होता हुआ मोक्ष तक पहुँचता है । [२] वह जीव (यस्य) = जिसकी (इदम्) = यह (अप्यं हविः) = रेतः कण सम्बन्धी (हवि प्रियम्) = इसे प्रीणित करनेवाली होती है और इसके शरीर को कान्ति प्रदान करती है तथा (देवेषु गच्छति) = सब इन्द्रियरूप देवों में जाती है। रेतः कणों का रक्षण करना ही शरीर में इस 'अप्य हवि' को आहुत करना है । यह हवि शरीर को कान्त बनाती है और सब इन्द्रियों को सशक्त बनाती है। [२] इस (अप्यं हवि) = के द्वारा सब शक्तियों का वर्धन करके यह जीव अनुभव करता है कि (इन्द्र:) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तरः) = सब से अधिक उत्कृष्ट हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु इस सृष्टि का निर्माण जीव के लिये करते हैं। भोगों में न फँसकर जब यह शक्ति को शरीर में ही सुरक्षित करता है, तो प्रभु को पहचान पाता है।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्राणि) हे इन्द्राणि ! व्योमकक्षे ! (सख्युः-वृषाकपेः-ऋते-अहं न रराण) सखिभूताद् वृषाकपेः सूर्यादृते नाहं रमामि न शान्तिं लभे (यस्य-इदम्-अप्यं प्रियं हविः-देवेषु गच्छति) यस्य वृषाकपेः सूर्यस्य खल्विदमन्तरिक्षगामिप्रियरश्मितेजः “आपोऽन्तरिक्षनाम” [निघ० १।३] द्युस्थानगतेषु लोकेषु गच्छति “देवो द्युस्थानो भवतीति वा” [निरु० ७।१५] ॥१२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O divine consort, Indrani, I never enjoy the play of existence without my friend and companion, Vrshakapi, generous playful humanity, since the havi given by him and given for nature and humanity goes up and reaches the divinities which I share.$Indra is supreme over all.
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्याशिवाय उत्तरध्रुवाचे कार्य चालत नाही. आकाशात सर्व गोलांमध्ये सूर्याचे रश्मितेज पोचते. ॥१२॥
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